आरबीआई ने कल, 3 अक्टूबर को कृषि क्षेत्र में विभिन्न खाद्य वस्तुओं पर विस्तृत वर्किंग पेपर्स जारी कर भारतीय कृषि से जुड़े कई अहम प्रश्नों पर प्रकाश डाला है।
कुल चार वर्किंग पेपर्स के माध्यम से भारत में खाद्य पदार्थों में बढ़ती महंगाई को समझने का प्रयास किया गया है। उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) में खाद्य वस्तुओं का महत्व आज भी भारत की 90% आबादी के लिए सबसे प्रमुख बना हुआ है,
ऐसे में आरबीआई के वर्किंग पेपर्स पर भारत सरकार या नीति आयोग क्या ठोस कदम उठाता है, यह देखना महत्वपूर्ण होगा।
सब्जियों में मुद्रास्फीति का आकलन करने के लिए आरबीआई की ओर से एक अलग टीम ने टमाटर, प्याज और आलू पर जानकारी जुटाई है।
इसी प्रकार, दाल में चना, मूंग और तुअर पर दूसरी टीम, फलों में अंगूर, केला और आम के लिए तीसरा वर्किंग पेपर और पशुधन एवं पोल्ट्री में मुद्रास्फीति की जानकारी हासिल करने के लिए दूध, पोल्ट्री मीट और अंडे पर जानकारी जुटाई गई है। यह अपने आप में एक विशद अध्ययन है, जिसे एक बारगी समेटना संभव नहीं है।
लेकिन, अपने अध्ययन में आरबीआई की टीम ने देशभर के विभिन्न राज्यों के आंकड़ों को जुटाकर कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों पर रौशनी डाली है, जो देश के नीति-नियंताओं को यदि दिखाई दे और उनपर अमल हो सके।
तो देश के किसानों, जो आबादी के 55% हिस्से का प्रतिनिधित्व करते हैं, के अलावा शहरी गरीब एवं मध्य वर्गीय आबादी, दोनों के लिए बहुत बड़ी राहत और खाद्यान्न उत्पादन करने वाली आबादी के हाथों में पर्याप्त धन और देश की अर्थव्यवस्था को गति देने के काम आ सकती है।
इस रिपोर्ट का अध्ययन करने से पता चलता है कि आम उपभोक्ता किसी भी खाद्य वस्तु के लिए जो मूल्य चुकता करते हैं, उसका अधिकांश हिस्सा या तो बिचौलिए या खुदरा व्यापारियों की जेब में चला जा रहा है।
उदहारण के लिए, केले की खेती में किसानों को खुदरा मूल्य का मात्र 31% हिस्से से संतोष करना पड़ता है। अंगूर की उपज में किसानों का हिस्सा 35% जबकि आम में औसतन 43% ही मिल पाता है। सब्जियों की उपज में भी दयनीय स्थिति बनी हुई है। टमाटर पर 33%, प्याज पर 36% और आलू पर खुदरा मूल्य का मात्र 37% हिस्सा ही फसल उगाने वाले को प्राप्त हो पाता है।
इन रिपोर्टों के मुताबिक, फल-सब्जी की तुलना में दूध, अंडे और दलहन में किसानों को उत्पादन में बेहतर हिस्सेदारी प्राप्त होती है।
दलहन में चने की खेती में 75%, मूंग में 70% तो तुअर दाल में 65% मूल्य प्राप्त हो पाता है। इसी तरह, दूध में 70%, अंडे में 75% और दुग्ध एवं पशुधन के मामले में कुल खुदरा मूल्य में किसानों की हिस्सेदारी कुलमिलाकर 56% पाई गई है।
फल और सब्जियों की मियाद जल्द खत्म होने की वजह से इसके उत्पादकों के लिए औने-पौने दामों में अपनी फसल को बेचना हर बार एक मजबूरी बन जाती है।
किसानों के द्वारा कृषि भूमि में खेती करने के लिए उपजाऊ भूमि के अलावा, महंगे बीज, जुताई, निराई, फसल के लिए जलापूर्ति की व्यवस्था, खाद और कीटनाशक दवाओं के साथ-साथ गुड़ाई और फसलों को काटने के बाद छंटाई और मंडी तक ले जाने का प्रबंध करना पड़ता है।
आरबीआई की रिपोर्ट में बताया गया है कि टमाटर की खेती मुख्यतया छोटे किसानों के द्वारा की जाती है, जिसका रकबा देश के लगभग अधिकांश राज्यों में फैला हुआ है।
अधिकांश उत्पदान पश्चिम और दक्षिण के राज्यों से आता है। कुछ स्थानों पर सालभर टमाटर की खेती की जाती है। उदाहरण के लिए, आंध्र प्रदेश के चित्तूर, अनंतपुर में किसान सालभर टमाटर की खेती करते हैं, जो दिल्ली, महाराष्ट्र सहित दक्षिण के राज्यों में बिकने के लिए भेजा जाता है।
इसी प्रकार, मध्य प्रदेश के शिवपुरी में टमाटर की खेती बड़े पैमाने पर की जाती है, और इसका उत्पाद अक्टूबर से मार्च के बीच तैयार होता है, जिसे दिल्ली, महाराष्ट्र के अलावा मध्य भारत में बिक्री के लिए भेजा जाता है।
इसके अलावा, महराष्ट्र के नासिक, गुजरात के साबरकांठा, आनंद और खेड़ा, कर्नाटक में कोलार, चिक्बल्लापुर और ओड़िसा के मयूरभंज और क्योंझर में टमाटर की खेती बड़े पैमाने पर की जाती है।
लेकिन खेती से लेकर फसल को मंडी तक लाने के बावजूद किसान को खुदरा मूल्य का मात्र 33.5 फीसदी हिस्से से ही संतोष करना पड़ता है।
टमाटर के वैल्यू चैन में किसानों के अलावा मंडी में थोक विक्रेता का हिस्सा 21.3% होता है, जिसमें परिवहन लागत, मंडी शुल्क, कमीशन, ढुलाई और लोडिंग सहित मार्जिन जुड़ा होता है।
व्यापारियों का औसत मार्जिन 5.3% माना जाता है। इसके बाद नंबर आता है छोटे थोक व्यापारियों का, जो विभिन्न शहरों या बस्तियों में अपना व्यापार करते हैं। इनका मार्जिन भी औसतन 16.1% बैठता है।
लेकिन रिपोर्ट के मुताबिक, इसमें सबसे बड़ा हिस्सा रिटेलर्स/खुदरा व्यवसायी कमाते हैं। वे औसतन 29.1% वैल्यू चैन में हिस्सेदारी रखते हैं। इसकी एक वजह यह भी है कि उन्हें किराये की दुकान का खर्च वहन करने के अलावा जल्द सड़/गल जाने की वजह से सारे नुकसान को वहन भी करना पड़ता है।
इस प्रकार किसान के खेत से जो टमाटर यदि 20 रूपये किलो निकलता है, वह उपभोक्ताओं के किचन में पहुंचने तक 60 रूपये प्रति किलो हो जाता है।
इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि जब दिल्ली के मोहल्लों में टमाटर 20-30 रूपये किलो खुलेआम बिकता है, तब उस दौरान उत्तर भारत ही नहीं आंध्र और तेलंगाना के किसानों को अपनी लागत से भी निचले दर पर अपनी फसल बेचने के लिए मजबूर होना पड़ता है।
आरबीआई की रिपोर्ट में कुछ इसी प्रकार का हाल प्याज की खेती में भी दिखाया गया है। प्याज के वैल्यू चैन में किसान को 36.2% मूल्य ही मिल पाता है, और यदि उसे मंडी से प्रति कुंतल प्याज का भाव 1,089 रुपये प्राप्त होता है तो समझिये, इसका खुदरा बाजार भाव कम से कम 3,009 रुपये प्रति कुंतल होगा।
आलू के मामले में यह तिगुने दाम से थोड़ा सा ही कम देखने को मिला है।
बहरहाल, आरबीआई की इस विस्तृत रिपोर्ट से यह बात तो पता चलती है कि सरकार और उसकी एजेंसियों को जमीनी हालात का पता है, और वे जानते हैं कि महंगाई शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में उत्पादकता के लिए घातक है।
लेकिन कृषि पर निर्भर 55% आबादी को भाव में मंदी से कैसे महफूज रखा जाये, उसके बारे में अभी तक कोई ठोस उपाय या नीतियां सामने नहीं आ पाई हैं। प्याज की कीमतों में वृद्धि और उत्पादन में कमी को मद्देनजर रखते हुए अक्सर हम पाते हैं कि सरकार प्याज के निर्यात पर प्रतिबंध और आयात का तत्काल बंदोबस्त तो कर देती है।
इसे दलहन और तिलहन के मामले में भी देखा जा सकता है। लेकिन, फसल के अति-उत्पादन के वक्त देश के विभिन्न हिस्सों में किसानों को टमाटर, प्याज, आलू, कपास और हाल ही में सोयाबीन की खड़ी फसल को किसानों के द्वारा ट्रेक्टर से जोतते देश देख चुका है।
इस बारे में आरबीआई के विशेषज्ञों की सिफारिशों में कुछ खास नहीं कहा गया है। इसी प्रकार, खाद्य वस्तुओं में तेज महंगाई के वक्त बड़े कारोबारियों द्वारा मुनाफाखोरी के लिए अपने कोल्डस्टोरेज और वेयरहाउस में डाल दिया जाता है और बड़े पैमाने पर खाद्य वस्तुओं की कीमतों में कृत्रिम बढ़ोत्तरी कर 200-300% मुनाफा एक-दो महीने के भीतर कमाया जाता है।
इन मुनाफाखोरों पर नकेल कसने के लिए केंद्र सरकार की ओर से जुबानी जमाखर्च के अलावा कोई कदम नहीं उठाया जाता।
इस सबके बावजूद, आरबीआई की विस्तृत रिपोर्ट खेती-किसानी, मुनाफाखोरी सहित वैल्यू चैन और सप्लाई चैन से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर ध्यान आकृष्ट करती है।
मुद्रास्फीति से निपटने और व्यापक आबादी को बेहतर जीवन यापन को सुनिश्चित बनाने के लिए, खाद्यान्न में वैल्यू चैन में किसानों को खुदरा मूल्य में अधिकतम हिस्सेदारी मुहैया कराने के लिए, सरकार को सप्लाई चैन को बेहतर बनाने के साथ-साथ स्थानीय स्तर पर सहकारी कोल्ड स्टोरेज की दिशा में बड़ा कदम उठाने की जरूरत है, न कि बड़े कॉर्पोरेट घराने इस काम को भी अपने हाथ में लेकर जल्द ही सभी वर्गों को अपना गुलाम बना दें।
(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं)
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