ग्राउंड रिपोर्ट: पीएम के संसदीय क्षेत्र की एक बस्ती में शौच के लिए परिवारों के हर सदस्य को देने पड़ते हैं 5 रुपये

वाराणसी। बनारस के चौकाघाट पानी टंकी के पास ढेलवरिया रेलवे अंडर के पहले डेढ़ से दो हजार नागरिकों की झोपड़ीनुमा घर-गृहस्थी है। भारत के आजादी के अमृत महोत्सव के पहले यानी सात दशकों से अधिक समय से यहां रह रहे हैं। अपने बाप-दादा की पीढ़ियों के बाद डेढ़-दो हजार लोग यहां रह रहे हैं। समय गुजरता रहा। सरकारें भी आती-जाती रहीं। सरकारें और सिस्टम ने मिलकर गोल कर दिया सैकड़ों बेघरों का सुविधा के साथ जीने का अधिकार। आज भी इनको साफ पेयजल, शौचालय, आवास और अन्य मूलभूत सुविधाएं मयस्सर नहीं हो सकीं हैं। पार्षद, विधायक से लेकर सांसद तक को चुनने के लिए इनके पास मतदाता पहचान पत्र और आधार कार्ड समेत सभी जरूरी दस्तावेज हैं। इनके पास नहीं है तो सिर्फ एक कागज का टुकड़ा। जिसे सरकारी भाषा में खसरा-खतौनी या घरौनी कहते हैं। लिहाजा, जब तब इनकी बस्तियां भारतीय रेलवे और वाराणसी जिला प्रशासन की आंख की किरकिरी बनी रहती है।

चौकाघाट इलाके में ढेलवारिया मलिन बस्ती के समीप प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र के पास रहने वालीं माला सोनकर मोहल्ले गंदगी और अव्यवस्था से परेशान हैं। गंदगी की वजह से इनके नाती-पोते अक्सर बीमार पड़ जाते हैं।

देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नारा है कि ‘देश में मंदिर बाद में बनें, पहले शौचालय बनाया जाये’। हालांकि, इस दिशा में कुछ कार्य जरूर हुए हैं, फिर भी मंजिल अभी दूर नजर आ रही है। हाशिये पर रह रहे नागरिकों के लिए भारत सरकार द्वारा लगातार प्रयास किये जा रहे हैं। निर्मल भारत अभियान के अंतर्गत घर में शौचालय बनाने के लिए राशि दी जाती है। शहरी क्षेत्रों के लिए 2008 में राष्ट्रीय शहरी स्वच्छता नीति लायी गयी। वहीं 12वीं पंचवर्षीय योजना में 2017 तक खुले में शौच से मुक्त करने का संकल्प लिया है। इसी कड़ी में 2014 से स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत हुई है। सरकार द्वारा स्वच्छता अभियान के लिए 52000 करोड़ रुपये का बजट रखा गया है और 2019 तक हर घर में शौचालय का दावा किया गया है। फिर भी बनारस मॉडल में हजारों लोग आवास और शौचालय भवन के लिए अधिकारियों, पार्षद और विधायकों के यहां दौड़ लगा रहे हैं। 

वाराणसी के चौकाघाट इलाके में रेलवे अंडर पास से पहले ढेलवारिया मलिन बस्ती की गली और एक किनारे पर मरम्मत के अभाव में मिट्टी से पटा सरकारी हैंडपंप।

बुलडोजर से जीत 

26 नवम्बर 2018 का दिन चौकाघाट के ढेलवारिया रेलवे अंडर पास से पहले बसी बस्तियों के लोगों के लिए अग्नि परीक्षा और प्रशासन के लिए लिटमस टेस्ट था। इस दिन के सुबह का मंजर याद करते हुए विजय कहार “जनचौक” को बताते हैं कि सभी के मन में एक अजीब सी बात घर कर गयी थी। आज हम सभी का घर शासन व रेलवे का बुलडोजर नेस्तनाबूत कर देगा तो कहां जाएंगे ? कौन हमें आश्रय देगा और बंजारों की तरह भटकते रहने पर हमारे बच्चों-बच्चियों का भविष्य क्या होगा? लिहाजा, हम लोगों के पास सिर्फ एक विकल्प था, डटकर लड़ो या फिर चुपचाप अपनी झोपड़ी ही सही पर गृहस्थी को आँखों के सामने बर्बाद होने तक देखना। इस पर सभी ने तय किया कि लड़ा जाएगा। दिन चढ़ते ही रेलवे के अफसर बुलडोजर-जेसीबी मशीन के साथ सैकड़ों की तादाद में पुलिस जवानों को लेकर आ धमके। पुलिस के जवानों ने मोर्चाबंदी शुरू कर दी। इधर, रेलवे के अफसर लाउड स्पीकर से लोगों को अपनी झोपड़ी को छोड़कर जाने के लिए कहने लगे। 

वाराणसी के चौकाघाट इलाके में ढेलवारिया मलिन बस्ती के हजारों नागरिक पीएम आवास योजना के अभाव में इसी तरह के झुग्गी में निवास करते हैं। जो प्लास्टिक पोस्टर, टिन और कबाड़ की चीजों से बने हुए हैं।

हाशिए पर खड़ी ज़िन्दगी  

चूंकि, इस जमीन के मालिकाना हक़ को लेकर कई दशकों से मामला कोर्ट में चल रहा है। तिस पर रेलवे ने पटरी के डबलिंग के कार्य का हवाला देकर आ धमके। देखते ही देखते हजारों बेघरों के साथ आस-पास के लोगों ने बेघरों को उजाड़े जाने से बचाने के लिए मैदान में उतर आए और ढाल बन गए। अफसरों और पुलिस से नोकझोंक के बीच तात्कालिक चेतगंज सीओ अनीता पहुंची। दोनों पक्षों से जमीन के कागजात मांगे। इस पर रेलवे द्वारा कागज नहीं दिए जाने पर सख्त नाराज होते हुए सीओ अनीता ने झोपड़ी ढहाने से साफ़ मना कर दिया। साथ ही यह भी कहा कि जब तक सभी जरूरी कागजात नहीं मिल जाते, तब तक इनको हटाया नहीं जा सकता है। इस घटना की तिथि सैकड़ों बेघरों को किसी विजय गाथा से कम नहीं है। तब से लेकर आज यानी जून 2022 तक भी हालत नहीं बदले हैं। बल्कि, सिस्टम की उपेक्षा के चलते हम हाशिए पर आ खड़े हो गए हैं।

सिस्टम से हार 

बनारस के कुछ कथित सभ्रांत और अधिकारी चौकाघाट के ढेलवरिया इलाके की मलिन बस्ती से गुजरने में कतराते हैं। बेतरतीब बने टिन, प्लास्टिक-तिरपाल के मकान, अमानक शौचालय, गंदगी, कूड़ा, कचरा से पटी तंग गलियां। असुविधाओं में जी रहे लोगों के चेहरे इनको पसंद नहीं आते हैं शायद। सरकारी अधिकारी से लेकर मंत्री और यहां का वर्तमान पार्षद भी इनकी परेशानियों से वास्ता नहीं रखते हैं। रोजाना इनकी जंग पेयजल व शौच के लिए शुरू होती है और देर शाम को शौचालय पर ही जाकर के खत्म होती है। दिक्कत तो तब और बढ़ जाती है, जब किसी की तबियत खराब हो जाती है। मोहल्ले में सिर्फ एक ही सामुदायिक शौचालय है, जो ₹5 पर व्यक्ति से लेकर शौच की इजाजत देता है। गली बहुत ही तंग है।

ढेलवारिया में बस्ती के लोगों का जमीन के मालिकाना हक़ को लेकर मामला कोर्ट में होने की वजह से बुलडोजर की कार्रवाई को रोकना पड़ा। 27 नवंबर 2018 के दिन का वाराणसी के एक अखबार का कतरन।

खुली नालियां बजबजा रही हैं। मुर्गे और बकरियां घूम रही हैं। आप-पास में ही गली की एक तरफ टूटे-फूटे बच्चों के साइकिल पड़े हुए हैं। वहीं, एक हैंडपंप भी लगा है, जो अब मिट्टी में दब चुका है। कुछ लोग बगल में बैठ के ताश खेल रहे थे। कुछ महिलाएं शौच के लिए सब बस्ती के समीप ही बबूल की जंगलों की ओर जा रही थीं। यह वक्त था 21 जून की दोपहर यानी इस दिन भारत अंतरराष्ट्रीय योग दिवस मना रहा था। यहीं मिले-मलिन बस्ती के काली प्रसाद, जो समस्याएं बताना शुरू करते हैं तो वह खत्म ही नहीं होती हैं। ऐसा प्रतीत होता है जैसे यह लोग इंसान नहीं जानवर से भी गए गुजरे जीवन गुजार रहे हैं। 

पांच रुपए प्रतिदिन 

चौकाघाट-ढेलवारिया के मलिन बस्ती निवासी विजय कहते हैं कि यहां पर बाप-दादा कई दशकों से रहते आए हैं। इनके बाद अब हम लोग रहते हैं। हम लोगों के पास न अच्छा घर है और न ही शौचालय, जबकि यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का स्मार्ट शहर है। आप ही बताइये कि स्मार्ट शहर ऐसा ही होता है, जहां अधिकारियों की उपेक्षा से जानवरों जैसा रहने को विवश हों। रोजाना हमारा परिवार और पड़ोस प्रतिव्यक्ति पांच रुपए देकर शौच के लिए सुलभ शौचालय में जाते हैं। यानी एक परिवार महीने के 300 से 400 रुपए सिर्फ शौचालय के लिए देता है। इतनी कमरतोड़ महंगाई में कमाने-खाने वाले लोगों के लिए 300-400 रुपए एक बोझ की तरह है। एक वक्त का खाना नहीं मिलेगा चलेगा, लेकिन शौचालय तो जरूरी है। 

काली प्रसाद का भी वही दुःख है। काली बताते हैं कि हमारी शादी हुए 17 साल से अधिक का वक्त गुजर गया है। पूरे परिवार के पास एक अदद पक्का मकान नहीं है। साथ ही शौचालय भी नहीं है। कई बार आवेदन किए रहे, लेकिन हम लोगों की कहीं सुनवाई नहीं हो रही है। एक-दो लोगों का आया, शेष लोगों को आज भी शौच आदि के लिए बबूल के जंगल, रेल की पटरियों के किनारे जाना पड़ता है।

पुरुष जैसे-तैसे काम चला लेते हैं, जबकि महिलाओं को दिन के समय में कई परेशानियों का सामना करना पड़ता है। तबियत ख़राब होने पर जैसे लोगों के ऊपर मुसीबत का पहाड़ टूट पड़ता है। सभासद हम लोगों की समस्याओं से कोई इत्तफाक नहीं रखते हैं। सीवर जाम हो जाता है तो 13 बार दौड़ने पर तो एक बार सुनवाई होती है। आवास के साथ भी यही समस्या है। कई लोग आज भी टिन और प्लास्टिक की झुग्गी में रहते हैं। आवास के लिए आवेदन किया गया। कुछ लोगों का आया बाकी लोग जानवरों की तरह जीवन काट रहे हैं।    

ये कैसा स्मार्ट शहर है मोदी जी का ?

स्थानीय निवासी माला सोनकर कहती हैं कि सास-ससुर के बाद हम लोग हैं। अब तो हमारे नाती-पोते भी हो गए हैं। काफी परेशानी होने के बाद अपना पेट काटकर काम-चलाऊ शौचालय बनवाया है। पास में चौकाघाट प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र है। यहां से निकलने वाला कूड़ा-कचरा हमारे घर के सामने जमा किया जाता है। पार्षद से शिकायत करने पर वह आनाकानी कर रहे हैं। दुर्गन्ध और बदबू से बच्चे बीमार हो जाते हैं। यहां गली में लाइट भी नहीं लगाई गई है। हर समय अंधेरा रहता है। ये कैसा स्मार्ट शहर है मोदी जी का ? इससे पहले वाली व्यवस्था ही ठीक थी।

हाशिए पर खड़े लोगों के अधिकार और हक़ के लिए आंदोलन चलाने वाले वाराणसी नगर निगम के पूर्व डिप्टी चेयरमैन राजेंद्र गांधी कुशवाहा अपने साथियों के साथ। तस्वीर के मध्य में।

मोर्चे पर संघर्ष जारी 

वाराणसी नगर निगम के पूर्व डिप्टी चेयरमैन एवं बहादुर आदमी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजेंद्र गांधी कुशवाहा कई दशकों से मलिन बस्ती के लोगों के उत्थान के लिए जुटे हुए हैं। वह बताते हैं ‘मैं ढेलवारिया मलिन बस्ती के करीब दो हजार बाशिंदों के लिए 35 सालों से हर मोर्चों पर लड़ रहा हूं। जब मैं पार्षद था, तब तक इन गरीबों के विकास के लिए तेजी से प्रयास किया। सफाई और निर्माण कार्य भी हुआ। स्मार्ट सिटी के मद्देनजर मैंने डबल स्टोरी पुल की मांग किया था, जो अभी तक लंबित है।

ये लोग बहुत परेशानी में रहते हैं। इनके पास जमीन है। यदि प्रधानमंत्री आवास योजना का लाभ मिल जाता तो इनका जीवन आसान हो जाता है। जहां अधिकारियों को रुपए मिलते हैं। वहां काम हो रहा है। बाकी गरीब और पसमांदा लोग अपने हक़ और अधिकार के लिए छटपटा रहे हैं। इनकी सुविधा के लिए वाराणसी के सांसद और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र भी लिखा था। रेलवे और प्रशासनिक अधिकारियों ने लोभ और लालच में इनको उजाड़ने का विफल प्रयास किया। जबकि, यह मामला कोर्ट में चल रहा।

वाराणसी विकास प्राधिकरण की प्रोबेशनरी ऑफिसर जया सिंह कहती हैं कि ढेलवारिया-चौकाघाट में इन लोगों के पास जमीन नहीं है। सरकारी जमीन पर प्रधानमंत्री आवास शहरी योजना नहीं बनाया जाता है। इस योजना का लाभ लेने के लिए स्वयं की जमीन होनी चाहिए। हम योजना की गाइड लाइन के खिलाफ जाकर काम नहीं कर सकते हैं। वरना बाद में जांच आदि में विभाग पर सवाल खड़े हो जाएंगे कि आपने योजना का लाभ गलत तरीके से क्यों दे दिया ? वाराणसी जनपद में साल 2018 से अब तक कुल 18 हजार आवास बनाए जा चुके हैं।  

( बनारस सेपत्रकार पीके मौर्य की रिपोर्ट।)

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