Saturday, April 20, 2024

झारखंड में शिक्षा की तस्वीर: 22 प्रतिशत बच्चे पढ़ते हैं, एकल शिक्षक स्कूलों में

झारखंड। राज्य के ज्यादातर जिलों में एकल शिक्षक स्कूल चल रहे हैं। जहां स्कूल में सिर्फ एक ही शिक्षक होता है, चाहे वो बच्चों को पढ़ाये या फिर स्कूल का प्रशासनिक काम करे यानि वन मैन आर्मी। लातेहार के पोखरी गांव के प्राथमिक विद्यालय में 40 बच्चों को पढ़ाने वाले 59 वर्षीय मोहम्मद अज़ीमुद्दीन चाहते हैं कि वे बच्चों को पढ़ाने में अधिक समय दे सकें। लेकिन वो ऐसा नहीं कर पाते हैं क्योंकि उन्हें स्कूल के कई प्रशासनिक काम भी करने हैं। 

सुबह 8 बजे उत्तर-पश्चिमी झारखंड के लातेहार जिले का एक गांव नींद से जाग उठता है। सफेद शर्ट, हरी स्कर्ट और शॉर्ट्स में बच्चे लाइन बनाते हैं और सरकारी उच्च प्राथमिक विद्यालय के खेल के मैदान में उतरते हैं। यह 7×5 मीटर का प्लॉट है, लेकिन जैसे ही यह कक्षा I से VIII तक भरता है, 45 साल की  मंजू कुमारी अपने सभी 145 छात्रों की कमान अकेले संभालती हैं।

मंजू न केवल सुबह की सभा की प्रभारी हैं बल्कि स्कूल में एकमात्र शिक्षिका भी हैं। जल्द ही राष्ट्रगान और प्रार्थना की आवाज हवा में तैरने लगी। सुश्री कुमारी झारखंड के उन कई शिक्षकों में से एक हैं जो प्राथमिक, उच्च प्राथमिक और वरिष्ठ सरकारी स्कूलों को अकेले ही चला रहे हैं। 

मंजू कहती हैं कि “जब मैंने 2015 में ज्वाइन किया, तो एक और शिक्षक था जो मेरे साथ स्कूल की ज़िम्मेदारियों में मेरी हाथ बंटाता था, लेकिन बाद में वो रिटायर हो गया। उसके बाद कोई प्रतिस्थापन, पैरा(अनुबंध) या स्थायी शिक्षक इस स्कूल में नहीं भेजा गया है। 

शिक्षा के लिए एकीकृत जिला सूचना प्रणाली (यूडीआईएसई) के 2022-23 के अंतिम आंकड़े बताते हैं कि झारखंड के 35,443 सरकारी स्कूलों में से 7,239 स्कूल एकल शिक्षक वाले हैं। 22% से अधिक छात्र एकल-शिक्षक स्कूलों में जाते हैं, जो ज्यादातर पैरा पुरुष शिक्षक चलाते हैं।

राज्य के शिक्षा सचिव के. रवि कुमार कहते हैं कि, “पिछले कुछ वर्षों में भर्ती की कमी के कारण एकल-शिक्षक स्कूलों की संख्या बढ़ी है। अब सात साल के अंतराल के बाद 3469 शिक्षकों की नियुक्ति की जा रही है।“

एकल-शिक्षक स्कूल बच्चों के मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार (आरटीई) अधिनियम, 2009 का सीधे-सीधे उल्लंघन कर रहे हैं, जिसके तहत 60 छात्रों तक वाले सभी स्कूलों में न्यूनतम दो शिक्षकों का होना अनिवार्य है। लातेहार जिले में 257 एकल-शिक्षक स्कूल हैं और छात्र ज्यादातर दलित और आदिवासी समुदायों से हैं। झारखंड में एकल-शिक्षक स्कूलों के खिलाफ आंदोलन से जुड़े एक आरटीई कार्यकर्ता पारन अमिताव कहते हैं कि यह एक राज्यव्यापी समस्या है और “यूडीआईएसई राज्य में एकल-शिक्षक स्कूलों की संख्या का केवल एक अंश दिखाता है।”

शिक्षा मंत्रालय ने 2021-22 में स्कूलों के समेकन पर संसद में उठाए गए एक सवाल के जवाब में कहा कि पूरे देश में लगभग 1,17,285 एकल-शिक्षक स्कूल हैं, जो भारत में सबसे ज्यादा है।

लातेहार जैसे जिलों में ही नहीं, जहां 257 ऐसे स्कूल और छात्र ज्यादातर दलित और आदिवासी समुदायों से हैं, बल्कि राज्य की राजधानी रांची में भी 540 स्कूल एक ही शिक्षक चला रहे हैं। दुमका जिले में ऐसे स्कूलों की संख्या सबसे अधिक 719 है, इसके बाद पश्चिमी सिंहभूम में 604 हैं। शिक्षक पढ़ाने के साथ-साथ प्रशासनिक कार्य भी करते हैं।

लातेहार के पोखरी गांव के प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक अज़ीमुद्दीन कई दिनों तक स्कूल के घंटों के बाद भी काम करते हैं और खास तौर पर बुरा तब महसूस करते हैं जब उन्हें काम से संबंधित बैठकों में भाग लेने के लिए छात्रों को अकेला छोड़ना पड़ता है। जिससे छात्रों को पढ़ाई से समझौता करना पड़ता है। अज़ीमुद्दीन कहते हैं कि “कुछ दिनों में, हमें सुबह 7-8 बजे के आसपास सूचित किया जाता है कि हमें लातेहार जिले में सुबह 9 बजे तक एक बैठक में भाग लेना पड़ सकता है। जिला मुख्यालय पहुंचने में लगभग एक घंटे का समय लगता है। प्रत्येक शिक्षक को स्कूल खोलना चाहिए ताकि मध्याह्न भोजन बन सके और परोसा जा सके, नहीं तो बच्चे भूखे रह जाएंगे।“

11वीं कक्षा के छात्र सूरज यादव कहते हैं, “जब सर को मीटिंग के लिए जाना होता है या दूसरी कक्षा को पढ़ाना होता है, तो हम अपने जूनियर्स को पढ़ाते हैं और उनके पाठ्यक्रम को पूरा करने में उनकी मदद करने की कोशिश करते हैं।” अधिक संगठित एकल-शिक्षक विद्यालयों में पीयर लर्निंग शिक्षा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया है।

कक्षा दूसरी की छात्रा 7 वर्षीय पूजा कुमारी कहती हैं, “जब हमारे शिक्षक बैठक के लिए जाते हैं, तो वे रसोइयां दीदी (मध्याह्न भोजन बनाने वाली) से हमारे लिए खाना बनाने के लिए कह के जाते हैं।” 

विजयपुर गांव में, जुलियास बेक ने पिछले पांच साल उच्च प्राथमिक विद्यालय में 56 छात्रों को अकेले संभालने में बिताए हैं। उनका कहना है कि “छात्रों को बिना विशेषज्ञता के सभी विषयों को पढ़ाना गलत है। यह उन्हें गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से वंचित करता है। विभागीय रिपोर्टिंग, प्रशासनिक कार्य और कक्षाओं के प्रबंधन के बीच, मैं शायद ही अपने छात्रों को वह ध्यान दे पाता हूं जिसके वे हकदार हैं।” 

पिछले एक दशक में, झारखंड एकेडमिक काउंसिल बोर्ड ने नियमों के बावजूद कि एक राज्य को इसे हर साल दो बार आयोजित करना चाहिए 2013 और 2016 में दो बार शिक्षक पात्रता परीक्षा आयोजित की है। 2014-15 और 2015-16 में ही स्थायी और पारा शिक्षकों की नियुक्ति हुई थी।

प्रोफेसर ज्यां द्रेज, जो रांची विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र पढ़ाते हैं, का कहना है कि, “मुख्य कारण यह है कि राज्य सरकार जानती है कि वह वंचित क्षेत्रों में स्कूलों को कम करके ‘बचत’ कर सकती है। यहां, ज्यादातर अनुसूचित जाति समुदाय के लोगों के विरोध करने की संभावना नहीं है।”

वह कहते हैं कि “एक ही कक्षा के छात्रों के बीच बहुत असमानताएं हैं। विश्वविद्यालय का पाठ्यक्रम सर्वश्रेष्ठ छात्रों के लिए तो ठीक है, लेकिन दूसरे छात्रों के लिए यह एक रहस्य बन जाता है। उनकी डिग्रियों का बहुत कम मूल्य है, चाहे वह रोजगार के उद्देश्य से हो या ज्ञान के लिए। ” 

14 वर्षीय गुलाब तुर्की, गारू प्रखंड के एकल शिक्षक प्राथमिक विद्यालय से एकल शिक्षक उच्च प्राथमिक विद्यालय में गई है। उसका कहना है कि “जब सर दूसरी कक्षाओं को पढ़ाते हैं तो अपने काम पर ध्यान केंद्रित करना मुश्किल होता है, लेकिन अक्सर ऐसा ही होता है।” उसे अंग्रेजी में वर्तनी को लिखने और समझने में कठिनाई होती है। ‘अम्ब्रेला’ लिखने के लिए कहने पर, वह U अक्षर से आगे नहीं बढ़ पाती है, और जल्दी ही शर्मिंदा हो जाती है। 

वहीं इस मामले में प्रो. द्रेज़ कहते हैं कि, “पाठ्यपुस्तकें विशेषाधिकार प्राप्त बच्चों के लिए बनाई गई हैं, जो सीखने के अच्छे माहौल का आनंद लेते हैं।” उन्होंने कहा कि, “सिस्टम को टॉपर बच्चों को चुनने और उनकी मदद करने के बजाय वंचित बच्चों की मदद करने पर अधिक ध्यान देने की जरूरत है।”

निर्वाचित प्रतिनिधियों या नियुक्त शिक्षकों को उनके कार्यों के लिए जवाबदेह ठहराने वाला कोई नहीं है। लातेहार के जमुना गांव में सातवीं कक्षा के छात्र मुन्ना घासी, का कहना है कि प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक मेहनती थे, उच्च प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक “हमेशा अपने फोन पर रहते हैं, और बमुश्किल हमें पढ़ाते हैं।”

40 घरों वाले चंदरवा गांव, लातेहार में मोटर योग्य सड़कें नहीं हैं, लेकिन गांव के प्राथमिक विद्यालय में 50-60 छात्र पढ़ते हैं। 10 साल की रिया कुमारी कहती हैं कि टीचर को क्लास लिए हुए कई महीने हो गए हैं, और जब वह आती हैं, तो “हमें बिस्कुट देती हैं, लेकिन मध्याह्न भोजन नहीं देती हैं।”

दिक्कतें सिर्फ एकल स्कूल तक सीमित नहीं है। कई जगहों पर शिक्षक शराब के नशे में भी होते हैं। जिले के सोनवार गांव में, प्राथमिक विद्यालय के पास एक जनरल स्टोर चलाने वाले 34 वर्षीय रजत कुमार तुर्की का कहना है कि पुरुष शिक्षक शराब के नशे में आते हैं। वह कहते हैं कि “इससे हमें बहुत परेशानी होती है क्योंकि बच्चे बहुत छोटे होते हैं।” वह बताते हैं कि कई माता-पिता काम करने दूर-दराज जाते हैं और उनके पास दिन भर अपने बच्चों की देखभाल करने वाला कोई नहीं होता है। उनके शिक्षक एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यदि वे उसे रोज नशे में देखेंगे, तो वे उससे क्या सीखेंगे?”

छात्र वर्षों से टूटी हुई छतों वाले स्कूलों के अंदर बैठकर जहां ना तो बिजली है ना पानी है वर्षों बिताते हैं।

खाद्य अधिकार कार्यकर्ता और झारखंड में एकल-शिक्षक स्कूलों के खिलाफ विरोध करने वाले नागरिक समाज समूह के सक्रिय सदस्य जेम्स हेरेंज इसके लिए कई सरकारों को दोष देते हैं, जिन्हें हाशिए पर रहने वाले समुदायों के लिए शिक्षा के माहौल में सुधार करने में कोई रुचि नहीं है। इस साल अप्रैल में, समुदाय के सदस्यों के लगातार प्रयासों के बाद, झारखंड सरकार ने राज्य भर में 50,000 रिक्तियों के लिए पहले स्लॉट में 26,000 शिक्षकों की भर्ती की घोषणा की है।

( द हिंदू में 19 मई को प्रकाशित रिपोर्ट पर आधारित।)

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