Thursday, April 18, 2024

ग्राम्यजीवन आजकल: आवारा पशुओं की भरमार और भलमनसाहत का अकाल!

हमारे बचपन में साइकिलों को छोड़ दीजिए तो इस गांव में बैलगाड़ियां, इक्के और तांगे ही हुआ करते थे या फिर रिक्शे। टेढ़ी-मेढ़ी और ऊबड़-खाबड़ कच्ची सड़क पर लोग इन्हीं साधनों से जैसे-तैसे आते-जाते। यह जो चमाचम सड़क देख रहे हैं आप, तब कोई इसकी कल्पना तक नहीं करता था। सड़क पर इक्का जा रहा होता तो उसमें जुते घोड़े की टापों से इतनी धूल उड़ती कि पीछे आते लोगों की आंखों में भर जाती।

हम अवध के अम्बेडकरनगर व सुल्तानपुर जिले की सीमा पर स्थित एक गांव में थे और एक पोपले मुंह वाले बुजुर्ग हमें पिछले पचास-साठ सालों में उसमें आये बदलाव की बाबत बता रहे थे, ‘तब फसलों की सिंचाई के लिए भी चर्खी, रहट, तालाब और दोगला वगैरह ही हुआ करते थे, न नहर, न ट्यूबबेल, न पम्पिंग सेट। हां, और फिर भलमनसाहत का ऐसा अकाल भी तो नहीं था। न लोगों में इतना शातिराना था, न सयानापन न चतुराई और न चालाकी। कई बार उनका भोलापन मूर्खताओं को भी मात करता था और घामड़पने की तो क्या बताऊं आपको, मैंने खुद पहली बार शहर तब देखा, जब आठवीं का इम्तिहान देने वहां जाना पड़ा।

पक्की सड़क पर चला तो समझ ही नहीं पाया कि वह सड़क है। साथ चल रहे मास्टर साहब से पूछा कि यह धरती पर इतनी चैड़ी काली-काली रेखा क्यों खींची गई है, तो उन्होंने बताया यह पक्की सड़क है पगले! तारकोल की बनी हुई। लेकिन अब देख ही रहे हैं आप, मेरे गांव तो क्या, घर तक पक्की सड़क है और फसलें सींचने के लिए ट्रैक्टर भी उपलब्ध है, ट्यूबवेल भी, पम्पिंगसेट भी और नहर भी।

‘ग्रामवासिनी भारतमाता’ का सुजलाम्सु-फलाम् जैसा यह अनुभव हमारे निकट बहुत रोमांचकारी और अभिभूत कर देने वाला था। इसलिए सोचने लगा, क्या पता, राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त होते तो ऐसे गांवों को देखकर कितने आह्लादित होते? उनके गौरवगान को ‘अहा, ग्राम्य जीवन भी क्या है, क्यों न इसे सबका मन चाहे!’ से कितना आगे बढ़ाते?

लेकिन हमारी खुशी अल्पकालिक सिद्ध हुई और थोड़ी ही देर में यह सवाल जवाब की मांग करने लगा कि फिर क्यों भाई लोग बारम्बार रोना रोते रहते हैं कि सरकारें तो गांवों के लिए कुछ करतीं ही नहीं?
जवाब तब मिला, जब एक युवक ने ‘आपको पता नहीं शायद’ कहते हुए बताया, ‘जब से यह सड़क बनी है, उन खटारा वाहनों के स्वामियों की पौ-बारह हो गई है, जिन्हें पुराना और प्रदूषणकारी मानकर शहरों की सड़कों पर चलने से रोक दिया गया है। यहां वे पर्यावरण को कितना भी प्रदूषित करें और ग्रामीणों की जानें जोखिम में डालकर उनको कितना भी भूसे की तरह भरें, कोई देखने या रोकने-टोकने वाला नहीं है।’

यह सरकारी सौतेलापन हमें सपनों के आसमान से सच्चाई की कठोर जमीन पर उतार लाया। लेकिन वह इतना-सा ही नहीं था, यह हमने एक खटारा वाहन में यात्रा करने के बाद ही जाना, जिसमें हमें एक ऐसे सज्जन मिले, जो कई दशकों बाद ‘अपने गांव’ आये थे। वे बचपन में रोजी-रोटी के चक्कर में उसे जिस हाल में छोड़कर विदेश चले गये थे, वैसा ही देखना चाहते थे। उसकी प्राकृतिक सुषमा, हरियाली, फलों से लदे पेड़, पगडंडियां, छप्पर, भिटहुर, बुर्जियां, दुआर-मोहार, दालान, पनघट, कोल्हार और चौपाल वगैरह-वगैरह।

सोचा था उन्होंने कि इतने दशकों बाद पहुंचेंगे तो क्या अपने और क्या बेगाने, कोई गुड़-गोरस के साथ हाजिर होगा, कोई चने-चबैने के साथ। कोई घर की चक्की में पिसे गेंहू के आटे की चूल्हे पर सिंकी रोटी और देगची में पकी सोंधी-सोंधी दाल खिलायेगा तो घी व मक्खन के साथ लौकी सेम या तोरई की सब्जी भी और हां, पानी तो गगरी का ही पिलायेगा। कौन जाने, कोई किसी दोपहर सांवा के भात, चने के ओरहे या जो और चने-मटर के सत्तू के लिए भी पूछ ले। भाई-बंधु इकट्ठा हों और बात चले तो सुर्ती-चिलम, फगुआ, चैती, कजरी व सोहर आदि से होती हुई कोर्ट-कचहरी, गौना-ब्याह और चुनाव तक जाकर भी खत्म न हो।

लेकिन दो दिन में ही उन्होंने पाया कि गांव इन सबके साथ अपनी जिन्दगी का वह इत्मीनान भी गंवा चुका है, जो कभी उसकी पहचान हुआ करता था। और बदले में उसने जो कुछ नया पाया है, वह शहरों का उच्छिष्ट भर है, जो न उसे गांव रहने दे रहा है, न शहर बनने का सामर्थ्य दे रहा है। इन सज्जन ने जो कुछ बताया, उसे उन्हीं ही जबानी पढ़ लीजिये:

“मेन रोड से गांव आने के लिए एक वाहन पर बैठा तो गांव के कई युवक ‘चाचा-चाचा’ कहते अगल-बगल आ बैठे। मेरे विदेश जाने के बाद की पैदाइश थे, इसलिए मैंने उन्हें पहचाना नहीं। लेकिन गांव में उतरा तो सोचा कि उनका किराया भी मैं ही चुका दूं। चाचा होने के हक से। लेकिन जैसे ही मैंने ड्राइवर की ओर एक नोट बढ़ाकर सबका किराया काट लेने को कहा, एक युवक ने उसको भद्दी-सी गाली देकर एक जन्नाटेदार थप्पड़ जड़ दिया और कहा, हमारे चाचा से पैसे लेगा? तेरी यह मजाल।

मैं अकचकाकर संभला तो उसकी इस बदतमीजी के जवाब में हर हाल में किराये की अदायगी पर अड़ गया। लेकिन सब बेकार। ड्राइवर की किराया लेने की हिम्मत नहीं हुई। कहने लगा, ‘आप तो आज आये हैं, कल चले जायेंगे। मुझे तो रोज आना-जाना है। जल में रहकर मगर से बैर नहीं कर सकता।”
यह सब बताते हुए सज्जन इस ग्लानि से भर गये थे कि चाचा कहने वाले भतीजों ने उनका इतना भी लिहाज नहीं किया कि उनके सामने गुंडई न करते। उनकी ग्लानि ने हमारा मन भी खट्टा कर डाला था।

इसलिए हम लौटकर फिर से उन्हीं बुजर्ग के पास गये, जिनका शुरू में जिक्र कर आये हैं। हमने लक्ष्य किया था कि अपने घर तक पक्की सड़क बन जाने की बात बताते हुए उनकी आंखों में एक खास चमक आ गई थी। उन्हें सज्जन के साथ हुआ हादसा बताया तो उन्होंने अपने वक्त का एक वाकया सुनाया:

“सुल्तानपुर जिले में कुड़वार बाजार के पास के हरखपुर नामक गांव का। यह गांव उर्दू के नामचीन शायर मरहूम अजमल सुल्तानपुरी की जन्मभूमि है। 1923 में इसी गांव के एक साधारण से परिवार में जन्म लेकर वे गंगा-जमुनी तहजीब और देशप्रेम के अलबेले शायर बने और भरपूर नाम कमाया। 29 जनवरी, 2020 को 97 साल की उम्र में दुनिया को अलविदा कहने तक अपनी बदहाली के साथ समय व समाज की विसंगतियों से भी लड़ते रहे। दुनिया भर के मुशायरों में गये, लेकिन पाकिस्तान से आया न्यौता यह कहकर ठुकरा दिया कि वे उसके हिन्दुस्तान से अलग होने के लिए उसको माफ नहीं कर सकते।

आपको यक़ीन नहीं होगा, उन्होंने इसी तरह अपने गांव को भी माफ नहीं किया। कारण यह कि 1967 में वे उसमें व्याप्त सामाजिक भेदभाव के खिलाफ मुखर हुए तो कुछ स्वार्थी सामंतों ने उन पर हमलाकर उन्हें अधमरा कर डाला और ग्रामीण भीगी बिल्ली बने रहे। यह कायरता उनसे बर्दाश्त नहीं हुई और उन्होंने उनके बीच रहने से तौबा कर ली। हिजरत कर सुल्तानपुर चले गये और कभी लौटकर हरखपुर की धरती पर पांव नहीं रखा।

फिर भी अपने गांव और देश दोनों को शिद्दत से याद करते रहे- वो मेरा बचपन, वो स्कूल/ वो कच्ची सड़कें, उड़ती धूल/ लहकते बाग, महकते फूल/ वो मेरे खेत, मेरा खलिहान/ मैं उसको ढूढ़ रहा हूं।…मेरे बचपन का हिन्दुस्तान/ न बंगलादेश, न पाकिस्तान/ मेरी आशा, मेरा अरमान/ वो पूरा-पूरा हिन्दुस्तान/ मैं उसको ढ़ूढ़ रहा हूं।”

वापसी में हम फिर वाहन पर बैठे तो हमारे एक साथी ने यू-ट्यूब पर अजमल सुल्तानपुरी के इसी गीत का वीडियो ऑन कर दिया। इस पर एक युवा सहयात्री ने छूटते ही कहा, ‘एक बिना मांगी मगर नेक सलाह देता हूं। यहां जो कुछ भी ढूंढ़िये, जरा संभलकर ढूंढिये। आजकल गांवों में विकास तो बुरी तरह पगलाया हुआ है ही, यहां आवारा पशु अजनबियों को देखते ही भड़क उठते हैं। कई बार जान तक ले लेते हैं और कोई बचाने नहीं निकलता।’

हम थोडी देर को चुप रह गये, फिर दिवंगत सुमित्रानन्दन पंत द्वारा गुलामी के दौर में, दिसम्बर, 1939 में, लिखी ये पंक्तियां याद करने लगे- यह भारत का ग्राम, सभ्यता संस्कृति से निर्वासित, यह तो मानव लोक नहीं रे, यह है नरक अपरिचित। फिर जैसे खुद से ही पूछा- तेजी से अपना पुराना स्वरूप खो रहे गांव कभी सभ्यता-संस्कृति से निर्वासन की अपनी नियति को बदल पायेंगे या नहीं?

(कृष्ण प्रताप सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और अयोध्या में रहते हैं)

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