Friday, April 19, 2024

बातचीत में लगाए गए कृषि और रेल मंत्री का खेती से दूर-दूर तक रिश्ता नहीं : बीकेएस महासचिव

किसानों के आंदोलन के बढ़ते दबाव को देखते हुए अब आरएसएस से जुड़ा किसानों का संगठन ‘भारतीय किसान संघ’ (बीकेएस) भी आंदोलन को समर्थन देने के लिए मजबूर हो गया है। हालांकि उसका यह समर्थन अभी सैद्धांतिक और नैतिक स्तर पर ही है। संगठन के महासचिव बद्री नारायण सिंह ने कहा है कि उनकी आरएसएस चीफ मोहन भागवत से बात हुई जिसमें उन्होंने कहा कि सरकार के हर फैसले से सहमत होना जरूरी नहीं है। इस बातचीत में उन्होंने यहां तक कह डाला कि नौकरशाही प्रधानमंत्री को गुमराह कर रही है। हालांकि यह बात कितनी सच है कह पाना मुश्किल है। क्योंकि अब तक प्रधानमंत्री की कार्यप्रणाली बिल्कुल अलग रही है। वह फैसले से पहले न तो किसी से राय-मशविरा करने में विश्वास करते हैं और न ही वैसा वो करते हुए दिखना चाहते हैं। लेकिन एक बात निश्चित है कि इससे पीएम मोदी के बचाव की कोशिश जरूर की जा रही है। बद्री नारायण सिंह ने ये बातें पंजाबी ट्रिब्यून के वरिष्ठ पत्रकार हमीर सिंह से बातचीत में कही है। हालांकि इसके पहले बीकेएस नेता ने कहा था कि एपीएमसी एक्ट और नये कानूनों के तहत व्यापारियों के लिए लाइसेंस की प्रणाली और किसानों से डील करने तरीके को बेहद उदार बना दिया गया है। पेश है उनका पूरा साक्षात्कार:

प्रश्न: तीन नये केद्रीय कानूनों को लेकर आपके क्या विचार हैं?

उत्तर: भारतीय किसान संघ ने इन केंद्रीय कानूनों को लेकर अपनी आशंकाओं को पहले ही केंद्र सरकार को बता दिया था। 22 सितंबर, 2020 को जब संसद से कानून पारित हुआ तब भी उसने एक बार फिर इस काम को किया। वास्तव में किसानों को 22000 और कृषि मंडियों की जरूरत है। इसका केंद्र के बजट में भी जिक्र है उसके बाद चीजें बिल्कुल अलग ही दिशा में मुड़ गयीं। और मंडियों को बंद करने की प्रक्रिया शुरू हो गयी।

यह तर्क कि किसान किसी भी मंडी में अपना उत्पाद बेचने के लिए स्वतंत्र हैं बेकार है। क्योंकि किसानों के पास पहले से ही वह अधिकार है। किसानों को उचित दाम मिलने की गारंटी कहीं नहीं की गयी है। यह ठेके पर किसानी का मामला हो या कि दूसरी खेती के मुद्दे में। इस समय की जरूरत एक स्वतंत्र कृषि अथारिटी स्थापित करने की है। एक ऐसी प्रणाली विकसित की जानी चाहिए जिसमें किसानों के सारे मुद्दे जिला स्तर पर ही हल कर लिए जाएं। एमएसपी को वैध रूप देने के लिए एक अलग से कानून बनाने की जरूरत है।

इस बात का कोई मतलब नहीं है कि निजी व्यापारियों को क्यों जमाखोरी करने की आजादी दी गयी और खासकर आयात के मामले में और उसमें भी न तो कोई सीमा रखी गयी है और न ही स्टॉक।

बद्री नारायण सिंह।

प्रश्न: जब आपकी चिंताओं को हल नहीं किया गया। यहां तक कि उस पर विचार भी नहीं किया गया फिर आपने आंदोलन का रास्ता क्यों नहीं अपनाया?

उत्तर: हमारे पास विरोध दर्ज कराने का अपना रास्ता है। पूरे देश के पैमाने पर हमारे पास 50000 ग्राम कमेटियां हैं। इनमें से 15-16 राज्यों की कुछ 15000 ग्राम सभाओं ने इसके खिलाफ प्रस्ताव पारित कर उसे केंद्र सरकार के पास भेजा था। आंदोलनों के साथ हम लोगों का अनुभव बहुत अच्छा नहीं रहा है। 2015 में हमारी यूनिट ने मध्य प्रदेश के आंदोलन में हिस्सा लिया था लेकिन वह आंदोलन हिंसक हो गया था जिसमें पांच किसानों की मौत हो गयी थी। हम इस तरह के आंदोलन के तरीकों के पक्ष में नहीं हैं।

प्रश्न: लेकिन मौजूदा आंदोलन तो बेहद शांतिपूर्ण है?

उत्तर: हमारा इस आंदोलन को पूरा नैतिक और सैद्धांतिक समर्थन है। सरकार को बगैर किसी पूर्व शर्त के बातचीत शुरू करनी चाहिए। किसान संगठन विरोध- धरने को महीनों खींचने की बात कह कर कोई ठीक संकेत नहीं दे रहे हैं। छोटे और सीमांत किसान इस तरह के विरोध का भार नहीं सहन कर पाएंगे। यह एक बेस्वाद किस्म का प्रभाव देता है जिसमें किसानों की जगह दूसरे लोगों के धरने में स्थान लेने का संकेत जाएगा। किसी भी तरह का लंबा सड़क का जाम लोगों के लिए भी असुविधाकारक हो जाता है जिससे उनके भी आंदोलन के खिलाफ जाने की आशंका पैदा हो जाती है। और इससे धरने का आवश्यक प्रभाव भी कम हो जाता है।

नौकरशाही प्रधानमंत्री को गुमराह कर रही है। एक बार किसी का दिमाग किसी एक खास परिस्थिति में काम करने के लिए तैयार हो जाता है तो वह केवल उसी छोटे परिप्रेक्ष्य में देखना शुरू कर देता है। हमारे पास एक कृषि मंत्री है जिसका कृषि से कुछ लेना-देना नहीं है। जो लगातार कृषि कानूनों को किसानों के लिए रामबाण बता रहे थे और फिर उसी समय एक हास्यास्पद स्थिति के लिए वह किसानों की सरकार के साथ बातचीत की भी वकालत कर रहे हैं।

बातचीत किसी धोखे के मुद्दे को हल करने के लिए होती है। अगर आप किसानों से चाहते हैं कि वो पहले अपना आंदोलन खत्म करें और उसके बाद उन्हें बातचीत के लिए बुलाएं तो आपकी कौन सुनेगा?

हम क्रेडिट लेने की दौड़ में नहीं हैं। अगर किसानों की सरकार से बात सफल होती है तो हम बेहद खुश होंगे। अगर हमारी वहां किसी भूमिका की जरूरत पड़ी तो हम उसके लिए प्रतीक्षा नहीं करेंगे। लेकिन सरकार को जरूर गंभीरता दिखानी चाहिए।

पहले उन्होंने इस बातचीत में केवल अफसरों को लगाया। उसके बाद उन्होंने कृषि मंत्री और रेल मंत्री को भेजा जिन्हें खेती की बहुत कम समझ है। हर कोई यह अच्छी तरह से जानता है कि किसी भी तरह का समाधान प्रधानमंत्री के स्तर पर ही होना है। किसान नेताओं को सीधे प्रधानमंत्री से बातचीत की मांग रखनी चाहिए।

प्रश्न: क्या सत्तारूढ़ दल के खिलाफ जाने के लिए आपको जिम्मेदार नहीं ठहराया जाएगा?

उत्तर: वो कौन होते हैं मेरे स्टैंड पर सवाल उठाने वाले, हम दास नहीं हैं। हम किसानों के हित में काम करते हैं। हमने इस मसले पर आरएसएस प्रमुख से बात की है। हर किसी ने यही कहा है कि जिसके हितों का हम प्रतिनिधित्व करते हैं उसके लिए बोलने का हमें पूरा अधिकार है। सरकार के हर फैसले से सहमत होना जरूरी नहीं है। इन कानूनों को बनाने से पहले सरकार ने हमसे बातचीत करना जरूरी नहीं समझा।

प्रश्न: अब यह बात बिल्कुल साफ होती जा रही है कि केंद्र सरकार किसानों की मांग को मानने के मूड में बिल्कुल नहीं है। अगर आंदोलन लंबा खिंचता है तो यह क्या हासिल कर सकेगा?

उत्तर: कोई भी लंबा चलने वाला आंदोलन एक तरह की उपेक्षा को महसूस कराता है और वह हिंसा को भी जन्म दे सकता है जो कभी भी देश के लिए अच्छा नहीं होगा। अगर सरकारें और शासक पारदर्शी बने रहेंगे तब उनके लिए आंदोलन सही रास्ते पर जाने का एक जरिया बना रहेगा। हम देखेंगे कि भविष्य के गर्भ में क्या है लेकिन सरकार को किसानों का विश्वास नहीं खोना चाहिए।

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

वामपंथी हिंसा बनाम राजकीय हिंसा

सुरक्षाबलों ने बस्तर में 29 माओवादियों को मुठभेड़ में मारे जाने का दावा किया है। चुनाव से पहले हुई इस घटना में एक जवान घायल हुआ। इस क्षेत्र में लंबे समय से सक्रिय माओवादी वोटिंग का बहिष्कार कर रहे हैं और हमले करते रहे हैं। सरकार आदिवासी समूहों पर माओवादी का लेबल लगा उन पर अत्याचार कर रही है।

शिवसेना और एनसीपी को तोड़ने के बावजूद महाराष्ट्र में बीजेपी के लिए मुश्किलें बढ़ने वाली हैं

महाराष्ट्र की राजनीति में हालिया उथल-पुथल ने सामाजिक और राजनीतिक संकट को जन्म दिया है। भाजपा ने अपने रणनीतिक आक्रामकता से सहयोगी दलों को सीमित किया और 2014 से महाराष्ट्र में प्रभुत्व स्थापित किया। लोकसभा व राज्य चुनावों में सफलता के बावजूद, रणनीतिक चातुर्य के चलते राज्य में राजनीतिक विभाजन बढ़ा है, जिससे पार्टियों की आंतरिक उलझनें और सामाजिक अस्थिरता अधिक गहरी हो गई है।

Related Articles

वामपंथी हिंसा बनाम राजकीय हिंसा

सुरक्षाबलों ने बस्तर में 29 माओवादियों को मुठभेड़ में मारे जाने का दावा किया है। चुनाव से पहले हुई इस घटना में एक जवान घायल हुआ। इस क्षेत्र में लंबे समय से सक्रिय माओवादी वोटिंग का बहिष्कार कर रहे हैं और हमले करते रहे हैं। सरकार आदिवासी समूहों पर माओवादी का लेबल लगा उन पर अत्याचार कर रही है।

शिवसेना और एनसीपी को तोड़ने के बावजूद महाराष्ट्र में बीजेपी के लिए मुश्किलें बढ़ने वाली हैं

महाराष्ट्र की राजनीति में हालिया उथल-पुथल ने सामाजिक और राजनीतिक संकट को जन्म दिया है। भाजपा ने अपने रणनीतिक आक्रामकता से सहयोगी दलों को सीमित किया और 2014 से महाराष्ट्र में प्रभुत्व स्थापित किया। लोकसभा व राज्य चुनावों में सफलता के बावजूद, रणनीतिक चातुर्य के चलते राज्य में राजनीतिक विभाजन बढ़ा है, जिससे पार्टियों की आंतरिक उलझनें और सामाजिक अस्थिरता अधिक गहरी हो गई है।