Wednesday, April 24, 2024

यूएपीए संशोधन: लोकतंत्र के ताबूत में एक और कील!

“किसी संस्था की जगह एक व्यक्ति का मनोविज्ञान ही आतंकवाद की उत्पत्ति का स्रोत होता है। अगर सबसे पहले किसी व्यक्ति द्वारा किसी दूसरे व्यक्ति को वैचारिक और वित्तीय सहायता मुहैया कराने के जरिये आतंकवाद की तरफ आकर्षित होने से उसे रोक दिया जाए तो इस राक्षस का अंत किया जा सकता है।” यह वक्तव्य केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने संसद में दिया था जब यूएपीए संशोधन विधेयक पारित हो रहा था। उन्होंने यह बात विपक्ष द्वारा उठाए गए कुछ सवालों के जवाब में कही थी। गौरतलब है कि विधेयक लोकसभा में 8 के मुकाबले 287 मतों से पारित हो गया था। (आप इस बात पर आश्चर्य चकित होंगे कि बाकी 250 लोग लोकसभा में क्या किए।)

“एक व्यक्ति का मनोविज्ञान आतंकवाद की उत्पत्ति का स्रोत है”- एक पैशाचिक बयान है जो मीडिया की हेडलाइन नहीं बन सका। माननीय गृहमंत्री अपने लोगों के बीच जिस तरह से प्रोजेक्ट करना चाह रहे हैं उसमें (1) जन्म से लोग अपराधी हो सकते हैं; (2) एक आतंकवादी खोल में रहता है जिसका समाज से कोई संपर्क नहीं होता है और वह अपनी मानसिकता विकसित कर लेता है; (3) जैसा कि आतंकी का अपराध दिमाग में रहता है इसलिए हमें उसके दिमाग में भीषण खतरे का अहसास पैदा करना होगा। केवल यही एकमात्र उपाय है। (4) जब तक कि आप समाज के सभी नागरिकों के दिमाग पर हमला नहीं करते हैं। देश प्रगति नहीं कर सकता है।

यह शासन की “दक्षिणपंथी स्टाइल” को उजागर करता है। यह हर दिमाग को अपने नियंत्रण में लेना चाहता है। उनके लिए संस्थागत और व्यवस्थागत सुधार केवल एक दिखावा भर है। और इन ताकतों की उस दिशा में सोचने की कोई प्रतिबद्धता भी नहीं है- यही बिल्कुल साफ विचार है जिसे माननीय गृहमंत्री सदन में पेश कर रहे थे। फिर उसी तर्क से अगर सोचा जाए तो फिर बच्चों के साथ अपराध कहां से आता है?  दलितों पर हमले जैसी अपराध की घटनाएं कहां से आती हैं? मॉब लिंचिंग का अपराध कहां से आता है? अगर माननीय गृहमंत्री मुख्यरूप से पुरानी महत्वपूर्ण किस्म के एक सांस्कृतिक क्रांति के बारे में सोचते हैं तो वह शानदार स्वागत के योग्य है! हालांकि उनके बयान का भोंड़ापन केवल अलग-थलग पड़े हुए व्यक्ति के दिमाग के इर्द-गिर्द घूमता है- जिसके लिए पहले से ही मान लिया गया कि उसका निदान “ब्रेन वाश” या फिर “अस्तित्व के लिए खतरा” होगा।

आइये यूएपीए संशोधन विधेयक पर नजर दौड़ाते हैं। न भूलने योग्य और माफी के भी काबिल नहीं असली विधेयक की जन्मदात्री कोई और नहीं बल्कि कांग्रेस पार्टी खुद है। इसी ने इस काले कानून को पास करवाया था और ढेर सारे दिमागों को प्रताड़ना की स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया। यह प्रोफेसर साईं बाबा (दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जिन्होंने ग्रीन हंट और आदिवासी अधिकारों पर हमले के खिलाफ आवाज उठायी थी) या थिरुमुरुगन गांधी (तमिलनाडु में स्टरलाइट विरोधी आंदोलन के कार्यकर्ता) या हेम मिश्रा (जेएनयू के छात्र) या कोई भी तथाकथित अर्बन माओवादी जो किसी लड़ाई के लिए हथियार का नहीं बल्कि   अपने मस्तिष्क का इस्तेमाल करता है, के खिलाफ इस कानून के तहत मुकदमा दर्ज किया गया था।

हालांकि अमित शाह इस बात को सिद्ध करना चाहते हैं कि प्रस्तावित कानून अमेरिका, चीन आदि देशों में बनाए गए कानूनों की ही तरह है। लेकिन एमनेस्टी इंटरनेशनल ने दो टूक तरीके से उनके इस दावे को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि- “यह विडंबनापूर्ण है कि इस संशोधन विधेयक को पारित करते हुए सरकार अंतरराष्ट्रीय कानून पर विश्वास कर रही है जबकि पूरा कानून मानवाधिकार के पूरे डिसकोर्स को दरकिनार करता है। एक बार फिर भारत का आतंकवाद विरोधी प्रमुख कानून यूएपीए सरकार को यह अधिकार देता है कि वह गरीबों और हाशिये के समुदायों के साथ काम करने वाले मानवाधिकार के रक्षकों और वो जो सरकार की नाकामी और या फिर उसकी अतियों की आलोचना करते हैं, के खिलाफ है…..अंतरराष्ट्रीय कानून और कन्वेंशन को सरकार द्वारा अपने लक्ष्यों को हल करने के मकसद से चुन-चुन कर नहीं उठाया जाना चाहिए।

आतंकवाद का मुकाबला मानवाधिकार की कीमत पर नहीं होना चाहिए।”

हालांकि गृहमंत्री ने खुद को इस तरह से पेश करने की कोशिश की कि वह आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में कुछ अंतरराष्ट्रीय मानकों का पालन कर रहे हैं। दरअसल यह उस परिप्रेक्ष्य में एक और सफेद झूठ था। जिसे वह अपने दक्षिणपंथी आकाओं और सहयोगियों की तरफ से पेश कर रहे थे।

दो महत्वपूर्ण प्रावधान हैं जो केंद्र सरकार को “आतंकवाद” के रूप में माने जाने वाले किसी भी अपराध पर अपनी बल्लेबाजी का इस्तेमाल करने का मौका दे देते हैं।

  • एनआईए को पूरा अधिकार दिया गया है कि वह किसी को भी बगैर कोर्ट से संपर्क किए आतंकवादी करार दे सकती है और उसकी संपत्ति को जब्त कर सकती है। इस बात की जो संस्तुति देता है उस अफसर की रैंक सर्किल इंस्पेक्टर से नीचे नहीं होनी चाहिए।(सेक्शन 25)
  • किसी भी व्यक्ति या फिर संगठन (सेक्शन 35) को आतंकी माना जाएगा अगर वह तैयारी और प्रमोशन की परिभाषा के हिसाब से आतंकवाद के लिए तैयारी या बढ़ावा देने का काम करता है।

एनआईए सर्किल इंस्पेक्टर जो तकरीबन 30 साल के उम्र के आस-पास हो सकता है और उसके पास कुछ बुनियादी क्वालीफिकेशन होगी उसे किसी को भी आतंकवादी करार दिए जाने के लिए डीजीपी को संस्तुति देने का अधिकार होगा। जबकि पहले यह अधिकार एसीपी को दिया गया था। इस बारे में गृहमंत्री द्वारा जो स्पष्टीकरण दिया गया वह और भी ज्यादा हास्यास्पद था। उन्होंने कहा कि ऐसा एनआईए में स्टाफ की कमी के चलते किया जा रहा है। हम यह समझने में नाकाम हैं कि सरकार और नौकरियां पैदा करने की जगह इस तरह की जिम्मेदारियों की गुणवत्ता को क्यों कम कर रही है?

यहां मामला यह नहीं है कि एसीपी रेंज का अफसर अलग सोच रखता होगा। गृहमंत्री सीधा खेल नहीं खेलना चाहते हैं। स्टेट फासिज्म को लागू करने का हथियार जिससे दिमाग के सोच की सफाई करनी है जिसको बुनियादी तौर पर मंत्री निशाना बना रहे हैं, उसे विस्तारित किया जा रहा है। और इसके जरिये सिस्टम में वह जो ढिलाई पैदा कर रहे हैं उससे लोगों के दिमाग में भय और गहरा होगा, असली समस्या यही है।

जहां तक तैयारी और बढ़ावा देने के परिभाषा की बात है तो मंत्री ने उन्हें जानबूझ कर परिभाषित करने से छोड़ दिया और उसे किसी भी तरह की व्याख्या के लिए खुला छोड़ दिया। ढेर सारे मामले ऐसे हैं जिनमें माओवादियों का साहित्य रखने वाले को भी माओवादी करार दे दिया गया और उन्हें फिर सजा दी गयी। एक इंसान जो पोर्नोग्राफी देखता है उसे बलात्कारी नहीं करार दिया जा सकता है लेकिन एक शख्स जो माओवादी साहित्य रखता है उसे माओवादी करार दिया जा सकता है।

बुनियादी रूप से मंत्री केवल किसी व्यक्ति या संगठन को निशाना बना रहे हैं जो किसी आतंकवादी संगठन के हमदर्द या रिसर्चर हैं बल्कि वह अपनी सरकार को “तैयारी” और “बढ़ावा” देने के नाम पर किसी भी पार्टी के खिलाफ कार्रवाई के लिए और शक्तिशाली बना रहे हैं। वह भी ऐसी स्थिति में जबकि खुद आतंकवाद को भी अभी ठीक से परिभाषित नहीं किया जा सका है। और यह विधेयक में सत्ता के इस्तेमाल का बहुत बड़ा स्कोप छोड़ देता है। यह दिल्ली में बैठे किसी शख्स द्वारा तय किया जाएगा और वह राज्यों में किसी पर भी आरोप जड़ सकता है।

इसको संज्ञान में लेते हुए अमित शाह “पूरी तरह से इसका बेजा इस्तेमाल न होने देने के प्रति हाउस को आश्वस्त करते हैं।” यह बेहद दुष्टतापूर्ण लेकिन भोला बयान है जैसा कि सभी लोग जानते हैं कि आईपीसी का खुद बड़े स्तर पर बेजा इस्तेमाल होता है। हजारों लोगों को गलत आरोप लगाकर दंडित किया जाता है। यहां याद दिलाना बेहद मौजूं होगा कि सोहराबुद्दीन एनकाउंटर मामले में अमित शाह खुद मुख्य आरोपी थे। सोहराबुद्दीन एक अपराधी था जो फिरौती और लेन-देन में शामिल था और उसका इस्लाम की शिक्षा देने वाले आतंकी संगठनों और दाऊद इब्राहिम से भी संबंध था। ऐसा कहा जाता है कि सोहराबुद्दीन अमित शाह का एक सहयोगी था।

मुख्य गवाह होने के नाते सोहराबुद्दीन की पत्नी जो शस्त्रविहीन थी, को भी एक सुनियोजित एनकाउंटर में मार दिया गया। सीबीआई ने अमित शाह को मामले में मुख्य आरोपी बनाया। मामले को देख रहे जज श्री लोया को अमित शाह को बचाने के एवज में घूस की पेशकश की गयी और उनके घूस लेने से इंकार करने के बाद उनकी संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो गयी। अगर हम लोग विभिन्न पत्रकारों और कुछ सामाजिक तौर पर जवाबदेह मीडिया के जरिये समाने लाए गए तथ्यों पर नजर दौड़ाएं तो सीबीआई द्वारा अमित शाह के मुख्य आरोपी ठहराये जाने की बात उचित है। हालांकि ये पूरा प्रकरण अमित शाह को सजा नहीं दे सकता है। लेकिन यहां मामला उनकी ईमानदारी का है जो विधेयक के बारे में लोगों को आश्वासन दे रहा है। क्या उस पर भरोसा किया जा सकता है?

अंबेडकर हमेशा संविधान को लागू करने से ज्यादा संवैधानिक नैतिकता को महत्व देते थे। अगर राजनैतिक तंत्र संवैधानिक नैतिकता को सम्मान नहीं देता है तो वहां संवैधानिक प्रावधानों पर बहस का कोई मतलब नहीं है। सरकार संघीय व्यवस्था में विश्वास नहीं करती है और सत्ता को अपने हाथ में ले लेती है और सरकारी इक्जीक्यूटिव स्थिति बिल्कुल न्यायिक भूमिका में बदल जाती है। सरकार ने एक आरएसएस कैंप की तरह काम करना शुरू कर दिया है जहां उनका लक्ष्य व्यक्ति के मनोविज्ञान को बदलना है। दुभार्ग्यपूर्ण बात यह है कि विपक्ष ने इस कानून में इस शैतानी बदलाव का केवल दिखावे के लिए विरोध किया। सबसे बड़ा विरोध इस कानून को पैदा करने वाले की तरफ से आना था। बीएसपी, सीपीआई और सीपीएम आदि दूसरी पार्टियां प्रतिरोध नहीं कर सकीं या फिर कहें संभावित आतंकी संदिग्धों का पर्दाफाश करने की कोई ठोस योजना नहीं सामने ला सकीं। क्योंकि वह उनके वोट बैंक का हिस्सा नहीं होने जा रहा है और यह लंबे समय में “दिमाग” पर असर डालेगा।

साईंबाबा जैसे मामले हैं जो बेहद भयानक हैं न केवल भारत के लिए बल्कि पूरी दुनिया के लिए। अगर कोई उन पर और दूसरे आरोपियों पर दिए गए फैसलों को पढ़े तो जजमेंट ने खुद ही तय कर दिया है कि वो माओवादी हैं क्योंकि उनके हाथ में एसे न्यूज पेपर हैं जिनकी व्याख्या इस रूप में की गयी है कि किसी खास मौके पर मिलने पर माओवादी उसे सामान्य संकेत के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। यह इस बात को स्थापित करता है कि अगर वह खास पेपर किसी बस स्टैंड या फिर रेलवे स्टेशन पर कोई हाथ में लिए रहता है तो उसे माओवादी करार दिया जा सकता है। और जब यूएपीए की बात आती है तो इसी तरह से भारत में फैसलों के बेंचमार्क तय किए जाते हैं। इस तरह की पृष्ठभूमि में हम अमित शाह से भरोसा पाते हैं कि कानून का बेजा इस्तेमाल नहीं होगा।

अमित शाह जिन्हें सीबीआई ने सोहराबुद्दीन एनकाउंटर केस में मुख्य अभियुक्त बना रखा है वह पूरे देश को भरोसा दिला रहे हैं कि कानून का बेजा इस्तेमाल नहीं होगा। उसका असल में क्या मतलब है? सोहराबुद्दीन केस सरकारी एजेंसियों के बेजा इस्तेमाल का नायाब उदाहरण है। जबकि यह सबको पता है कि सोहराबुद्दीन अमित शाह का सहयोगी था। काम कर रही एजेंसियों की भूमिका तब और गंभीर सवालों के घेरे में आ जाती है जब जज लोया की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो जाती है। और उसके बारे में अभी कुछ भी जनता को नहीं पता है। अमित शाह न ही इन संबंधों को साफ करते हैं और न ही सरकार की तरफ से इस तरह की प्रगति पर कोई ह्वाइट पेपर लाते हैं।

हमें खुद से सवाल करने की जरूरत है- क्या कोई ऐसा कानून है जिसका बेजा इस्तेमाल न हुआ हो? तब यूएपीए कैसे जो भारत का सबसे काला कानून है। क्या इसका बेजा इस्तेमाल नहीं हो सकता है? दूसरा, गृहमंत्री इस बात का भी संकेत करते हैं कि इस बेजा इस्तेमाल से बचने के लिए वह कोई संस्थागत उपाय नहीं तैयार करने जा रहे हैं। इस मामले में उनके शब्द ही काफी हैं। यह कुछ उसी तरह का है कि भीमा-कोरेगांव आंदोलन के आरोपी एक्टिविस्टों को गृहमंत्री के सामने यूएपीए का बेजा इस्तेमाल न करने की दलील पेश करनी चाहिए। मजाक का यही स्तर है जिसका गृहमंत्री उम्मीद कर रहे हैं।

किसी को दोषी ठहराने के प्रमाण का भार किसी भी दूसरे मामले में पुलिस के कंधे पर होता है लेकिन यूएपीए के मामलों में खुद को निर्दोष साबित करने की जिम्मेदारी आरोपी के कंधे पर होगी। इस मामले में जो पीड़ित होगा उसी को खुद को निर्दोष साबित करना होगा। अदालतों के सामने पुलिस जो प्रमाण पेश करती है जैसा कि पहले के मामलों में देखा गया है, वह बनावटी या फिर छेड़छाड़ किए हुए होते हैं। प्रोफेसर साईंबाबा के मामले में पहले उन्हें महाराष्ट्र में एक चोरी के मामले में गिरफ्तार किया गया (और यह हर शख्स जानता है कि 90 फीसदी विकलांग व्यक्ति भला महाराष्ट्र जाकर कैसे किसी के घर में चोरी कर सकता है।) और उसके बाद उनके ऊपर यूएपीए के तहत आरोप दर्ज किए गए। (लेकिन उसके बाद आज तक किसी ने नहीं पूछा कि चोरी के उनके मामले में क्या हुआ।)

किसी भी दूसरे केस के मुकाबले यूएपीए में सजा की दर सबसे कम है। कोबाड गांधी (जो माओवादी पार्टी के सेंट्रल कमेटी के सदस्य हैं) के एक केस के अलावा इस तरह के सभी मामलों में आरोपी शहरी इलाकों में रहते हैं। यूएपीए का असल लक्ष्य आतंक को कम करना नहीं है। इसका मतलब खतरा है “कुछ खास विचार की मौजूदगी।” और उन विचारों का बहुसंख्यात्मक राज्य द्वारा या फिर दूसरे तरीके से संज्ञान ले लिया गया है, वे सभी यूएपीए के तहत आते हैं। इस संशोधन का यही शैतानी आकार है!

(लेखक पी विक्टर विजय कुमार इन्वेस्टमेंट बैंकर हैं और सामाजिक लेखनों में रुचि रखते हैं। मूल लेख सबरंग में अंग्रेजी में प्रकाशित हुआ था। यहां उसका हिंदी अनुवाद दिया जा रहा है।)

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