दिल्ली में जब से अरविंद केजरीवाल और केंद्र में जब से बीजेपी की नरेंद्र मोदी की सरकार सत्ता में आई, तब से केंद्र और दिल्ली की सरकार के बीच इस विषय पर मतभेद रहा कि दिल्ली सरकार के आधीन नियुक्त प्रशासनिक अधिकारी किस सरकार के प्रशासनिक नियंत्रण में रहेंगे, दिल्ली सरकार के या, उपराज्यपाल के। दिल्ली सरकार, दिल्ली की जनता द्वारा चुनी हुई है और उप राज्यपाल की नियुक्ति भारत सरकार द्वारा की गई है। दिल्ली की सरकार जनता के प्रति जवाबदेह है, जबकि उपराज्यपाल की कोई भी जवाबदेही दिल्ली की जनता के प्रति नहीं है। इस विवाद का निस्तारण करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 11/05/2023 को एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया कि “राष्ट्रीय राजधानी में सार्वजनिक व्यवस्था, पुलिस और भूमि से संबंधित सेवाओं को छोड़कर- प्रशासनिक सेवाओं पर विधायी और कार्यकारी नियंत्रण राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली की सरकार का है।”
इस मामले में मुद्दा यह था कि, क्या दिल्ली सरकार के पास भारत के संविधान की अनुसूची VII, सूची II और प्रविष्टि 41 के तहत ‘सेवाओं’ के संबंध में विधायी और कार्यकारी शक्तियां हैं और क्या विभिन्न ‘सेवाओं’ जैसे आइएएस, दानिक्स अधिकारियों, जिनका अलॉटमेंट केंद्र सरकार ने दिल्ली को किया गया है, पर दिल्ली सरकार का नियंत्रण है या नहीं?
फरवरी 2019 में सुप्रीम कोर्ट के दो न्यायाधीशों ने इस महत्वपूर्ण संवैधानिक बिंदु पर अलग-अलग विचार व्यक्त किए थे, जिसके अनुसार मामले के समाधान हेतु तीन-न्यायाधीशों की पीठ के समक्ष रखने का निर्देश दिया गया। तब न्यायमूर्ति एके सीकरी ने माना कि संयुक्त सचिव और उससे ऊपर के रैंक के अधिकारियों के स्थानांतरण और पोस्टिंग का अधिकार दिल्ली के लेफ्टिनेंट गवर्नर का रहेगा और अन्य अधिकारी दिल्ली सरकार के नियंत्रण में रखे गए थे। जस्टिस अशोक भूषण ने असहमति जताते हुए कहा था कि, प्रशासनिक ‘सेवाएं’ पूरी तरह से दिल्ली सरकार के दायरे के बाहर रहनी चाहिए।”
2022 में भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना ने इस खंडित फैसले पर निर्णय लेने के लिए तीन-न्यायाधीशों की एक अलग पीठ का गठन किया। बाद में तीन जजों की बेंच ने इस मामले को कानूनी रूप से महत्वपूर्ण पाते हुए संविधान पीठ के पास भेज दिया। चीफ जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच जजों की बेंच ने इस विवाद की सुनवाई शुरू की, जिसे अब सुलझा लिया गया है।
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और इस दौरान नियुक्त रहे तीन उपराज्यपालों में से प्रत्येक के बीच समय-समय पर रस्साकशी देखने को मिली थी। नजीब जंग के साथ शुरू हुआ यह विवाद अनिल बैजल से होता हुआ अब वी.के सक्सेना तक आ पहुंचा था। यह संघर्ष 2021 में तब चरम पर पहुंच गया, जब केंद्र सरकार ने चुनी हुई सरकार पर उपराज्यपाल को सर्वोच्चता प्रदान करते हुए राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार अधिनियम, 1991 में संशोधन किया।
इस संशोधन के कारण चुनी हुई सरकार लगभग एलजी पर आश्रित हो गई और दिल्ली विधानसभा को नियम बनाने, समितियों की स्थापना करने या पूछताछ करने से रोक दिया गया। एनसीटीडी अधिनियम में यह संशोधन अनुच्छेद 239 एए के तहत संवैधानिक प्रावधान के पूरक के रूप में पारित किया गया था और अधिकांश विधिवेत्ताओं ने तब भी कहा था कि, यह संशोधन प्रथमदृष्टया ही संदिग्ध था। क्या संसद, संवैधानिक प्रावधानों को दरकिनार कर केंद्र सरकार को वे शक्तियां भी दे सकती है, जो संविधान के अनुसार नहीं दी जा सकती है?
विशेष रूप से इस सर्वसम्मत फैसले में मुख्य न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़ और जस्टिस एम.आर. शाह, कृष्ण मुरारी, हेमा कोहली और पीएस नरसिम्हा की एक संविधान पीठ ने संसदीय सरकार के वेस्टमिंस्टर-व्हाइटहॉल मॉडल में सिविल सेवाओं की भूमिका पर चर्चा की, जो भारत को विरासत में मिली है। मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने, पीठ की तरफ से फैसला सुनाते हुए कहा कि, “जिम्मेदार सरकार की प्रणाली उन पेशेवरों पर निर्भर करती है जो, एक सक्षम और स्वतंत्र सिविल सेवा की संस्था का प्रतीक हैं। यह देखा गया, “सरकार की नीतियों को लोगों, संसद, कैबिनेट या यहां तक कि व्यक्तिगत मंत्रियों द्वारा नहीं, बल्कि सिविल सेवा अधिकारियों द्वारा लागू किया जाता है।”
इस संबंध में संविधान पीठ ने कमांड की ट्रिपल चेन पर जोर दिया जो एक सिविल सेवक को देश के लोगों या उसकी किसी संघीय इकाई से जोड़ता है। सिविल सेवा के अधिकारी एक निर्वाचित सरकार के मंत्रियों के प्रति जवाबदेह होते हैं, जिनके अधीन वे कार्य करते हैं। मंत्री, विधायिका के प्रति जवाबदेह होते हैं। राज्य, विधानमंडल लोगों के प्रति जवाबदेह हैं। और लोकतंत्र के संसदीय रूप में जनता ही है जिसमें संप्रभुता निहित होती है। मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने टिप्पणी की, “वेस्टमिनिस्टर संसदीय लोकतंत्र के तहत, सिविल सेवा कमांड की ट्रिपल श्रृंखला का एक महत्वपूर्ण घटक है जो लोकतांत्रिक जवाबदेही सुनिश्चित करती है।” वेस्टमिनिस्टर, लोकतंत्र का ब्रिटिश मॉडल है, जिसे हमने स्वीकार किया है।
“इसलिए एक ‘गैर-जवाबदेह’ और ‘गैर-उत्तरदायी’ सिविल सेवा एक गंभीर समस्या पैदा कर सकता है।” फैसला सुनाते हुए, पीठ ने आगे कहा, “यह एक संभावना पैदा करता है कि स्थायी कार्यपालिका, जिसमें अनिर्वाचित सिविल सेवा अधिकारी शामिल हैं, जो सरकारी नीति के कार्यान्वयन में एक निर्णायक भूमिका निभाते हैं, मतदाताओं की इच्छा की अवहेलना करने वाले तरीकों के अनुसार कार्य कर सकते हैं।”
संविधान पीठ ने भारतीय संघवाद की आवश्यक विशेषताओं पर चर्चा करने के बाद आगे कहा, “सरकार के लोकतांत्रिक रूप में, प्रशासन की वास्तविक शक्ति राज्य की निर्वाचित सरकार के हाथ में, संविधान की सीमाओं में होनी चाहिए। संवैधानिक रूप से स्थापित और लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित सरकार को अपने प्रशासन पर नियंत्रण रखने की आवश्यकता है।”
संविधान पीठ ने यह भी स्पष्ट किया कि “प्रशासन में कई सार्वजनिक अधिकारी शामिल होते हैं जो किसी विशेष सरकार की सेवाओं में तैनात होते हैं, भले ही वह सरकार उनकी भर्ती में शामिल हो या न हो। यदि लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित सरकार को, उनके अधिकार क्षेत्र के भीतर काम करने वाले सिविल सेवकों की बागडोर प्रदान नहीं की गई, तो” संविधान पीठ ने चेतावनी दी कि, “यदि एक लोकतांत्रिक ढंग से निर्वाचित सरकार को अपने कार्यक्षेत्र में तैनात अधिकारियों को नियंत्रित करने की शक्ति प्रदान नहीं की जाती है, तो सामूहिक उत्तरदायित्व की तिहरी श्रृंखला का सिद्धांत बेमानी हो जाएगा।
कहने का तात्पर्य यह है कि यदि सरकार अपनी सेवा में पदस्थ अधिकारियों को नियंत्रित और सुपरवाइज नहीं कर पाती है तो विधायिका के साथ-साथ जनता के प्रति उसका उत्तरदायित्व न्यून हो जाता है। सामूहिक उत्तरदायित्व का सिद्धांत अधिकारियों के उत्तरदायित्व तक विस्तृत होता है, जो मंत्रियों को रिपोर्ट करते हैं।”
संविधान पीठ ने चेतावनी भरे शब्दों में कहा, “अगर अधिकारी मंत्रियों को रिपोर्ट करना बंद कर देते हैं या निर्देशों का पालन नहीं करते हैं, तो सामूहिक जिम्मेदारियों का पूरा सिद्धांत प्रभावित होता है। एक लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित सरकार केवल तभी कार्य कर सकती है जब अधिकारियों को इसके परिणाम के बारे में जागरूकता हो। यदि अधिकारियों को लगता है कि वे निर्वाचित सरकार के नियंत्रण से अछूते हैं, जिसकी वे सेवा कर रहे हैं, तो वे गैर-जवाबदेह हो जाते हैं या अपने प्रदर्शन के प्रति प्रतिबद्धता नहीं दिखा सकते हैं।”
संविधान पीठ ने पाया कि, “केंद्र और दिल्ली सरकार के बीच संबंध एक ‘असममित’ संघीय मॉडल जैसा है, जिसके तहत बाद में संविधान की सातवीं अनुसूची की राज्य सूची और समवर्ती सूची के निर्दिष्ट क्षेत्रों में अपने विधायी और कार्यकारी नियंत्रण का प्रयोग किया।”
हालांकि, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की ‘सूई जेनेरिस’ स्थिति को ध्यान में रखते हुए और शासित होने वाले लोगों के लिए लोकतांत्रिक जवाबदेही सुनिश्चित करने के महत्व को ध्यान में रखते हुए संविधान पीठ ने निष्कर्ष निकाला, “अनुच्छेद 239AA जिसने दिल्ली के राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र को एक विशेष दर्जा प्रदान किया और संवैधानिक रूप से सरकार के एक प्रतिनिधि रूप में स्थापित किया गया था, संघवाद की भावना के अनुसार, संविधान में, इसलिए शामिल किया गया था कि दिल्ली के निवासियों के पास एक सरकार होनी चाहिए कि उन्हें कैसे शासित किया जाना है। दिल्ली सरकार की यह जिम्मेदारी है कि वह दिल्ली की जनता की इच्छा को अभिव्यक्ति दे, जिसने उसे चुना है। इसलिए आदर्श निष्कर्ष यह होगा कि, चुनी हुई दिल्ली सरकार का प्रशासनिक सेवाओं पर नियंत्रण रहना चाहिए।
यह फैसला दिल्ली की सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी (आप) के लिए एक बड़ी राहत के रूप में आया है, जो राष्ट्रीय राजधानी में सत्ता के बंटवारे और सत्ता के बंटवारे को लेकर उपराज्यपाल वी.के. सक्सेना के साथ संघर्ष की जंग में लगी हुई है।
(विजय शंकर सिंह पूर्व आईपीएस हैं)