टेलिग्राफ ने पेगासस मामले को वाटरगेट की संज्ञा दी है। लेकिन कल कर्नाटक सरकार के गिराने में पेगासस इस्तेमाल के नये खुलासे के बाद कहा जा सकता है कि यह महावाटर गेट है। वाटरगेट में तो सरकार बनाने के लिए फोन टैपिंग और दस्तावेजों की चोरी की गयी थी। और फिर यह मामला इतना बढ़ा कि तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन को इस्तीफा देना पड़ा। लेकिन यहां तो कहीं सरकार गिराने के लिए इस्तेमाल किया गया कहीं सरकार बनाने के लिए। पश्चिम बंगाल का मसला यही है। चुनाव से ठीक पहले न केवल टीएमसी के राजनीतिक-चुनावी प्रबंधक प्रशांत किशोर का फोन टैप किया गया बल्कि ममता के दाहिने हाथ और सगे भतीजे अभिषेक बनर्जी तक को नहीं बख्शा गया। इन दोनों मामलों के सामने आने का मतलब है कि सरकार ममता बनर्जी और टीएमसी नेताओं के एक-एक कदम पर निगरानी रख रही थी। हालांकि इन तमाम कारगुजारियों के बाद भी मोदी-शाह को वहां मुंह की खानी पड़ी। और उन्हें चुनाव में करारी मात मिली। बात केवल एक्जीक्यूटिव तक ही नहीं सीमित थी। लवासा और रंजन गोगोई से जुड़े मामलों के जरिये यह बात भी सामने आ चुकी है कि इसने चुनाव आयोग और न्यायपालिका जैसी पवित्र संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा को भी तार-तार कर दिया। लोकतंत्र के भीतर न्यूनतम नैतिकता तक का इसने निर्वहन करना जरूरी नहीं समझा।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस देश में जासूसी अपराध मानी जाती है। केंद्र में चंद्रशेखर की सरकार सिर्फ इसलिए गिरा दी गयी थी क्योंकि उस पर राजीव गांधी की जासूसी का आरोप लगा था। और वह आरोप सिर्फ इतना था कि राजीव गांधी के घर के सामने हरियाणा के दो पुलिस देखे गए थे। अब हरियाणा के दो अदने पुलिसकर्मी कितनी जासूसी कर पाए होंगे इसका खुद ही अंदाजा लगाया जा सकता है। लेकिन इसी आरोप पर वह सरकार गिर गयी थी। यहां तो महीनों-महीने सामने वाले शख्स की बातें सुनी गयी हैं और उनका बेजा इस्तेमाल करने का सबूत है। कर्नाटक में कांग्रेस के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धारमैया (पीए की टैपिंग हुई है। सिद्धरमैया फोन रखते ही नहीं हैं) से लेकर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता परमेश्वर के फोन की टैपिंग का सबूत है। और बाकायदा उस सरकार को गिराने में उसका इस्तेमाल हुआ।
मोदी नैतिकता के कितने निचले स्तर पर पहुंच गए हैं। वह उनके मंत्रिमंडल के सदस्य प्रहलाद सिंह की जासूसी से समझा जा सकता है। उन्होंने न केवल प्रहलाद की जासूसी की बल्कि उनके ड्राइवर, माली और नौकर तक को नहीं बख्शा। गांधी के जिस देश और उसकी सरकार को नैतिकता के आसमानी मापदंड स्थापित करने थे वह पाताल में पहुंच कर कीचड़ में गोता लगा रही है। अभी तो ये कुछ खुलासे हुए हैं जिन्हें टिप ऑफ द आइसबर्ग कहा जा सकता है बाकी इन्होंने और कितनी निकृष्टतम कारस्तानियां की हैं वह सब सामने आने बाकी हैं।
लेकिन दिलचस्प है इस पूरे मसले पर सरकार का बचाव। वह मान ही नहीं रही है कि उसने कोई जासूसी की है। और इस पूरे प्रकरण को अपने विरोधियों द्वारा फैलायी गयी अफवाह और साजिश का हिस्सा बता रही है। वह किस स्तर तक अहंकारी है और अहमन्यता का शिकार है उसको इसी बात से जाना जा सकता है। यह मामला किसी एक देश का नहीं है और न ही किसी एक संस्था से जुड़ा हुआ है। यह एक अंतरराष्ट्रीय मामला है। जिसमें 36 देश शामिल हैं। और इससे सीधे-सीधे फारविडेन स्टोरीज और एमनेस्टी इंटरनेशनल जैसी संस्थाएं जुड़ी हुई हैं। जिनकी साख पर कभी सवाल नहीं उठे हैं। और उससे भी बढ़कर दुनिया के 16 मीडिया संस्थान जुड़े हैं जिनकी प्रतिष्ठा पूरी दुनिया में स्थापित है। वे कोई सुधीर चौधरी और उनका जी न्यूज नहीं है जो सरकार के इशारे पर काम करने लगें। और सरकार के पालतू कुत्ते की तरह व्यवहार करें। न ही आज तक हैं जो किसी एक ट्वीट पर किसी पत्रकार को बर्खास्त कर दें। उनके पत्रकार राष्ट्राध्यक्षों से आंख में आंख मिलाकर बात करते हैं।
अगर किसी ने सीएनएन के पत्रकार और ट्रम्प के बीच हुई दसियों मुठभेड़ों को देखा हो तो इस बात को आसानी से समझ सकता है कि वहां के मीडिया संस्थान खुद अपनी और अपने पत्रकार की साख और इज्जत को लेकर कितने फिक्रमंद होते हैं। लेकिन इस सरकार को लगता है कि हमारे देश के नागरिक कूपमंडूक हैं और उन्हें वह जो भी समझा देगी वो समझ जाएंगे। लेकिन मोदी-शाह को समझना चाहिए कि अभी पूरा देश भक्त नहीं बना है। उनके कहने पर गोबर खाने वालों की जमात अभी इतनी बड़ी नहीं है कि वह पूरे देश के मानस को प्रभावित कर सके। यहां अभी भी नागरिकों का एक बड़ा हिस्सा है जिसके पास न केवल अपनी रीढ़ है बल्कि उसे देश के हितों और नुकसान के बारे में पता है। वह इस मसले को अपनी स्वतंत्रता तथा प्रतिष्ठा से जोड़कर देख रहा है। वह देख रहा है कि भारतीय लोकतंत्र को किस तरह से खत्म करने की साजिश हो रही है। लिहाजा वह किसी भी रूप में किसी समझौते के लिए तैयार नहीं है।
इस बीच पेगासस की मातृ कंपनी एनएसओ की तरफ से एक सफाई आयी है जिसमें उसने कहा है कि भारत में सामने आए नामों के बारे में उसको कुछ पता नहीं है। इस बयान का कोई मायने इसलिए नहीं रह जाता क्योंकि यह एक आरोपी का बयान है जो अपने बचाव में दिया गया है। किसी चोरी के मामले में चोर द्वारा दिए गए बयान की जो कीमत होती है उससे ज्यादा इसकी कीमत नहीं है। और यह कितना बेमानी है उसका इसी बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि किसकी और कैसे स्नूपिंग की जा रही है भला इस बात को कोई बाहर की कंपनी कैसे जान सकती है? उसका तो काम सिर्फ साफ्टवेयर बेचना है।
उसने बेच दिया और वह भी सरकार को। अब यहां से सरकार की इच्छा और उसकी मर्जी शुरू हो जाती है। यह इस बात पर निर्भर करता है कि वह किसकी जासूसी कराएगी और किसकी नहीं। इसमें कंपनी तो कहीं बीच में आती भी नहीं। और अगर यह बात इसमें शामिल है कि कंपनी को भी जासूसी के शिकार व्यक्ति की जानकारी दी जाती है तब यह मामला और भी ज्यादा गंभीर हो जाता है। भला कोई सरकार किसी बाहरी कंपनी को अपने घरेलू मामले की कैसे जानकारी दे सकती है? हालांकि यह सरकार कुछ भी कर सकती है। और इजरायल को तो ये अपने विस्तारित परिवार का सदस्य मानते हैं। जोड़ने वाले तो उसे चितपावन ब्राह्मणों के वंशजों तक से जोड़ देते हैं।
बहरहाल ये मामला मोदी-शाह के गले की फांस बन गया है। दोनों इस बात को जानते हैं कि इतनी आसानी से यह खत्म होने वाला नहीं है। इसीलिए अब उन्होंने अपनी राजनीतिक चालें चलनी शुरू कर दी हैं। इसमें अभी तक के उनके राजनीतिक इतिहास की जो मॉडस आपरेंडी रही है उसके मुताबिक जब भी कोई मुद्दा आता है तो उसको दबाने के लिए उससे बड़ा मुद्दा खड़ा कर दिया जाता है। एक बार फिर सरकार उसी हथियार का इस्तेमाल कर रही है। संसद के दोनों सदनों में जबकि दो दिन इस मसले को लेकर जमकर हंगामा हो चुका है। अब सरकार ने कोविड मामले और उसमें भी खासकर टीकाकरण की अपनी कथित कामयाबी का इस्तेमाल कर पूरे मामले को दबाने की कोशिश की जा रही है। इस सिलसिले में उसने राज्यसभा में इस मुद्दे पर बहस के साथ शुरुआत की है। और शाम को इस मुद्दे पर पीएम मोदी द्वारा बुलायी गयी सर्वदलीय बैठक उसी के हिस्से के तौर पर देखा जा रहा है। इस सिलसिले में पीएम मोदी का बयान भी काबिलेगौर है जिसमें उन्होंने कांग्रेस पर राजनीति करने का आरोप लगाया है।
इस बात में कोई शक नहीं कि कोविड का भी मुद्दा उतना ही बड़ा है और अगर मौतों का आंकड़ा देखा जाए (जिसको सरकार ने छुपा लिया है और एजेंसियों के मुताबिक यह 40 लाख तक हो सकता है) तो वह पेगासस से भी बड़ा हो सकता है। और जिस तरह से बेपरवाही और गैरजिम्मेदाराना तरीके से सरकार ने उस समय काम किया था अब जबकि सदन में उसे उसकी सच्चाई बयान करनी है तब वह उससे भी ज्यादा निर्लज्ज और बेहया हो गयी है। कल राज्यसभा में चर्चा के दौरान स्वास्थ्यमंत्री मनसुख मंडाविया का जो बयान है वह यही बताता है। उन्होंने कल गोयबेल्स को भी फेल कर दिया। वह तो एक झूठ को हजार बार बोलने के बाद सच साबित करने की बात करता था। लेकिन यह तो एक झूठ को एक बार बोलकर ही सच के तौर पर स्थापित कर देना चाहते हैं।
कल उन्होंने कहा कि देश में एक भी कोरोना पीड़ित की मौत आक्सीजन की कमी से नहीं हुई है। अब इस बात को कौन मानेगा। वो भक्त भी नहीं मानेंगे जिन्होंने अपनी आंखों के सामने अपने परिजनों को आक्सीजन के बगैर मरते देखा है। उस दिन को अभी दो महीने भी नहीं बीते हैं जब अस्पतालों में आक्सीजन को लेकर हाहाकार मचा था। और लोग खुद सड़कों पर आक्सीजन सिलेंडर ढूंढते पाए गए थे। मामला इतना बढ़ा था कि आखिर में सुप्रीम कोर्ट को इसका संज्ञान लेना पड़ा था। और दूसरा झूठ उससे भी बड़ा है। जब उन्होंने कहा कि कोरोना का पूरा मामला राज्यों के हवाले थे लिहाजा मौतों के संबंध में उन्होंने जो आंकड़े मुहैया कराए उसको ही जोड़ कर उसने पेश कर दिया। अगर केंद्र की भूमिका पूरे कोरोना के दौरान एक क्लर्क की रही है तो यह मानना उससे भी बड़ा अपराध है।
बहरहाल कोरोना और पेगासस दोनों बड़े मुद्दे हैं। एक में लोगों की हत्या हुई है। हत्या नहीं बल्कि उसे नरसंहार कहा जा रहा है। दूसरे में लोकतंत्र को खड़े-खड़े मार देने की कोशिश की गयी है। लिहाजा दोनों हत्याएं हैं और दोनों बड़ी हैं। इसमें किसी एक को किसी दूसरे के खिलाफ खड़ा करने की जरूरत नहीं है। इन सब की जवाबदेही सरकार की है और उसे देनी होगी। मौजूदा सदन की कार्यवाही में और कल सड़कों पर।
(महेंद्र मिश्र जनचौक के संस्थापक संपादक हैं।)