Thursday, April 25, 2024

प्रशांत भूषण के समर्थन में इलाहाबाद से लेकर देहरादून तक देश के कई शहरों में प्रदर्शन

नई दिल्ली/देहरादून/इलाहाबाद। अधिवक्ता प्रशांत भूषण के अपने ट्विटर हैंडल से सीजेआई शरद अरविंद बोबडे के भाजपा नेता की 50 लाख की बाइक पर बैठने की आलोचना करने के मामले में सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस अरुण मिश्रा की बेंच द्वारा उन्हें अवमानना का दोषी ठहराए जाने के बाद आज नैनीताल, देहरादून और प्रयागराज समेत देश के कई शहरों में नागरिक समाज द्वारा प्रतिरोध मार्च निकालकर अपनी नाराज़गी जाहिर की गई।   

प्रशांत भूषण का ट्वीट न्याय व्यवस्था के कामकाज का एक आलोचनात्मक मूल्यांकन

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशान्त भूषण को अवमानना का दोषी घोषित किये जाने के खिलाफ इलाहाबाद के नागरिक समाज की ओर से आज दोपहर 2 बजे बालसन चौराहे पर एक जनविरोध आयोजित किया गया। यह निर्णय दिनांक 17 अगस्त 2020 को हुई एक बैठक में लिया गया था। प्रदर्शन में वक्ताओं ने इस बात पर प्रकाश डाला कि भूषण के दोनों ट्वीट आम वादकर्ताओं द्वारा न्याय की उम्मीद में सर्वोच्च न्यायालय में मामले दर्ज करने के दौरान आ रही कठिनाइयों को रेखांकित करते हैं।

पहला ट्वीट सर्वोच्च न्यायालय में चल रहे लॉक डाउन प्रणाली की आलोचना करते हुए कहता है कि यह “नागरिकों की न्याय की खोज के मौलिक अधिकार” को बाधित करता है। दूसरा ट्वीट भारत में लोकतंत्र के विनाश का जिक्र करते हुए कहता है कि जब इतिहासकार इसका मूल्यांकन करेंगे तब वे “विशेष तौर पर इस विनाश में सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका और इससे भी ज्यादा 4 मुख्य न्यायाधीशों की भूमिका को चिन्हित करेंगे”।

ये सारा कुछ हमारी न्याय व्यवस्था के कामकाज का एक आलोचनात्मक मूल्यांकन है। यह चिन्हित की गयी कमियों में सुधार हासिल करने का प्रयास है। सच्चाई की खोज के लिए हमारा संवैधानिक ढांचा और सभ्य रवैया आलोचना और प्रति आलोचना को स्वीकार करता है और संस्थाओं को सुधारने में इस स्वस्थ प्रणाली को अपनाता है।

स्वस्थ आलोचना को दंडित करने का अर्थ है, विरोध का मुंह बंद कर देना और यह समाज के आगे बढ़ने व नागरिकों के कल्याण हित के विपरीत है। 

नागरिक समाज का यह विरोध “आलोचना अवमानना नहीं है” के नारे तले हुआ। प्रदर्शन में भाग लेने वालों में हरिश्चन्द्र द्विवेदी, नसीम अंसारी, डॉ. कमल, डॉ. आरपी गौतम, सुनील मौर्य, शैलेश पासवान, मनीष कुमार, प्रदीप ओबामा, शक्ति रजवार,  आनन्द मालवीय, उमर ख़ालिद, अनवर आज़म, महताब आलम, गायत्री गांगुली, ऋचा सिंह, पद्मा सिंह, सारा अहमद सिद्दीकी, नीशू, चंद्रावती, अधिवक्तागण माता प्रसाद पाल, आशुतोष तिवारी, राजवेन्द्र सिंह, कुंअर नौशाद, साहब लाल निषाद, अखिल विकल्प, विकास स्वरूप, महाप्रसाद एवं डॉ. आशीष मित्तल आदि मौजूद थे।

इलाहाबाद में दो स्थानों पर प्रदर्शन हुआ। एक हाईकोर्ट चौराहे पर दूसरा बालसन चौराहे पर। हाईकोर्ट के प्रदर्शन में सैकड़ों वकील शामिल थे। जबकि बालसन पर हुए प्रदर्शन में राजनीतिक और सामाजिक कार्यकर्ता शरीक हुए।

इसी तरह से दूसरा जमावड़ा उत्तराखंड की राजधानी देहरादून में हुआ। वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण के खिलाफ अवमानना का मुकदमा रद्द करने की मांग करते हुए विभिन्न संगठनों ने देहरादून के दीन दयाल उपाध्याय पार्क में एकत्रित हो कर प्रदर्शन किया और राष्ट्रपति के नाम लिखे गए ज्ञापन उनसे तत्काल हस्तक्षेप की मांग की गयी है। ज्ञापन सिटी मजिस्ट्रेट को सौंपा गया।

ज्ञापन में कहा गया है कि “महोदय, प्रशांत भूषण उच्चतम न्यायालय में जनहित याचिकाओं के जरिये ऐसे लोगों को न्याय दिलाने के लिए जाने जाते हैं, जिनकी न्याय तक पहुँच नहीं है। वे बेबाकी से व्यवस्था के भीतर के भ्रष्टाचार को उजागर करते रहे हैं। बीते एक-डेढ़ दशक की समयावधि को ही देखें तो पाएंगे कि देश में जितने बड़े भ्रष्टाचार के मामले सामने आए, उन सब को अदालत के कठघरे तक पहुंचाने वालों में प्रशांत भूषण प्रमुख रहे हैं। संविधान, लोकतंत्र और लोकतांत्रिक मूल्यों के सजग पक्षधर की भूमिका वे सतत निभाते रहे हैं। 

जिन ट्वीट के लिए उन्हें अदालत की अवमानना का दोषी ठहराया गया है, वे मुख्य न्यायाधीश के पद पर बैठे व्यक्ति के न्यायालय के बाहर के आचरण पर उनकी सामान्य आलोचना है। इस पूरे मामले में यदि किसी बात पर चर्चा करने की आवश्यकता है तो उन स्थितियों और आचरण का विश्लेषण करने की आवश्यकता है, जिसके परिणाम स्वरूप ये ट्वीट किए गए। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, किसी भी लोकतंत्र के लोकतंत्र होने के लिए मूलभूत आवश्यकता है।

प्रशांत भूषण को अवमानना का दोषी करार देना अभिव्यक्ति के लोकतांत्रिक अधिकार और प्रकारांतर से, लोकतंत्र पर ही चोट है। अतः उक्त तमाम बातों के आलोक में देश के संवैधानिक प्रमुख होने के नाते आपसे यह मांग है कि उक्त प्रकरण में हस्तक्षेप करते हुए, प्रशांत भूषण को अवमानना का दोषी करार दिये जाने और उन्हें सजा देने की पूरी प्रक्रिया को निरस्त करवाने की कृपा करें। न्याय, लोकतंत्र और संविधान के हक में ऐसा किया जाना नितांत आवश्यक है। 

प्रतिरोध मार्च में गीता गैरोला, कमला पंत, निर्मला विष्ट, भार्गव चंदोला,  इंद्रेश मैखुरी, सतीश धौलाखंडी, डॉ. जितेंद्र भारती, विमला, शकुंतला गुसाई, हेमलता नेगी, अरुण श्रीवास्तव, राजेश सकलानी, त्रिलोचन भट्ट, कैलाश, भोपाल, जयकृत कंडवाल, अश्वनी त्यागी, शांता नेगी, शान्ति सेमवाल, कमलेश्वरी बडोला, पद्मा गुप्ता, गीतिका, राजेश पाल, शेखर जोशी  आदि शामिल रहे। 

इसी तरह का एक प्रदर्शन नैनीताल में भी हुआ। इसमें बारिश के बावजूद बड़ी संख्या में लोगों ने भागीदारी की।12 बजे से तल्लीताल गांधी मूर्ति पर सभी ने ‘मैं प्रशांत भूषण हूं’ ‘Stand With Prashant Bhushan’ ‘Criticism is not Contempt’ लिखे पोस्टरों के साथ प्रदर्शन किया, जिनमें प्रदर्शनकारियों ने प्रशांत भूषण के साथ एकजुटता जाहिर की और इस बात को इंगित किया कि आलोचना स्वस्थ लोकतंत्र का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है, लोकतंत्र में इससे ऊपर कोई संस्था या व्यक्ति नहीं हो सकता।

सभी ने एकजुटता के साथ लोकतंत्र में हो रहे हमलों को चिन्हित करते हुए कहा कि अगर इस संदर्भ में प्रशांत भूषण कोई सवाल उठाते हैं या आलोचना करते हैं तो इसका जवाब तथ्यात्मक और आलोचना के रूप में देना ही स्वस्थ परंपरा है न कि विरोध की आवाज को दंड के बल पर दबाने का प्रयास, जैसे कि आजकल लगातार किया जा रहा है ।

प्रतिरोध प्रर्दशन में राज्य आंदोलनकारी और नैनीताल समाचार के संपादक राजीव लोचन साह, पहाड़ के संपादक और वरिष्ठ इतिहासकार प्रो.शेखर पाठक, महिला पत्रिका उत्तरा की संपादक प्रो.उमा भट्ट, राज्य और नागरिक आंदोलनों से जुड़े अवकाश प्राप्त प्रो.अनिल बिष्ट, गीता पांडे, भारती जोशी, पंकज, रिक्शा यूनियन  के नंदा बल्लभ जोशी और नफीस एवं भाकपा माले के शहर सचिव वरिष्ठ अधिवक्ता कैलाश जोशी, ऐड.सुभाष जोशी, ऐड. राजेन्द्र असवाल उपस्थित थे।

बिहार की राजधानी पटना में भी इसी तरह का प्रदर्शन हुआ। यहां सिविल और हाईकोर्ट के सैकड़ों वकीलों ने प्रशांत भूषण के समर्थन में सड़कों पर मार्च किया। बार कौंसिल के गेट से निकला यह प्रतिवाद मार्च पटना हाईकोर्ट के गेट नंबर दो पर जाकर समाप्त हुआ। वक्ताओं ने प्रशांत की अवमानना में सजा को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला करार दिया। साथ ही सुप्रीम कोर्ट से इस पर पुनर्विचार करने की मांग की। मार्च में अधिवक्ताओं के साथ कई नेता भी शरीक हुए।

चेन्नई में भी आज मद्रास हाईकोर्ट के वकीलों ने प्रशांत भूषण के समर्थन में अपनी आवाज बुलंद की। यहां प्रदर्शनकारी कतारबद्ध होकर अपने हाथों में प्लेकार्ड लिए हुए थे। दिलचस्प बात यह थी कि इसमें महिलाएं भी शरीक हुईं। ये सभी लोग प्रशांत की सजा को खारिज करने की मांग कर रहे थे।

आलोचना अवमानना नहीं है

सीपीआई (एमएल) के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य ने प्रतिक्रिया देते हुए कहा है- “सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता प्रशांत भूषण को दो ट्वीट के लिए अवमानना ​​का दोषी ठहराए जाने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले से हमें गहरी निराशा हुई है। ये फैसला अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और निष्पक्ष आलोचना का गला घोंटने वाला है। जबकि न्यायालय के कामकाज और न्याय व्यवस्था की वास्तविक चिंताओं को दरकिनार रख दिया गया है।

हाल के दिनों में, हमने सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीशों, कार्यकर्ताओं, वकीलों और बुद्धिजीवियों सहित कई लोगों द्वारा आलोचना होते देखा है और हमारे विचार में, ऐसी आलोचना को न्यायिक संस्था द्वारा महत्व दिया जाना चाहिए।

हमारा मानना है कि न्यायपालिका के लिए लोगों का सम्मान हासिल करने का सबसे सुनिश्चित तरीका, अवमानना ​​की अपनी शक्तियों का उपयोग नहीं है, बल्कि लोगों के मानवाधिकारों और नागरिक स्वतंत्रताओं को बरकरार रखते हुए खुद में स्वतंत्र, निर्भीक और उद्देश्यपूर्ण होना है। यह निर्णय ऐसे समय में आया है जब देश में असहिष्णुता और असंतोष को अपराधीकरण करने की प्रवृत्ति बढ़ी है। संविधान पर हमला हो रहा है, लोकतांत्रिक संस्थाएं बहुसंख्यकवाद के सामने आत्मसमर्पण कर रही हैं और मोदी सरकार द्वारा कानून के शासन को लगातार कम किया जा रहा है। लोकतन्त्र के लिए आवश्यक, असहमति पर ड्रैकोनियन यूएपीए और देशद्रोह कानून, आदि का उपयोग करके अंकुश लगाया जाता है और किसी भी बहुसंख्यकवाद विरोधी दृष्टिकोण को राष्ट्र-विरोधी करार दिया जाता है।

कई महत्वपूर्ण संस्थानों में एक चिंताजनक प्रवृत्ति दिख रही है जिसमें भारत के संविधान के बजाय वे सत्तारूढ़ शासन के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त कर रहे हैं। अपने दिमाग का इस्तेमाल करके निडर होकर अपने निर्णय लेने के अपने संवैधानिक कर्तव्य का पालन करने के बजाय, ये संस्थाएं कार्यपालिका के रबर-स्टैम्प बनकर उनके निर्णयों को सुना रही हैं। ऐसी प्रवृत्ति किसी भी लोकतंत्र के लिए घातक है। संस्थानों की आलोचना को विफल करने का कोई भी प्रयास: चाहे वह विधायिका हो, कार्यपालिका हो, न्यायपालिका हो या राज्य के अन्य निकाय हों, लोकतंत्र के बजाय पुलिस राज्य का मार्ग प्रशस्त करते हैं। हम प्रशांत भूषण के साथ एकजुटता में खड़े हैं।

(जनचौक ब्यूरो की रिपोर्ट।)

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