Saturday, April 20, 2024

साक्षात्कार: मौजूदा शासकों ने शर्म हया खो दी है- अरुण शौरी

(पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी ने कहा है कि मौजूदा अर्थव्यवस्था के संकट ने बेहद गंभीर रूप धारण कर लिया है। उन्होंने कहा कि उन्हें जीडीपी से ज्यादा चिंता रोजगार में गिरावट की है। सरकार पर हमला बोलते हुए उन्होंने कहा कि देश के मौजूदा शासक निर्लज्ज हो गए हैं। और अगर समय रहते चीजें ठीक नहीं की गयीं तो देश को पतन के रास्ते पर जाने से कोई नहीं रोक सकेगा। ये बातें उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस को दिए एक साक्षात्कार में कहीं। पेश है उनका पूरा इंटरव्यू-संपादक)

वंदिता मिश्रा: आप की हालिया किताब ‘प्रिपेरिंग फॉर डेथ’ में मुक्ति की दो धाराएं हैं। एक बाहरी दुनिया से धीरे-धीरे दूरी है और दूसरी उसमें बिल्कुल घुल-मिल कर विसर्जित हो जाना है। आपके लिए इनमें से कौन है?

अरुण शौरी: वहां दो बिल्कुल अलग-अलग रास्ते हैं। एक गांधी का रास्ता है- वह अपनी आखिरी सांस तक शामिल थे। और दूसरा विनोबा भावे का रास्ता था। आखिरी दिनों में उन्होंने खुद को सभी तरह की सार्वजनिक गतिविधियों से अलग कर लिया था…..लेकिन जहां ये दोनों चीजें एक साथ आती हैं वह बाहरी चीजों का त्याग नहीं था बल्कि उदाहरण के लिए जैसे अहंकार का। और यही गीता का भी उपदेश है। बगैर फल की अपेक्षा किए न केवल काम करने बल्कि इस तरह के किसी मोह माया के भी बगैर कि सब कुछ आप कर रहे हैं। पाप के खात्मे के लिए ये सभी पर्यायवाची हैं। इसलिए हमें दो परंपराओं को एक दूसरे से अलग कर नहीं देखना चाहिए।

वंदिता मिश्रा: आप राजस्थान के एक स्पेशल कोर्ट में भ्रष्टाचार के एक मामले का सामना कर रहे हैं। आप जैसे एक शख्स के लिए जो भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई का अगुआ रहा हो। आप इससे कैसे निपट रहे हैं? 

अरुण शौरी: आप नाराज हो सकते हैं। लेकिन एक उपदेश है कि उस समय घटना पर केंद्रित मत करिए। उस घटना से होने वाली प्रतिक्रिया पर केंद्रित करिए…..

हर सफलता की तरह हर झटका भी अपने मस्तिष्क की परीक्षा के लिए एक अवसर होता है। यह खुद को परखने का मौका होता है और अपने दिमाग को बेहतर तरीके से समझने का भी। मैं बेहद परेशान था। लेकिन मैंने 45 मिनट के योगा और मेडिटेशन की दिनचर्या को नहीं रोका। मैं वह सब कुछ यह सोचे बगैर कर रहा था कि हमें किसी के सामने पेश होना है…..मुझे उसकी कोई फ़िक्र नहीं है। हम कुछ नहीं हैं। गांधी जी मजिस्ट्रेट के सामने खड़े हुए थे। उसी तरह से लोकमान्य तिलक भी। इसलिए हमें विनम्र होना चाहिए….

वंदिता मिश्रा: क्या इस सत्ता से आप निराश हैं? 

अरुण शौरी: मैं सोचता हूं कि यह सत्ता पिछले 40 सालों में जो हुआ है उसकी फसल काट रही है। संस्थाओं की अधीनता, जांच की एजेंसियों, पुलिस हर मुख्यमंत्री की निजी सेना में तब्दील होती जा रही है। और जिस तरह से सु्प्रीम कोर्ट ने बहुत सारे मामलों में अपने व्यवहार का प्रदर्शन किया है और उनकी प्राथमिकताओं की सोच….वे अर्णब गोस्वामी या फिर सुशांत सिंह के लिए समय निकाल सकते हैं लेकिन कश्मीर या फिर प्रवासी मजदूरों के लिए नहीं? इसलिए यही रेजीम है जो इस प्रक्रिया को और तेज कर रही है। चीजों को निर्लज्ज तरीके से इस्तेमाल किया जा रहा है। लेकिन इस सत्ता के इतर समस्या और गहरी है। सभी संस्थानों में लगातार गिरावट का सिलसिला जारी है जो संसद से लेकर विधायिका, नौकरशाही, न्यायपालिका और मीडिया तक फैला हुआ है। यह लोगों को…..परंपराओं को बदलने का मौका देती है। आज का नियम है मेरा कोई नियम नहीं है।….इसलिए एक लंबी प्रक्रिया की यह परिणति है। इसीलिए समस्या बहुत गहरी है।

वंदिता मिश्रा: आप ने न्यायपालिकाओं में गिरावट का एक बड़ा परिप्रेक्ष्य पेश किया है। आज यह स्थित जहां पहुंची है कब और क्यों हुई इसके बारे में आपकी क्या राय है?

अरुण शौरी: मिसेज गांधी (इंदिरा गांधी) के पास पाप से मुक्ति के गुण थे। उदाहरण के लिए उन्हें शर्म का अहसास था……यह चीज आज के शासकों में नहीं है। लेकिन यह सब कुछ पूर्व कानून मंत्री पी शिवशंकर के प्रतिबद्ध न्यायपालिका और प्रतिबद्ध नौकरशाही की अवधारणा से शुरू हुआ। उन्होंने (इंदिरा गांधी) तीन जजों को दरकिनार कर दिया था। और उसने एक सिद्धांत स्थापित कर दिया था कि अगर आप नहीं करते हैं जो मैं करना चाहता हूं, तो फिर मैं उसके मुताबिक काम करूंगा…..मुझे हमेशा ये लगता है कि कुल्हाड़ियों से जितने पेड़ नहीं काटे गए हैं उससे ज्यादा दीमकों ने धीरे-धीरे उन्हें धराशाई कर दिए हैं। इसलिए समय रहते हम नागरिकों को जागना होगा। और न्यायपालिका के मामले में जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए…..लगातार फैसलों की निगरानी करनी होगी।

वंदिता मिश्रा: आप कह रहे हैं कि संस्थाओं का संकट वास्तव में किसी एक सरकार की वजह से नहीं है। यह बात बिल्कुल सही है। लेकिन वह कौन चीज है जिसके चलते हम पहले की सत्ताओं को नहीं रोक सके?

अरुण शौरी: मैं उसके बारे में कोई सुझाव नहीं देना चाहता था। यह बहुत समय से चला आ रहा है। ऐसे में इसमें आश्चर्य किस बात का है? यहां तक कि अगर हत्या भी बहुत दिनों से चल रही है वह मेरे द्वारा किसी दूसरे की हत्या को जायज नहीं ठहरा सकती है। इसलिए यह शासकों की जिम्मेदारी है कि अगर चीजें गलत दिशा में जा रही हैं तो उन्हें मोड़ दिया जाए। और वैसे भी पीएम मोदी के मामले में उन्हें उसको जारी रखने के लिए नहीं चुना गया था उनसे बदलाव की उम्मीद की गयी थी। निचली अदालतों में चीजें पहले से ही बहुत बुरी हालात में थीं। लेकिन मौजूदा समय में कानून मंत्रालय में बैठे लोगों से उन्हें उल्टी दिशा में पलट देने की उम्मीद थी। क्या उन्होंने न केवल कोर्ट की परिस्थितियां बल्कि उनकी प्रक्रियाओं में सुधार के लिए कुछ किया है? नहीं। वे केवल अपना ऐसा बयान चाहते हैं जिसमें पीएम की प्रशंसा के पुल बांधे गए हों…। यहां केवल यह बात नहीं है कि पुरानी सत्ता के दौरान जो कुछ हो रहा था सब जारी है बल्कि एक संस्था के बाद दूसरी संस्था की गिरावट का क्रम और तेज हो गया है।

वंदिता मिश्रा: इस सत्ता के लिए कौन संकट है जो बेहद खास है?

अरुण शौरी: पहला सभी नियमों को पूरी तरह से फेंक देना। आधार विधेयक और ढेर सारे विधेयक मनी विधेयक करार दे दिए गए। इस तरह से उन्हें राज्यसभा नहीं भेजा गया। इस तरह से सभी नियमों को फेंकने जैसी बात है। और यह बार-बार हुआ। दूसरा, बातचीत में गिरावट। यदि आप उन झूठों को देखते हैं जो बोले गए हैं, तो मुझे लगता है कि उससे ज्यादा केवल (अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड) ट्रम्प ने बोले हैं। और तीसरा वह है जिसका देश बहुत दिनों तक खामियाजा भुगतेगा। कोई भी शख्स सब कुछ नहीं जान सकता है…..इसलिए सभी विशेषज्ञता से दूरी बना लेने को अभ्यास में ला देना और इस कड़ी में जो भी एक विशेषज्ञ है उसे बाहर धकेल देना, न केवल सत्ता बल्कि पूरे देश को खतरे में डालने वाला है। मैं इस बात को लेकर निश्चिंत हूं कि यह चीनी निर्देशों पर लागू होता है अर्थव्यवस्था का प्रबंधन और न्यायालयों में सुधार…..

अगर आप जानते हों जिसे लिंकन प्रतिद्वंदियों की एक टीम कहकर बुलाते थे तब आप बहुत ज्यादा कुछ सुन रहे होंगे। यह अटल जी का महान गुण था। वह सभी तरह के लोगों से मिलते और उनको सुनते थे। वह आपको यह विश्वास देते थे कि आप उनके सामने बगैर किसी परेशानी और बदले के डर से बात कर सकते थे। आज लोग पीएम मोदी और अमित शाह की प्रतिक्रिया की आशंका से चुप हो गए हैं। तब शासन रहस्य की तरह संचालित होता है। एक रात आप तय करते हैं और नोटबंदी लागू कर देते हैं। उसके बाद अगले 8 महीनों तक आप उसके परिणामों का बचाव करते हैं। वही बात प्रवासियों के साथ हुई….लेकिन क्या पीएम और उनके सचिवालय ने पहले इसका आकलन नहीं किया था? या फिर जब सामने आया तो उस समय क्या काम नहीं कर सकते थे? किस तरह की सरकार यह कह सकती है कि हम मुआवजा इसलिए नहीं अदा कर सकते हैं क्योंकि हम जानते ही नहीं कि कितने प्रवासी मरे?

पी वैद्यनाथन अय्यर: इतिहास ऐसे व्यक्तियों का रहा है जो किसी संस्था के केंद्र में होते हैं और अचानक अपने नेतृत्व में चलने वाली संस्था की प्रकृति में बदलाव शुरू कर देते हैं। उदाहरण के लिए चुनाव आयोग में टीएन शेषन, या वाईवी रेड्डी रिजर्व बैंक आफ इंडिया में। आज क्या चीज अनुपस्थित है?

अरुण शौरी: संस्थाएं वह शख्सियतें हैं जिन्हें किसी खास समय पर कोई शख्स उनको संचालित करता है…..व्यक्तिगत तौर पर जजों ने सुप्रीम कोर्ट में न्याय की पूरी प्रक्रिया को बदल दिया……संस्थाएं कोई हवा में नहीं होतीं….वह अकेली होती हैं जिनका कोई व्यक्ति संचालन करता है। समस्या उन व्यक्तियों के चयन में है जो वहां रहकर काम करेगा। उदाहरण के लिए विधायिकाओं में, यह पार्टी का हाईकमान होता है जो तय करता है कि कौन प्रत्याशी होगा। संसद या फिर राज्य की विधान सभाएं कोई काल्पनिक संस्थान नहीं हैं। यह अलग-अलग तरह के लोग हैं जिन्हें जनता के सामने पेश किया गया था और फिर उसने उनको चुना है……इसलिए वह उसी समय तय हो जाता है कि संस्था कैसे व्यवहार करेगी। न्यायपालिका में यही हुआ। पूर्व जस्टिस वर्मा जो कोलेजियम प्रणाली के निर्माता थे, ने कहा था कि यह एक सौदेबाजी का स्थान हो गया है……दूसरी तरफ अगर आप कार्यपालिका को और ज्यादा अधिकार देते हैं, जैसा कि मौजूदा समय में एसर्टिव है, तो आप को एक और ज्यादा विध्वंसकारी न्यायपालिका मिलेगी।

अनंत गोयनका: पूरी दुनिया में ज्यादा से ज्यादा लोग मताधिकार का इस्तेमाल पहचानों के आधार पर करते हैं बजाय अर्थव्यवस्था या फिर रोजगार के आधार पर करने के। ऐसा क्यों हो रहा है? और पत्रकार इस ट्रेंड को पकड़ने में नाकाम क्यों रहे?

अरुण शौरी: तथ्य अगर यह है कि वो किसी खास तरीके से मतदान कर रहे हैं उस खास तरीके को जायज नहीं ठहराया जा सकता है। मेरा मानना है कि वे शायद विकल्प के खिलाफ मतदान कर रहे हों और किसी शख्स के लिए नहीं। किसी भी नतीजे में हम ढेर सारे सिद्धांतों को पढ़ते हैं। लेकिन नतीजे के पीछे बहुत सारे कारक होते हैं। यह कुछ ऐसा हो सकता है जिसे हम विकल्प के तौर पर देखते हैं……हम सभी मनमोहन सिंह के कार्यकाल के आखिरी दो साल बेहद फेड अप हो गए थे और फिर गुजरात मॉडल के बारे में कल्पना करने लगे थे लेकिन उसकी जो आज सच्चाई सामने आ रही है उसमें ऐसा कुछ नहीं था। इसलिए लोग खुद को मूर्ख बना सकते हैं और फिर उसके नतीजों को भुगतते हैं…..

अनंत गोयनका: क्या आप सोचते हैं कि लोग आज भी बोलने की स्वतंत्रता और फ्री प्रेस के बारे में उसी तरह से परवाह करते हैं जैसा कि 10-15 साल पहले था? या फिर यह उतना ऊंचा नहीं है कि उनकी प्राथमिकताओं में हो? मौजूदा राजनीतिक परिस्थितियों में यह उसके ध्वंस का शिकार हो गया?

अरुण शौरी: यही सब कुछ उत्तर है। लेकिन बोलने की आज़ादी की आड़ में बिल्कुल बेहूदगी फैलायी जा रही है। उदाहरण के लिए सोशल मीडिया पर झूठ और रिपब्लिक टीवी। मैं उस तरह का उदार नहीं हो सकता हूं जैसा कि अमेरिकी फ्रेज कहता है कि “बोलने का अधिकार जिसकी मैं घृणा करता हूं उसके बोलने की रक्षा है।” अगर कोई शख्स असत्य को फैला रहा है तो मैं उसके अधिकारों के लिए खड़ा नहीं होउंगा….यह एक छोटी दृष्टि का विचार है…..लेकिन मैं सोचता हूं कि लोग हमें (मीडिया में काम करने वाले) एक समस्या की तरह देख रहे हैं एक ऐसे स्तंभ की तरह नहीं जिसकी रक्षा की जानी चाहिए। रामनाथ जी के केस में रक्षक कौन थे? वो पाठक थे……हर समय जब रामनाथ जी के घर या इंडियन एक्सप्रेस पर छापा पड़ा……सर्कुलेशन बढ़ गया। ऐसा इसलिए था क्योंकि पाठक इस बात को महसूस करता था कि यह उनकी आवाज नहीं दबायी जा रही है बल्कि “मेरी आवाज को दबाया जा रहा है।” आज मीडिया के बड़े हिस्से के लिए पाठक वैसा कुछ नहीं देखता। यही समस्या है।

निरुपमा सुब्रमण्यम: ऐसे में आज के दौर और काल में पत्रकारिता को कैसे आगे बढ़ना चाहिए?

अरुण शौरी: हमें लगातार अपना कर्तव्य करते रहना चाहिए, जो सत्ता के सामने सत्य बोलना है। सत्ता अक्सर लोगों के लिए मतलब रखती है जिन्हें आरक्षण, सांप्रदायिकता, लिंचिंग और आदि चीजों पर भ्रमित किया गया है। हमें लगातार उनके सामने सत्य बोलना चाहिए इस बात को बिल्कुल भुलाकर कि आज का फैशन क्या है? जस्टिस के सुब्बा राव ने एक बिल्कुल अद्भुत बात कही थी, “मैं भविष्य में लोगों के अहसास को विकसित करने के लिए लिख रहा हूं…..हमें लोगों से बहुत ज्यादा सहानुभूति नहीं रखनी चाहिए। अगर वे उस सत्य को नहीं सुन रहे हैं जिसे आप उनके सामने पेश कर रहे हैं तो उसके लिए वो भुगतेंगे।”

वंदिता मिश्रा: इस रेजीम को लेकर आपने जो प्रक्रिया अपनायी उसको लेकर आपको कोई संदेह है?

अरुण शौरी: नहीं। बोलने से पहले मैंने छह महीने का इंतजार किया जब तक कि प्रमाण हर एक के सामने नहीं आ गया था। और उसके बाद हमने उन प्रमाणों को केवल जोड़ने का काम किया। मैं सोचता हूं कि अगर मैं सत्ता के भीतर होता तो 15 दिन भी नहीं चल पाता। क्योंकि इस सत्ता का एक खास चरित्र है। मुझे क्यों नहीं बाहर फेंक दिया जाता?…..वहां किस तरह के लोग होने चाहिए उसको लेकर एक विचार है। मैं उसमें फिट नहीं बैठता।

सुभोजीत रॉय: आपने इस बात का जिक्र किया है कि कैसे सरकार विशेषज्ञता को कोई तवज्जो नहीं देती। क्या आप महसूस करते हैं कि चीन के बारे में भी यही बात है? सरकार के पास विदेश मंत्रालय में एक अनुभवशाली राजनयिक है जो शायद क्या हो रहा है उसको जानता है। आपके विचार में आगे का रास्ता क्या है?

अरुण शौरी: जय शंकर की विदेश मंत्री के तौर पर नियुक्ति मोदी का एक अद्भुत फैसला था। कम से कम हमारे पास एक पेशेवर है। मैं इस बात को लेकिन निश्चित नहीं हूं कि उन्हें किस हद तक सुना जाता है….दूसरा, यह बहुत अच्छा है कि सीडीएस बनाया गया है। लेकिन उस शख्स के बारे में मैं कोई बात नहीं करना चाहता जिसको चुना गया है। अगर इसी तरह के लोग हैं तो आप को विरोधी सलाह कतई नहीं मिलने जा रही है….. 

क्या चीनी पीछे चले गए हैं? लेकिन हमें यह एहसास कराया जा रहा है कि बातचीत जारी है…..लेकिन लोगों को भरोसे में नहीं लिया जा रहा है। जयशंकर की नियुक्ति सामान्य नियमों का अद्भुत अपवाद है। और निश्चित तौर पर वह ऐसे शख्स होंगे जो इन सारी चीजों को समझ रहे होंगे….आप केवल विशेषज्ञ रखने के लिए नहीं रखते। आपको विशेषज्ञ को भरोसा देना होता है- मैं आपकी स्वतंत्र सलाह सुनना चाहता हूं।

उदाहरण के लिए वाजपेयी के मामले में उनका स्वाभाविक संदेहवाद आपके भीतर के विपरीत विचार को भी बाहर ला देगा। यह वह चीज है जिसको मैं मौजूदा सरकार में नहीं देख पाता हूं। स्वतंत्रता का मतलब विपरीत होना कतई नहीं है। लेकिन कुछ मंत्रियों जिनसे मेरी मुलाकात हुई है मैंने यह नहीं पाया कि वो स्वतंत्र रूप से अपनी बात रखने का उनके भीतर आत्मविश्वास है। वरना हम उस तरह के उतार-चढ़ाव वाले फैसले नहीं हासिल करते जो कि हमें मिल रहे हैं।

शुभोजीत राय: तो फिर आगे का रास्ता क्या है?

अरुण शौरी: चीन को लेकर यथार्थवादी होने की जरूरत है…..आप सोचते हैं कि हिंसा का यह सबसे घृणित रूप है? रास्ता यह है कि भविष्य में उससे भी बड़ी हिंसा के लिए तैयार रहना होगा। और इस तैयारी के लिए 30 साल चाहिए। आप उसे रातों-रात नहीं कर सकते। एक आत्म रक्षात्मक शक्ति की यही सच्चाई है। और चीन एक विध्वंसकारी सत्ता है। इसलिए वे एक क्षेत्र की गतिविधियों पर केंद्रित कर सकते हैं। उदाहरण के लिए साइबर लड़ाई में विशेषज्ञता हासिल करना। और उनका विचार एक समाज को दो मिनट के भीतर इंटीग्रेटेड पावर नेटवर्क, रेलवे नेटवर्क, एयर ट्रैफिक कंट्रोल सिस्टम, फाइनेंशियल रिकार्ड, ब्राडकास्टिंग सिस्टम, टेलीकाम सिस्टम आदि के जरिये ध्वस्त करना और गुमराह कर देना है। वो लगातार और बार-बार अपनी इन क्षमताओं का प्रदर्शन कर रहे हैं। लेकिन हमने अपनी आंखें बंद कर ली है।

श्यामलाल यादव: आरएसएस के बारे में आपके क्या विचार हैं?

अरुण शौरी: वाजपेयी आरएसएस में थे लेकिन मैं नहीं सोचता हूं कि दुनिया को देखने का उनका नजरिया उस तरह की सोच से बना था। आज आरएसएस के बीच के नेतृत्व को सरकार ने पूरा अपने भीतर समाहित कर लिया है। और वे सभी छोटी चीजों के जरिये बहा लिए गए हैं- एक सरकारी कार, सलामी…..आज यह गलत अवधारणा है कि मोदी आरएसएस का दिमाग रखते हैं। नहीं। वह जानते हैं कि आरएसएस का ऊपरी नेतृत्व बिल्कुल बकवास है। उन्होंने सभी सूबों के नेताओं और जिलों के मुख्य लोगों को अपनी मुट्ठी में कर लिया है। वे इस समय उनके औजार बन गए हैं। और विचारधारा हमेशा वर्चस्व का एक हथियार होती है।

पी वैद्यनाथन अय्यर: बाहर से देश चीन के साथ फंसा हुआ है। और आंतरिक रूप से अर्थव्यवस्था से लड़ाई लड़ रहा है। आपके हिसाब से क्या चीज गलत हो गयी? और वे कौन-कौन से सुधार हैं जिन्हें भारत नजदीक और दूरगामी दृष्टियों से संपादित कर सकता है?

अरुण शौरी: पहला सरकार को सच होना चाहिए। मुझे याद है किसी आर्थिक सलाहकार ने आत्म प्रकाशित समीक्षा में कहा था कि हमारी ग्रोथ रेट 1.2 फीसदी होगी। वह कहां हैं?….हमें सच होना पड़ेगा और भारत के लोगों में विश्वास करना होगा। उन्हें सच बताइये। लेकिन प्रोत्साहन पैकेज या इसी तरह के कुछ सवाल पर मैं निजी तौर पर सरकार की नीतियों के मामले में बहुत उत्साहित नहीं रहा हूं। उदाहरण के लिए घाटा 3.3 या 4 फीसदी से ऊपर नहीं जाना चाहिए। यह एक ऐसा नंबर है जिसका कोई मतलब नहीं है। परिस्थितियां बदलती हैं और हमें किसी खास नंबर पर टिक नहीं जाना चाहिए।

उसी तरह से मुद्रास्फीति दर पर मुझे नहीं लगता है कि आरबीआई को किसी एक खास नंबर पर टिक जाना चाहिए और फिर उसके इर्द-गिर्द ही अपनी नीतियां बनानी चाहिए। इसलिए अगर एक प्रोत्साहन की जरूरत है तो उस दिशा में आगे बढ़िए। लेकिन यह केवल पैसा फेंकना और फिर कहना कि मैंने प्रोत्साहन पैकेज दिया है जैसा नहीं होना चाहिए। यह भविष्य के उपयोगी प्रोजेक्ट में लागू होने योग्य होना चाहिए। और पूरी सरकार की प्रणाली के कमजोर होने से क्षमता कम हो रही है।……..कोई भी शख्स 1 लाख करोड़ के आंकड़े (प्रोत्साहन) में विश्वास नहीं करता है। हर छह महीने पर आप एक लाख करोड़ का आंकड़ा पेश कर रहे हैं और उसका कुछ नहीं होता। इसलिए सच्चाई और ज्यादा विविध होती है।

वंदिता मिश्रा: आपकी किताब में एक प्रमुख नोट करने वाली थीम है कि कोई कैसे एक विपरीत को अपने पक्ष में कर सकता है। क्या आप इस बात में भरोसा करते हैं कि जिस संकट में हम लोग हैं वह हमें कुछ कीमती और बेहद खूबसूरत चीज देने जा रही है? क्या आप आशावादी हैं?

अरुण शौरी? नहीं, यह सब कुछ उस पर काम करने पर निर्भर करता है। विपरीत परिस्थितियां बहुत सारे लोगों को तोड़ देती हैं। इसलिए विपरीत परिस्थितियों को एक सीखने के अवसर में बदलने या फिर अच्छी विकास दर के लिए आपको बहुत ज्यादा मेहनत करनी होगी। मैं रोजगार में गिरावट को लेकर बेहद चिंतित हूं। मैं जीडीपी के नीचे जाने से परेशान नहीं हूं……इसलिए उपयोगी उत्पादन, पर्यावरण में गलतियों का उपचार, आधारभूत ढांचे का निर्माण, हिमालय में बेहतर बुनियादी ढांचे के बारे में सोचना, बजाय केदारनाथ और बद्रीनाथ को चारधाम यात्रा में बदल देना और उस स्थान की पारिस्थितिकी को बिल्कुल बर्बाद कर देना। इसलिए बहुत सारी चीजों को किया जाना है। संक्षेप में उत्तर है कि विपरीत परिस्थितियां अपने आप एक लाभदायक चीज में नहीं बदलती हैं। हमें उस पर काम करना है।

वंदिता मिश्रा: क्या आप वह होते देख रहे हैं?

अरुण शौरी: नहीं, दूर-दूर तक नहीं। इस मामले में अगर मैं गलत हूं तो उस पर सुधार के लिए तैयार हूं…….और निश्चित तौर पर हमारे लोगों के व्यवहार में मैं उस तरह की कोई आशा नहीं देखता हूं। अगर कल कोरोना वायरस खत्म हो जाए तो मैं सोचता हूं कि हमारा व्यवहार पहले की तरह हो जाएगा……मैं खुद को एक यथार्थवादी मानता हूं और एक ऐसा इंसान जो चीजों को अपने सामने देखता है और अपनी निगाह को उससे नहीं हटाना चाहता है।

(इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित इंटरव्यू का हिंदी अनुवाद।)

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