बहुजन समाज के बुद्धिजीवियों के बीच गहरी पैठ बनाते जा रहे हैं राहुल गांधी

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कल 30 जनवरी को नई दिल्ली में ग़ालिब ऑडिटोरियम में “वंचित समाज: दशा व दिशा” विषय पर दिल्ली सहित देश के कई हिस्सों से पहुंचे बहुजन समाज के बुद्धिजीवियों के साथ राहुल गांधी ने पहली बार कई ऐसी बातें कहीं, जिनका देश की राजनीतिक दशा-दिशा पर दूरगामी प्रभाव पड़ना लाजिमी है।

इस सेमिनार में राहुल गांधी ने कई बातें ऐसी भी कहीं, जिससे बीजेपी ही नहीं बल्कि कई क्षेत्रीय दल और स्वयं कांग्रेस के भीतर भी भविष्य में बड़ा भूचाल आ सकता है। 

दिल्ली विधानसभा चुनाव के ऐन मौके पर दिल्ली के भीतर किसी सेमिनार का आयोजन पहली नजर में ऐसा लग सकता है कि कांग्रेस चुनावी मुकाबले के बजाय किसी तरह अपना समय काटने की व्यवस्था कर रही है। लेकिन फिर यदि अंबेडकर और संविधान पर चर्चा के जरिये पिछले कुछ महीनों से राहुल और पार्टी के दलित बुद्धिजीवी सेल की पहलकदमियों पर गौर करेंगे तो ऐसा जान पड़ता है कि कांग्रेस के भीतर शायद अगले कुछ वर्षों में बड़ा रूपांतरण भी संभव है। 

इससे भी महत्वपूर्ण इस सेमिनार में राहुल गांधी ने शायद पहली बार अनौपचारिक तौर पर कुछ ऐसे विचार सार्वजनिक मंच पर साझा किये हैं, जो आजाद भारत में कांग्रेस पार्टी की अभी तक की लीक से हटकर हैं। इसका दूरगामी असर देश को आने वाले वर्षों में देखने को मिल सकता है। लेकिन यहां पर हम उन कुछ बिन्दुओं पर अपना ध्यान केंद्रित करेंगे, जिसे कांग्रेस नेता ने पहली बार बेहद सहज भाव से कह डाला। 

इसी सेमिनार में राहुल गांधी के लिए इतने बेबाक ढंग से अपने भीतर के मनोभाव को व्यक्त करने की क्यों सूझी, तो इसका जवाब अभी देना संभव नहीं है। इस सेमिनार का संचालन दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर, रतन लाल कर रहे थे। 

दलित समाज के अगुआ अनिल जयहिंद, बुद्धिजीवी जॉन दयाल, दिल्ली सरकार में पूर्व मंत्री राजेंद्र पाल गौतम, रमजान चौधरी, प्रोफेसर एन सुकुमार और सीएस भंडारी और दिल्ली-एनसीआर के सैकड़ों दलित कार्यकर्ताओं की उपस्थिति भी इस बात का अहसास दिलाती दिखी कि दलित समाज के भीतर बढ़ती बैचेनी अपने लिए एक नई राह तलाश रही है। 

पिछले एक वर्ष से राहुल गांधी ने जातिगत जनगणना के साथ-साथ देश की राजनीतिक-आर्थिक सत्ता में बहुजनों की हिस्सेदारी के सवाल को पुरजोर तरीके से आगे बढ़ाने का काम किया है। शुरू-शुरू में अधिकांश लोगों को यही लगा कि लगातार दो लोकसभा चुनावों में भारी पराजय से निराश कांग्रेस नेतृत्व ने अब अपने रेडार पर अपने पुराने वोट बेस को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए चुनावी मुद्दा बनाया है। 

लेकिन पिछले एक वर्ष से लगभग एक ही तरह के भाषण को जिस प्रकार से राहुल गांधी दोहराते जा रहे हैं, उससे अब धीरे-धीरे बहुजन समाज के बीच उनके कहे पर यकीन बढ़ता जा रहा है। कल के अपने भाषण में राहुल गांधी ने ऐसी कई बातें की हैं, जो इससे पहले इतनी स्पष्टता से कांग्रेस नेतृत्व ने नहीं कही थी।  

जैसे, राहुल का कहना था कि 1947 में भारत को आजादी मिलने के बाद कांग्रेस और अंबेडकर के संविधान के चलते दलितों, आदिवासियों को प्रतिनिधित्व का पहली बार अधिकार हासिल हुआ। लेकिन इसी के साथ राहुल ने पहली बार स्वीकार किया कि पिछले 10-15 वर्षों से कांग्रेस को जो करना था, वह उसने नहीं किया। 90 के दशक से इसमें कमी आती चली गई, इस तथ्य को कांग्रेस को स्वीकार करना पड़ेगा।  

इसी के साथ राहुल ने क्यूबा के क्रन्तिकारी फिदेल कास्त्रो और न्यूयॉर्क टाइम्स के पत्रकार के बीच के रोचक किस्से को सुनाते हुए अपनी फिलासफी को स्पष्ट किया। राहुल ने बताया कि न्यूयॉर्क टाइम्स के पत्रकार ने फिदेल कास्त्रो से जानना चाहा कि वे जंगल में रहकर अपने संगठन को कैसे लड़ाई के गुर सिखाते हैं? कास्त्रो ने इसके जवाब में बताया कि मैं नहीं तानाशाह बटिस्टा शासन उन्हें यह सब सिखाती है। पत्रकार चौंका कि वो कैसे? कास्त्रो ने बताया कि मैं उन्हें बटिस्टा सरकार से लड़ने के लिए भेज देता हूं। उनमें से आधे मारे जाते हैं और बाकी पलायन कर जाते हैं। उनमें से जो बच जाते हैं, वे ही मेरी मैनेजमेंट टीम संभाल रहे हैं। 

इस उदाहरण को देकर राहुल गांधी बताते हैं कि, “यहां पर भी वही हो रहा है। मोदी जी की ईडी, सीबीआई के डर से आधे भाग जाते हैं। मैं कहता हूं भागो भाई, मुझे नहीं चाहिए। जाकर अपना महल बचाओ, जान बचाओ। मुझे तो अपनी मैनेजमेंट चाहिए।”

इसके बाद राहुल कहते हैं, “मैं यह किस्सा जब कांग्रेस के नेताओं को कहता हूं तो उनको ये बात अच्छी नहीं लगती। मैं कहता हूं कि हम कांग्रेस की सफाई नहीं करते, वो तो मोदी जी यह काम कर रहे हैं। हमारा काम तो यह है कि जब लोग उस ओर दौड़ रहे हैं, तो जो सच्चे मैनेजर हैं उनके लिए अपने दरवाजे खोल उनका स्वागत करना है।”

यह बात राहुल कांग्रेस कार्यकारिणी में नहीं बल्कि बहुजन समाज के बुद्धिजीवी वर्ग के सामने एक सभागार में कर रहे हैं। यह साफ़ बताता है कि राहुल गांधी की नई कांग्रेस में बहुजन समाज के अगुआ लोगों को बहुतायत में स्थान मिलने जा रहा है।  

इससे भी बड़ी बात, राहुल का मानना है कि नेहरु, अंबेडकर, इंदिरा और कांशीराम के प्रयासों से बहुजन समाज के बड़े हिस्से को प्रतिनिधित्व का मौका मिला। लेकिन राहुल प्रतिनिधित्व से आगे बढ़कर पॉवर में हिस्सेदारी की बात कहते हैं, जो यकीनन उनकी सोच को गुणात्मक रूप से एक अलग मुकाम पर ले जाता है।  

बहुजन समाज से जुड़ा अंबेडकरवादी, सामाजिक कार्यकर्ता और संगठित क्षेत्र में काम करने वाले लाखों लोग इस नई भाषा और तेवर से भलीभांति परिचित हैं। असल में यह उनकी ही मांग है, जिसे राहुल बड़ा मंच मुहैया करा रहे हैं।  

कांशीराम की बहुजन राजनीति भी बामसेफ के मॉडल से परवान चढ़ी थी, जिसमें अपने समाज के प्रतिनिधित्व और सत्ता में हिस्सेदारी की आकांक्षा ने ठोस आकार लेना शुरू कर दिया था। उत्तर प्रदेश में मायावती को इसका लाभ भी मिला, लेकिन मंडल बनाम कमंडल की लड़ाई में देश में मंडल के सहारे सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ने वाले कई क्षेत्रीय दल उभर आये।

ये दल राजनीतिक प्रतिनिधित्व के नाम पर अपने परिवार को आगे बढ़ाने तक सीमित रह अब अपने अर्थ को खो चुके हैं। दूसरी तरफ, कमंडल की राजनीति को सिरे चढ़ाकर आरएसएस/बीजेपी पिछड़े और दलित समाज में सोशल इंजीनियरिंग कर उनके आधार को बड़े हद तक अपने भीतर समा चुकी है।  

इस बात में कोई शक नहीं कि राहुल गांधी को यह समझ कांग्रेस को मिलने वाली लगातार असफलता के चलते उपजी है।  कन्याकुमारी से कश्मीर की पैदल यात्रा के दौरान उन्हें पहली बार देश के बहुसंख्यक समाज की दशा-दिशा को गहराई से समझने का अवसर मिला, और वह साझा बिंदु भी जो कांग्रेस और बहुजन समाज के एकजुट हो जाने से दोनों के लिए विन-विन फार्मूला हो सकता है। यही वह धुरी है जो बीजेपी/आरएसएस की वैचारिकी और उसके मनुवादी चेहरे को बेनकाब भी करने में कारगर साबित हो सकता है।  

इससे यह भी पता चलता है कि भले ही कांग्रेस को हाल के विधानसभा चुनावों में मुंह की खानी पड़ी हो, या दिल्ली विधानसभा चुनाव में भी उसे राज्य में तीसरे स्थान पर रहकर 6-10% वोट ही प्राप्त हों, लेकिन दलित और मुस्लिम अल्पसंख्यक समाज के प्रबुद्ध वर्ग के बीच उनके मूलभूत मुद्दों पर ईमानदारी के साथ विचार-मंथन आने वाले समय में पार्टी के लिए मजबूत आधार स्तंभ का काम अवश्य करने जा रहा है।  

यदि कांग्रेस इन दो तबकों को मजबूती से अपने साथ जोड़ने में सफल रहती है तो कोई संदेह नहीं कि भाजपा ही नहीं देश में मौजूद दर्जनों क्षेत्रीय दलों के लिए भी अस्तित्व का संकट खड़ा हो सकता है। शायद यही वजह है कि इंडिया गठबंधन के भीतर के कई दल भले ही वर्तमान में भाजपा सरकार के खिलाफ इंडिया गठबंधन के झंडे तले एकजुट हो गई हैं, लेकिन वे कांग्रेस को भी नई वैचारिकी के साथ मजबूत होते नहीं देखना चाहती हैं।  

(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं)

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