आरबीआई ने नोटबंदी पर केंद्र सरकार के फैसले के आगे घुटने टेक दिए: पी चिंदबरम

सुप्रीम कोर्ट में नोटबंदी पर दायर याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान, याचिकाकर्ता का पक्ष रखते हुए  सुप्रीम के वरिष्ठ एडवोकेट और पूर्व केंद्रीय मंत्री पी चिदंबरम ने शीर्ष अदालत में कहा कि “भारतीय रिजर्व बैंक, RBI ने 2016 के विमुद्रीकरण अभियान से, अपनी सहमति देकर, केंद्र सरकार के सामने, अपनी स्वायत्तता तथा संवैधानिक हैसियत का, ‘विनम्रता से आत्मसमर्पण’ कर दिया।”
लीगल वेबसाइट, बार एंड बेंच और लाइव लॉ की अदालती रिपोर्ट के अनुसार, पी चिदंबरम ने, कहा कि “केंद्र सरकार को उन दस्तावेजों का खुलासा करना चाहिए जिनसे पता चले कि, 2016 में नोटबंदी को कैसे, सरकार ने मंजूरी दी थी, ताकि शीर्ष अदालत इस कदम की कानूनी वैधता तय कर सके।”
चिदंबरम का यह तर्क, विवेक नारायण शर्मा बनाम भारत संघ और अन्य, की याचिका पर दिया गया है। पांच सदस्यीय संविधान पीठ के जज, जस्टिस एस अब्दुल नज़ीर, बीआर गवई, एएस बोपन्ना, वी रामासुब्रमण्यम और बीवी नागरत्ना, इस मुकदमे की सुनवाई कर रहे हैं।

यदि केवल आरबीआई का केंद्रीय बोर्ड  विमुद्रीकरण का प्रस्ताव, सरकार से सीधे करता है तो, केंद्र सरकार उस पर, विचारोपरांत कार्रवाई कर सकती थी। लेकिन, इस मामले में, “यहां, आरबीआई ने केवल एक घंटे के विचार-विमर्श के बाद नम्रतापूर्वक आत्मसमर्पण कर दिया।”
यहां यह सवाल उठता है कि, क्या आरबीआई ने सीधे, सरकार के, नोटबंदी के प्रस्ताव पर, बिना अपने मस्तिष्क का प्रयोग किए ही, नोटबंदी के निर्णय पर, जिसे करने का, सरकार पहले ही मन बना चुकी थी, हामी भर दी? आरबीआई, एक स्वायत्त संस्था है। देश की कुल मुद्रा का 86% मुद्रा चलन से बाहर किए जाने के प्रस्ताव पर, मात्र एक घंटे में, अपनी सहमति दे देना, न केवल आरबीआई की स्वायत्तता पर सवाल उठाता है, बल्कि यह आरबीआई के तत्कालीन गवर्नर के प्रोफेशनल योग्यता पर भी एक प्रश्नचिह्न है।

बहस जारी रखते हुए, पी चिदंबरम ने कहा कि, “केंद्र सरकार ने खुद नोटबंदी पर आगे बढ़ने से पहले इसकी गंभीरता पर विचार नहीं किया था।”
सरकार में कोई भी विचार विमर्श हवा में या जुबानी नहीं होता है। रूल ऑफ बिजनेस में, हर विचार विमर्श में जो भी भाग लेता है, उसके विचार, प्रस्ताव और दृष्टिकोण के मिनट्स बनते हैं। इस पर सभी, जो उस विचार विमर्श में भाग लेते हैं, के नाम, और इस बात का संक्षिप्त विवरण रहता है कि, उन्होंने क्या-क्या कहा है। अदालत में इन ब्यौरों को भी तलब किया गया है, पर वह ब्योरा अदालत में रखा नहीं गया।
उसका उल्लेख करते हुए, पी चिदंबरम आगे कहते हैं, “वे (सरकार) मिनट्स (विचार विमर्श का ब्योरा) वापस क्यों रोक रहे हैं? इस मुद्दे को तय करने के लिए ये दस्तावेज (मीटिंग के मिनट्स) नितांत आवश्यक हैं। हमें पता होना चाहिए कि, उनके पास क्या सामग्री (नोटबंदी करने का आधार) थी, और उन्होंने उस पर, क्या विचार किया। हम, नोटबंदी के फैसले पर कोई विचार नहीं कर रहे हैं, लेकिन निर्णय लेने की प्रक्रिया (प्रोसीजर) पर विचार कर रहे हैं। उन्हें यह (मिनिट्स) दिखाने की जरूरत है कि क्या उन्होंने अपने फैसले की व्यापकता और आनुपातिकता पर विचार किया था या नहीं? इसके (मीटिंग की मिनिट्स के) बिना यह,(सरकार का निर्णय), अंधा होकर अंधे का नेतृत्व करना है।”

यहां व्यापकता का आशय, इस फैसले का जनता पर पड़ने वाले व्यापक प्रभाव और आनुपातिकता का आशय, तार्किकता से है। बार एंड बेंच की रिपोर्ट के अनुसार, शीर्ष अदालत में, विशेष रूप से, इस कदम के कानूनी पक्ष पर, अनेक सवाल उठाए गए हैं। याचिकाकर्ताओं ने निम्नलिखित व्यापक आधार उठाए:
० भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) अधिनियम की धारा 26(2) जो सरकार को किसी विशेष मूल्यवर्ग की सभी श्रृंखलाओं को कानूनी निविदा नहीं घोषित करने की अनुमति देती है, बहुत व्यापक है।
० निर्णय लेने की प्रक्रिया में गहरी खामी थी।
० सिफारिश (आरबीआई की संस्तुति, जिसके बारे में सरकार कहती है कि, उसने आरबीआई की सिफारिश पर यह फैसला किया है) ने प्रासंगिक कारकों पर विचार नहीं किया।
० विमुद्रीकरण के घोषित उद्देश्यों को प्राप्त नहीं किया गया। यहां वही तीन महत्वपूर्ण उद्देश्य, कालाधन की बरामदगी, आतंकी फंडिंग को बाधित करना और नकली मुद्रा के संजाल को तोड़ना है।
० यह कदम आनुपातिकता की कसौटी पर खरा नहीं उतरता है।
सुप्रीम कोर्ट के अधिकार और शक्तियों पर टिप्पणी करते हुए पी चिदम्बरम ने कहा, “न्यायालय के पास इस फैसले के दौरान किए गए आदेशों निर्देशों और अन्य, राहत प्रदान करने की शक्तियां हैं।”

आज की सुनवाई में, आरबीआई की ओर से पेश, वरिष्ठ अधिवक्ता जयदीप गुप्ता ने कहा कि “याचिकाकर्ताओं की यह दलील कि, यह कदम जल्दबाजी में उठाया गया था, केवल विमुद्रीकरण को लागू करने के अंतिम निर्णय पर लागू होगा, न कि इसके पीछे की प्रक्रिया पर।”
सरकार के वकील, जयदीप गुप्ता ने जोर देकर कहा कि “आर्थिक नीति के निर्णय के लिए आनुपातिकता का सिद्धांत ‘पूर्ण विकसित’ तरीके से लागू नहीं होगा।” उन्होंने इस कदम पर किए गए उच्च व्यय के विवाद को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि “यह कानून पर एक तर्क नहीं है।”
आनुपातिकता के तर्क का आशय है, सरकार को इस कदम से आर्थिक हानि, संभावित, लाभ, जो उद्देश्य के रूप में गिनाए गए थे, अधिक हुई। एडवोकेट, जयदीप गुप्त, इसी लाभ हानि की आनुपातिकता पर अपनी बात कर रहे थे।

एक सवाल, उठा था कि,  पुराने नोटों को नए नोटों से बदलने में देरी की गई थी। इस बिंदु पर जयदीप गुप्ता ने कहा, “फिर से मुद्रीकरण की योजना नहीं बनाई जा सकती है, जब तक कि विमुद्रीकरण बहुत पहले बड़े पैमाने पर न हो। अगले दिन सभी नोटों का आदान-प्रदान नहीं किया जा सकता। क्या यह कहा जा सकता है कि 86% नकदी का सफाया करने पर विचार किया जाना चाहिए? मैं सम्मानपूर्वक प्रस्तुत करता हूं कि ये प्रश्न होने चाहिए  में नहीं जाना चाहिए।”
सरकार के पास इस बात का जवाब है ही नहीं कि क्या उसने इस बात का आकलन किया था कि, जब 86% मुद्रा केवल चार घंटे, (8 नवंबर 2016 की रात 8 बजे, प्रधानमंत्री का संदेश, ‘आज रात बारह बजे से ₹1000 और ₹500 के नोट, लीगल टेंडर नहीं रहेंगे’ याद कीजिए) की नोटिस पर, चलन से बाहर हो जायेंगे और, उन नोटों को बदलने के लिए उचित मात्रा में वैकल्पिक मुद्रा नहीं रहेगी तो, जो अफरातफरी मचेगी, उसका समाधान, सरकार के पास क्या होगा। अफरातफरी मची भी और इस अफरातफरी में लगभग 150 लोग मर गए, और अन्य आर्थिक नुकसान जो हुआ, वह तो अलग है ही। सरकार के एडवोकेट, इसी सवाल से बचने की कोशिश करते नजर आए।

अदालत में, केंद्र सरकार की ओर से अटार्नी जनरल, आर वेंकटरमणि ने कहा कि “जिस तरह देश नियंत्रित अर्थव्यवस्था से बाजार संचालित अर्थव्यवस्था में परिवर्तित हुआ, उसी तरह नोटबंदी एक ढांचे से दूसरे ढांचे में जाने के लिए की गई थी।”
यहां अटॉर्नी जनरल यह बात नजरंदाज कर गए कि, नियंत्रित अर्थव्यवस्था से बाजार आधारित अर्थव्यवस्था में संक्रमण चार घंटे में नहीं हुआ था। यह संक्रमण 1991 के बाद जब पीवी नरसिंहराव प्रधानमंत्री और डॉ मनमोहन सिंह, वित्त मंत्री थे तो हर साल, बजट दर बजट हुआ और उसका लाभ भी देश को मिला। जबकि नोटबंदी से ऐसा नहीं हुआ।
एजी ने आगे कहा कि, “इसके नोटबंदी के निर्णय के पीछे की मंशा पर सवाल उठाने से नीति का सार कमजोर हो जाएगा।”

सुनवाई के दौरान जस्टिस, नागरत्न ने याचिकाकर्ताओं के वकील से पूछा, “विद्वान एजी ने प्रस्तुत किया कि, केंद्र सरकार इसे एक मायोपिक (निकट दृष्टि) तरीके से नहीं देख सकती है। चूंकि केंद्र को राष्ट्रीय सुरक्षा को देखना है, काले धन की अर्थव्यवस्था से छुटकारा पाना है, तो क्या वे विमुद्रीकरण प्रक्रिया शुरू नहीं कर सकते?”
राष्ट्रीय सुरक्षा का बिंदु सर्वोपरि है। साथ ही कालाधन भी एक बड़ी समस्या है। पर आज तक सरकार, इस बिंदु पर कोई आंकड़ा नहीं दे पाई कि, कितना कालाधन, पकड़ा गया, काला धन, उपजे ही नहीं, इसके लिए क्या किया गया। अदालती बहस से अलग हट कर देखें तो, 2016 के बाद होने वाली राजनैतिक गतिविधियों जैसे ऑपरेशन लोटस आदि में जो अकूत धन, राजनीतिक दल द्वारा बहाया जा रहा है, वह सब काला या बिना हिसाब किताब का ही तो धन है।  

इस पर पी चिदंबरम ने जवाब दिया कि, “आरबीआई गवर्नरों ने पहले ही, यह बात स्पष्ट कर दी थी कि, विमुद्रीकरण से उन दो उद्देश्यों को प्राप्त नहीं किया जा सकता है।”
आगे चिदंबरम कहते हैं, “उन्हें (कालाधन आदि को) कानून की पूरी ताकत से, ऐसा करना होगा। हम एक सफेद कमरे में एक काली बिल्ली की तलाश कर रहे हैं, और क्या वह बिल्ली मौजूद है, यह भी, हम नहीं जानते हैं। माई लॉर्डशिप देख सकते हैं, कि, (सरकार के) निर्णय लेने का आधार मनमाना था या नहीं और रहा सवाल, इस बिंदु, काले धन और नकली नोट का तो, वे तो हमेशा बने रहेंगे। विमुद्रीकरण को कभी भी, मौद्रिक नीति का हिस्सा नहीं माना जाता है।”

चिदंबरम ने इस दलील का भी खंडन किया कि “विमुद्रीकरण को संसद द्वारा पारित एक कानून द्वारा मान्य किया गया था।”
उन्होंने कहा कि “केवल आरबीआई अधिनियम के प्रावधानों के अनुपालन में एक कानून पारित किया गया था।”
इस मामले में फैसला कल सुरक्षित रखे जाने की संभावना है। अभी सुनवाई जारी है।

(विजय शंकर सिंह रिटायर्ड आईपीएस अफसर हैं और आजकल कानपुर में रहते हैं।)

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विजय शंकर सिंह
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