एक बार फिर मण्डल बनाम कमण्डल!

उत्तर प्रदेश में हर रोज राजनैतिक भूचाल के झटके लग रहे हैं। बहुजन विमर्श, जिसे विगत वर्षों में आखेट कर लिया गया था, एक बार फिर चर्चा में आ चुका है। मंत्रियों और विधायकों के इस्तीफे आ रहे हैं। सरकार हैरान है कि इनमें जान कहाँ से आ गयी? हवा में जो कारण तैर रहे हैं, वे हैं–दलितों, पिछड़ों, किसानों, बेरोजगारों, नौजवानों, छोटे लघु एवं व्यापारियों की घोर उपेक्षा। ये कारण काल्पनिक नहीं हैं।

यथार्थ तो कहीं और भी भयावह है मगर इस भूचाल के सूत्रधार पिछड़े समुदाय के वे नेता हैं जो पिछले पांच सालों से अपने वैचारिक विरोधी, राष्ट्रवादी पार्टी की पालकी ढो रहे थे। तब उन्होंने सार्वजनिक मंचों पर कभी अपनी जुबान न खोली थी। प्रदेश के दलितों की हत्याएं होती रहीं, ओबीसी आरक्षण को निगला जाता रहा, अधिकारियों की तैनाती में दलितों, ओबीसी और अल्पसंख्यकों की उपेक्षा होती रही, बेरोजगार पीटे जाते रहे मगर बहुजनों के नेता हिंदुत्व को स्थापित करने में अपना मौन समर्थन देते रहे।

अब उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक बार फिर बहुजन विमर्श अपनी सुषुप्तावस्था तोड़ते हुए करवट ले रहा है। ऐसा लगा रहा है कि उसकी तन्द्रा टूटी है। तो क्या हम उम्मीद करें कि वर्णवादी जाति व्यवस्था में हाशिए पर धकेले गये पिछड़े और अस्पृश्यों का मोहभंग हो रहा है? उत्तर प्रदेश को जिस तरह, नफरत और विभाजन से शासित किया जा रहा है, वहां का बहुजन बेहद नाराज और उपेक्षित है। वह बदलाव चाहता है। वर्तमान परिस्थितियों में वह शीघ्रता से खड़ा हो सकता है, और वंचितों की हकमारी का प्रतिकूल जवाब दे सकता है बशर्ते मुख्य विपक्षी पार्टी के अगुआ, अखिलेश यादव बहुजन विमर्श को बढ़ाने को आगे आएं। यह स्थान रिक्त है और समय की जरूरी मांग है। मायावती से अब बहुजनों की कोई उम्मीद नहीं है। वह राष्ट्रवादी पार्टी के करीब हैं और उनका छिपा समर्थन सत्ता पक्ष को मिला हुआ है। 

बहुजन विमर्श ने हाल के वर्षों में नंगी आंखों से अपनी हकमारी देखी है। बहुजन युवाओं का अपमान देखा है। हाथरस और उन्नाव को देखा है। आजमगढ़ का उत्पीड़न देखा है। अनारक्षित और आर्थिक रूप से कमजोर तबके (EWS) की सीटों को सवर्ण आरक्षण के रूप में बदलते देखा है। उन्होंने अपने लिए 50 प्रतिशत का आरक्षण बैरियर देखा है मगर सवर्णों के लिए उसे बिखरते, टूटते देखा है। उसने ओबीसी और दलितों को शिक्षण संस्थाओं, पीएचडी, पद और पुरस्कारों से वंचित किये जाते देखा है। प्रोमोशन में आरक्षण को खत्म होते देखा है तो सामान्य सीटों से आरक्षित वर्ग को बाहर करते देखा है। इसने बेहतर अंक पाकर भी नॉट फाउंड सुटेबल(NFS) देखा है। अपने स्वाभिमान को कुचले जाते देखा है और वर्णवादियों का अट्टहास सुना है। अब बहुजन किसी की छड़ी से हांके जाने को तैयार नहीं है।

कभी प्रदेश में काशीराम जी ने बहुजन विमर्श की शुरुआत की थी। मंडल बनाम कमंडल आंदोलन ने बहुजन युवाओं को लड़ने की ऊर्जा दी मगर बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी में घुस आए वर्णवादियों ने, दोनों का वैचारिक पतन किया। दोनों नामभर को बहुजन या समाजवादी रह गए। एक स्वर्णिम अवसर खत्म हो गया। याद कीजिये वह नारा-हाथी चले किनारे, साइकिल चले इशारे। वह मिलन भंग होने से कार्पोरेट से लेकर सामंतों को राहत मिली। तब से बहुजन राजनीतिक ऊर्जा न केवल बिखरी हुई है, वह गौरी, गणेश, परशुराम और फरसा तक जा पहुंची है। 80-90 के दशक में गाँव-गाँव में बहुजन युवा बीएससी, एमएससी कर रहे थे, आज बहुजन युवा, इंटर की पढ़ाई भी ठीक से नहीं कर पा रहे। अराजक तत्वों द्वारा इस्तेमाल हो रहे हैं। कांवड़ ढो रहे हैं।

इसलिए अगर बहुजन हकमारी की लड़ाई अखिलेशजी खुलकर नहीं लड़ेंगे तो भले ही 2022 का चुनाव जीत लें, आगे रास्ता अवरुद्ध ही रहेगा। नया नेतृत्व जगह बनाएगा। जातिवाद नंगा हो चुका है और बहुजन विमर्श खदबदा रहा है। वह उठेगा। भले ही उसका नेतृत्व किसी और के हाथ में हो। दलितों और ओबीसी के बीच से नया नेतृत्व उभरेगा। जुल्म की इंतिहा, नेतृत्व पैदा करती है। यही मार्क्सवादी सिद्धांत है। यही ज्योतिबा फुले और अम्बेडर जी के संघर्षों से सिद्ध हुआ है। किसी ने सोचा था कि ऐन चुनाव घोषित होने के बाद स्वामी प्रसाद मौर्य सहित तमाम मंत्री, विधायक, बहुजन हितों की अनदेखी का राग अलापेंगे?

यह समय की मांग थी। वह ऐसा नहीं करते तो खुद खत्म हो रहे थे। वे अपने को जीवित कर रहे हैं। सम्भव है कि मौर्य ही बहुजन ऊर्जा को उद्वेलित करने में कामयाब हो जाएं। उनमें काबिलियत तो है। उनका निर्माण भी उसी वैचारिकी में हुआ है। आज उत्तर प्रदेश में भले ही भाजपा बनाम सपा का टकराव दिखाई दे रहा है मगर जल्द यह भाजपा बनाम बहुजन टकराव में बदलने की सम्भावना है। हाँ इस संभावित टकराव में सपा और बहुजन समाज पार्टी की जगह, नई शक्तियां ले सकती हैं।

(सुभाष चंद्र कुशवाहा लेखक, साहित्यकार और इतिहासकार हैं आप आजकल लखनऊ में रहते हैं।)

सुभाष चंद्र कुशवाहा
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सुभाष चंद्र कुशवाहा