Friday, March 29, 2024

अपने अकेले दम पर भूख की आग मिटाने में जुटे हैं लोग

(कोरोना वैश्विक महामारी के खिलाफ ऑल इंडिया लॉक डाउन के दरम्यान दिल्ली और उसके आस-पास के राज्यों से प्रवासी मजदूरों के पलायन को कवर करने के सिलसिले में हरियाणा और राजस्थान तक का गए अवधू आजाद और सूबे सिंह की ये रिपोर्ट-संपादक)

नई दिल्ली। 21 दिन के लॉक डाउन (पता नहीं 21 दिन बाद खत्म होगा या और बढ़ेगा) जब समाज के कई स्वार्थी लोग अपने और परिवार के लिए सामानों का भंडारण करने में लगे हुए हैं। कुछ लोग अपनी जमा बचत (धन और अन्न) को भूखे लोगों में बाँटने में लग जाते हैं बिना इस बात की परवाह किए कि 21 दिन बाद स्थिति और बदतर हुई तो वो और उनका परिवार क्या खाकर जीवित रहेगा। 

बता दें कि दिल्ली और दिल्ली से सटे राज्यों के सीमावर्ती क्षेत्रों में लाखों प्रवासी मजदूर काम करते हैं। लेकिन ऑल इंडिया लॉक डाउन की घोषणा के बाद लगभग सभी कंपनियां, कारखाने, बाजार सब बंद हो गए। ऐसे में लाखों प्रवासियों के सामने रहने खाने का संकट उत्पन्न हो गया। इतने बड़े पैमाने पर मजदूरों के रहने की व्यवस्था तो सरकार जैसी प्रशासकीय संस्था ही कर सकती है। लेकिन खाने की व्यवस्था दिल्ली और दूसरी जगहों पर स्थानीय लोगों ने बेहद निजी स्तर पर प्रयास करके भूखे लोगों तक खाने की सामग्री पहुँचाया। ये निजी प्रयास एनजीओ या दूसरी तमाम संस्थाओं के सामूहिक प्रयास से इस मायने में अलग हैं क्योंकि एनजीओ के पास एक टीम होती है जिसे काम का अनुभव होता है, दूसरा उनके पास कई जगहों से फंड आते हैं। 

साथियों के साथ ताराचंद मींणा।

लेकिन एकल प्रयासों में न सिर्फ संसाधन सीमित और संकुचित होता है बल्कि लॉक डाउन के समय पुलिस के हमले का भी भय रहता है। 

अकील दूरदर्शन में ड्राइवर हैं। उन्होंने दिल्ली में लॉक डाउन के बाद भूखे प्यासे प्रवासी मजदूरों को अपने सीमित संसाधनों का इस्तेमाल करके अपने जेब से पैसे खर्च कर उनके लिए खाने का बंदोबस्त किया और अपने हाथों से भूखे लोगों में बाँटा। 

लॉक डाउन पीरियड के बिल्कुल शुरुआती दिनों में जब स्थिति बेहद भयावह थी लोग बाग पैनिक हो रहे थे। द्वारका सेक्टर 1 में अमरजीत कटिहार अपनी बाइक पर टोकरी में भर भरकर प्रवासी मजदूरों को खाना डिस्ट्रीब्यूट कर रहे थे। उन्होंने बताया कि वो अपने निजी संसाधनों और गली मोहल्ले के लोगों द्वारा स्वेच्छा से किए गए योगदान से ये सब कर रहे हैं। न वो कोई संस्था चलाते हैं न किसी संस्था से जुड़े हैं और न ही किसी संस्था के कहने पर ऐसा कर रहे हैं। उन्हें लगा कि बहुत से लोग भूखे प्यासे हैं तो संकट की इस घड़ी में उन लोगों की मदद के लिए अपने से थोड़ा बहुत जो बन पड़े वो करना चाहिए इसीलिए वो ऐसा कर रहे हैं। वहीं नोएडा के दादरी में विकास ने ट्रॉली में भरकर प्रवासी मजदूरों में खाना डिस्ट्रीब्यूट किया।

ईशान रिज़वान घोण्डा गली में रहते हैं। ये वही घोण्डा चौक है जहां 24-25 फरवरी को दहशतगर्दों ने जमकर हिंसा और आगजनी करके उसे अपना निशाना बनाया था। लेकिन घोण्डा के लोगों की जिजीविषा देखिए कि महज एक महीने बाद ही वो अपना दर्द भूलकर लॉक डाउन में फँसे लोगों की मदद के लिए आगे बढ़कर आ गए।

ईशान रिज़वान अपने अपने घर से खाना बनाकर लाए और गली में ठेला लगाकर उन भूखे प्रवासी मजदूरों में बाँटा जो लॉक डाउन के बाद 3-4 दिन से भूखे थे। पूछने पर रिज़वान बताते हैं कि ये उनका एकल प्रयास है। कई बार पुलिस उन्हें खदेड़ती भी है और लॉक डाउन का उल्लंघन करने पर जेल भेजने की धमकी देकर डराती भी है लेकिन वो भूखों को भोजन देने का अपना काम करते रहे। 

शाहजहाँपुर टोल प्लाजा पर टोल स्टाफ के लोगों ने प्रवासी मजदूरों को अपने खर्चे से खाना बाँटा। हमने बंटी, मीणा, दद्दा सिंह मीणा (सेफ्टी इंचार्ज शाहजहाँपुर), वीरेंद्र मीणा, लालाराम मीणा से बातें की। हमने उनसे पूछा कि क्या किसी एनजीओ के तहत ये कर रहे हैं तो उन्होंने बताया कि नहीं साहेब, टोल स्टाफ के लोग अपने निजी खर्चे से प्रवासी मजदूरों को लगातार कई दिनों तक खाना खिला रहे थे। बंटी मीणा कहते हैं जैसे हम मंदिर जाकर महसूस करते हैं वैसे ही हम भूखी मनुष्यता को खाना बाँटकर महसूस कर रहे हैं। लोगों को इस तरह भूखे प्यासे पैदल जाते सैकड़ों किलोमीटर यात्रा करते देखकर दुख भी होता है।

अपनी मालवाहक गाड़ी से छोड़ने गए

ताराचंद मीना मालवाहक मिनी ट्रॉली चलाते हैं। लॉक डाउन के बाद जब यातायात के सारे साधन बंद थे और हजारों मजदूर सैकड़ों किलोमीटर दूर स्थित अपने गांवों के लिए भूखे प्यासे पैदल ही निकल लिए थे तब ताराचंद अपने मालवाहक गाड़ी में कई मजदूरों को मानेसर से पलवल तक मुफ्त में छोड़ने गए। मानेसर गाँल के लोगों ने उनके लिए खाना पानी की व्यवस्था की।

मानेसर में पचगांव के लोग सड़क पर भूखे प्यासे प्रवासी मजदूरों को खाना बाँट रहे हैं। उनके नाम रिंकू, दीपक, लव, अंकुर, पोनू और किल्विस है। ये लोग अपने निजी प्रयास और थोड़ी बहुत गाँव वालों की मदद से यहाँ खाना लेकर आए हैं और लोगों को खिला रहे हैं। अंकुर बताते हैं कई लोग कई दिनों के भूखे हैं और खाना पाते ही रोने लगते हैं, बहुत ही दयनीय स्थिति है। सरकार को इनके बारे में भी सोचकर फैसला लेना चाहिए था।

(अवधू आजाद/ सूबे सिंह की दिल्ली से रिपोर्ट।)

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