Friday, April 19, 2024

आखिर निकल ही गयी गडकरी के मुंह से खेती में कारपोरेट के घुसने के पीछे की असलियत!

आखिरकार केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी के मुंह से सच्चाई निकल ही गयी। उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस को दिए एक इंटरव्यू में कहा कि भारत में एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य बाजार की दर से बेहद अधिक है और यह अंतरराष्ट्रीय कीमतों से भी अधिक है। और ऐसा नहीं चलेगा। इसका सीधा-सीधा मतलब है कि सरकार एमएसपी को खत्म कर देना चाहती है। अब अगर रेट की बात करें तो कृषि विशेषज्ञों तक का कहना है कि देश में सेवा क्षेत्र की नौकरियों में जिस तरह से लोगों की तनख्वाहें बढ़ी हैं अगर उसके मुताबिक अनाजों की कीमतें होतीं तो इस समय किसानों को अपने अनाज की मौजूदा दर से 200 फीसदी ज्यादा कीमत मिलनी चाहिए थी। देश में किसानों की मौजूदा बदहाली के पीछे प्रमुख कारण यही माना जाता है कि समय के हिसाब से उनके अनाजों की दरें नहीं बढ़ीं।

और जो कुछ एमएसपी की दर के बहाने उन्हें मिले उसको हासिल करने वाली तादाद देश की आबादी की महज छह फीसदी है। बिहार, यूपी से लेकर देश के बाकी हिस्सों में मंडी व्यवस्था लागू ही नहीं हो पायी। अब कोई गडकरी से पूछे कि बिहार और यूपी के किसान तो बाजार के दर पर ही अपना गेहूं-धान बेच रहे हैं तो क्या पंजाब के किसानों को भी आप उन्हीं के स्तर पर ले जाकर खड़ा कर देना चाहते हैं? या फिर यह सरकार की जिम्मेदारी है कि वह छह फीसदी से बाहर के बाकी किसानों के लिए भी एमएसपी के दर पर उनके अनाजों की खरीद की गारंटी करे।

गडकरी यहीं नहीं रुकते। वे खेती को कारपोरेट के हवाले करने के पीछे की अपनी पूरी मंशा को भी जाहिर कर देते हैं। उन्होंने उसी साक्षात्कार में चावल से एथनाल बनाने और खेती को बायो फूड के लिए तैयार करने पर जोर दिया है। अब अगर ऐसा हो गया तो फिर किसान अपने मन और जरूरत के मुताबिक अनाजों को पैदा करने की जगह कारपोरेट की जरूरतों के हिसाब से अनाज पैदा करने में जुट जाएंगे। जिसका आखिरी खामियाजा पूरे देश को भुगतना पड़ेगा। इससे अनाज के क्षेत्र में हासिल आत्मनिर्भरता और देश की खाद्य सुरक्षा खतरे में पड़ जाएगी। इसी को आगे बढ़ाते हुए वह कहते हैं कि देश में अनाज रखने के लिए जगह नहीं है इसलिए कारपोरेट को गोदामों के निर्माण के क्षेत्र में आगे आना चाहिए।

जबकि सच्चाई यह है कि एकबारगी अगर एफसीआई से अनाज भंडारण का अधिकार छिन गया तो फिर पूरा पीडीएस सिस्टम प्रभावित हो जाएगा और उसकी आखिरी मार गरीबी की रेखा के नीचे रहने वाली उस आबादी पर पड़ेगी जिसका पेट कोटे की व्यवस्था पर पलता है। और भले ही अभी यह कहा जा रहा हो कि अडानी अपने साइलो में एफसीआई के ही अनाज का भंडारण कर रहे हैं और बदले में उससे किराया हासिल करते हैं। लेकिन यह किसी को नहीं भूलना चाहिए कि इसके जरिये न केवल एफसीआई के अनाज भंडारण की व्यवस्था को कमजोर किया जा रहा है बल्कि आने वाले दिनों में पूरी एफसीआई को खत्म कर अनाज के पूरे भंडारण की व्यवस्था को ही अडानियों के हवाले कर दिया जाएगा। जैसा कि एयरपोर्ट, रेल, बैंक से लेकर तमाम सेक्टरों में किया गया। तब सरकार के पीडीएस का क्या होगा? क्या वह अडानियों के रहमोकरम पर चलेगा?

और जैसा कि गडकरी ने इशारा किया अगर सरकार ने अनाज के बायोफ्यूल इस्तेमाल की मंजूरी दे दी तो फिर अडानी के ये अनाज भंडार गरीबों के पेट पालेंगे या फिर उनका इस्तेमाल बायोफ्यूल के लिए होगा। और इस तरह से वे अडानी के मुनाफे का जरिया बनेंगे। अब अगर कोई यह सोचता हो कि अडानी अनाज का भंडारण करके समाज सेवा करेंगे तो बात अलग है। नहीं तो इसका कोई फायदा मिलने की जगह देश में भुखमरी और अकाल के नये दौर की आशंका जरूर दिखती है।

गडकरी मूलत: कारपोरेट के आदमी हैं। और आदमी क्या वह खुद कारपोरेट हैं। लिहाजा उसके लाभ और उसके पक्ष में गढ़े जाने वाले तर्कों का उन्हें मास्टरमाइंड माना जाता है। उन्होंने साक्षात्कार में कहा कि विदर्भ की ओर से गुजरने पर वहां की जमीनें खाली मिलती हैं। क्योंकि किसानों के पास इतनी पूंजी नहीं है कि वे खेती में लगा सकें। ऐसे में वह कांट्रैक्ट खेती की जरूरत पर बल देते हैं। इसके साथ ही वह कुछ उदाहरण देते हैं जिसमें कुछ देर यात्रा करने के लिए हासिल की गयी कैब के कस्टमर के मालिक न बन पाने का हवाला देते हैं। और रेवेन्यू में हमेशा जमीन का मालिक किसान के बने रहने की ही बात कहते हैं। लेकिन अब असली सवाल यही है कि क्या कारपोरेट महज कस्टमर है। और वह कस्टमर भला क्यों बनेगा जब उसके पास एक नहीं सैकड़ों टैक्सियां खरीदने की क्षमता है। हां यह बात जरूर है कि एक दिन कस्टमर से वह मालिक बन बैठेगा और किसान को उस टैक्सी का ड्राइवर बना देगा। इस बात में कोई शक नहीं कि कुछ दिनों तक कारपोरेट खुद को कमजोर दिखा सकता है। और वह कस्टमर की ही भूमिका में रह सकता है।

लेकिन कांट्रैक्ट खेती की जो शर्तें हैं और उनका जो रूप सामने आया है उसमें यह बात बिल्कुल तय है कि एक दिन किसान के ऊपर कर्जों का बोझ इतना बढ़ जाएगा कि वह अपनी खेती कारपोरेट के हाथों सौंपने के लिए मजबूर हो जाए। और फिर वह कारपोरेट जो किसान की मदद करने गया था खेती का मालिक बन बैठेगा। कारपोरेट की इस पूरी कवायद का यही आखिरी लक्ष्य है। दरअसल मौजूदा दौर में खेती के 25-30 लाख करोड़ का व्यवसाय हो जाने से कारपोरेट की उस पर नजर गड़ गयी है और वह सरकार के साथ मिलकर इस क्षेत्र को भी हथिया लेना चाहता है। और इसीलिए कहा जा रहा है कि तीनों कृषि विधेयक किसानों के लिए नहीं बल्कि कारपोरेट के मुनाफे के लिए बनाए गए हैं। उसमें कृषि, किसान और उसके हितों से कुछ लेना-देना नहीं है।

नोट-पूरा साक्षात्कार यहां पढ़ा जा सकता है:

https://indianexpress.com/article/india/nitin-gadkari-coronavirus-lockdown-farmers-bill-protests-electric-vehicles-tesla-plant-india-7131732/

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