Friday, September 29, 2023

अपने शरीर पर सिर्फ महिला का ही अधिकार, अबॉर्शन पर अंतिम निर्णय महिला ही लेगी: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को दोहराया कि महिला को अपने शरीर पर अकेले अधिकार है और वह इस सवाल पर अंतिम निर्णय लेने वाली है कि क्या वह अबॉर्शन कराना चाहती है। अदालत ने यह टिप्पणी 25 वर्षीय बलात्कार पीड़िता की प्रेग्नेंसी को टर्मिनेट करने की याचिका स्वीकार करते हुए की। जस्टिस बी.वी. नागरत्ना और जस्टिस उज्जल भुइयां ने यह आदेश पीड़िता की वर्तमान याचिका पर सुनवाई करते हुए पारित किया, जिसने गुजरात हाईकोर्ट द्वारा राहत से इनकार किए जाने के बाद सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था।

इस बात पर प्रकाश डालने के अलावा कि जब पीड़िता को यौन उत्पीड़न के परिणाम स्वरूप पैदा हुए बच्चे को जन्म देने के लिए मजबूर किया जाता है तो बलात्कार का आघात कैसे बना रह सकता है। पीठ ने यह भी बताया कि हर महिला को हस्तक्षेप के बिना स्वायत्त प्रजनन विकल्प चुनने का अधिकार है।

आदेश में कहा गया कि अबॉर्शन के संदर्भ में गरिमा के अधिकार में प्रेग्नेंसी को टर्मिनेट करने के निर्णय सहित प्रजनन संबंधी निर्णय लेने के लिए प्रत्येक महिला की क्षमता और अधिकार को मान्यता देना शामिल है। यद्यपि मानवीय गरिमा प्रत्येक व्यक्ति में अंतर्निहित है, फिर भी राज्य द्वारा थोपी गई बाहरी स्थितियों और व्यवहार से इसका उल्लंघन होने की आशंका है। राज्य के अनुचित हस्तक्षेप के बिना प्रजनन विकल्प चुनने का प्रत्येक महिला का अधिकार मानवीय गरिमा के विचार के केंद्र में है।

पीठ ने कहा कि प्रजनन स्वास्थ्य देखभाल तक पहुंच से वंचित करना, महिला की भावनात्मक और शारीरिक भलाई के लिए हानिकारक होने के अलावा, महिला की गरिमा को भी नुकसान पहुंचाता है। इसे सुप्रीम कोर्ट द्वारा प्रजनन स्वायत्तता और प्रजनन स्वास्थ्य देखभाल तक पहुंच के मुद्दे से निपटने वाले कई मामलों से समर्थन मिला, जैसे कि सुचित्रा श्रीवास्तव (2009) मामले में कहा गया, जिसमें महिला के प्रजनन विकल्पों के अधिकार को एक माना गया था। संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अविभाज्य हिस्सा, उसकी शारीरिक अखंडता के ‘पवित्र’ अधिकार को मान्यता देता है।

शादी के झूठे बहाने के तहत कथित रूप से बलात्कार की शिकार पीड़िता द्वारा दायर वर्तमान याचिका को अनुमति देते हुए पीठ ने 2022 के फैसले का उल्लेख किया, जिसमें जस्टिस चंद्रचूड़ (जैसा कि वह उस समय थे) के नेतृत्व वाली तीन- न्यायाधीशों की पीठ ने अविवाहित महिला को शादी की अनुमति दी थी। पीठ ने यह अनुमति यह देखने के बाद दी थी कि 2021 के संशोधन में अधिनियम की धारा 3 के स्पष्टीकरण में ‘पति’ के बजाय ‘साथी’ शब्द का इस्तेमाल किया गया, लिव-इन रिलेशनशिप को 24 सप्ताह की अपनी प्रेग्नेंसी को टर्मिनेट करने के लिए कहा गया।

एक्स बनाम प्रधान सचिव फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने महिला की प्रजनन स्वायत्तता पर महत्वपूर्ण टिप्पणियां कीं। अदालत ने कहा कि महिला को अपने परिवार की सहमति लेने की ज़रूरत नहीं है, न ही डॉक्टर अतिरिक्त कानूनी शर्तें लगा सकते हैं। एकमात्र ऐसे मामले जिनमें किसी महिला को अपने अभिभावक की सहमति की आवश्यकता होगी, यदि वह नाबालिग है या मानसिक बीमारी से पीड़ित है।

जस्टिस नागरत्ना और जस्टिस भुइयां की पीठ ने अपने आदेश में अपने द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों की पुष्टि में 2022 के फैसले से कुछ अंश उद्धृत किया- “महिला अपनी वैवाहिक स्थिति की परवाह किए बिना अपनी इच्छा से गर्भवती हो सकती है। यदि गर्भधारण वांछित है तो इसे दोनों भागीदारों द्वारा समान रूप से साझा किया जाता है। हालांकि, अवांछित या आकस्मिक गर्भावस्था के मामले में बोझ हमेशा गर्भवती महिला पर पड़ता है, जिससे उसके मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर असर पड़ता है।

संविधान का अनुच्छेद 21 किसी महिला के मानसिक या शारीरिक स्वास्थ्य खतरे में होने पर प्रेग्नेंसी को टर्मिनेट करने के अधिकार को मान्यता देता है और उसकी रक्षा करता है। महत्वपूर्ण बात यह है कि अपने शरीर पर केवल महिला का ही अधिकार है और वह अबॉर्शन कराना चाहती है या नहीं, इस सवाल पर अंतिम निर्णय लेने वाली महिला ही है।

फैसला बलात्कार पीड़िता की वर्तमान याचिका पर सुनवाई के बाद सुनाया गया, जिसे गुजरात हाईकोर्ट ने अबॉर्शन कराने के लिए उसकी उपयुक्तता का समर्थन करने वाली अनुकूल मेडिकल राय के बावजूद खारिज कर दिया था। याचिकाकर्ता गुजरात के दूरदराज के गांव की आदिवासी महिला है, जिसके साथ शादी के झूठे बहाने के तहत कथित तौर पर बलात्कार किया गया। याचिकाकर्ता की गर्भावस्था अब 28 सप्ताह के करीब है।

(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार हैं।)

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