Saturday, April 20, 2024

सबरीमाला प्रकरण: मामले को सुप्रीम कोर्ट की बड़ी बेंच को सौंपना क्या प्रतिगामी शक्तियों को प्रश्रय देना नहीं है?

आज विशाल लोकतांत्रिक देश के संविधान की सबसे बड़ी रक्षक संस्था माननीय उच्चतम न्यायालय ने एक बड़ा फैसला सुनाया। माननीय सुप्रीमकोर्ट ने सबरीमाला मन्दिर में सभी आयु वर्ग की महिलाओं के प्रवेश के मुद्दे को लेकर दाखिल की गई पुनर्विचार याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए इसे 7 जजों की संविधान पीठ के पास भेज दिया है। मीडिया की खबरों के अनुसार यह फैसला 3-2 के बहुमत से हुआ। अब इस याचिका पर सुप्रीम कोर्ट की 7 जजों की बड़ी बेंच सुनवाई करेगी। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि फैसले सभी के लिए बाध्यकारी हैं और 2018 का फैसला बरकरार रहेगा।

सुप्रीमकोर्ट के इस फैसले के साथ ही एक बार फिर पुरातन धार्मिक प्रथाओं के नाम पर हो रहे नारी स्वतंत्रता के मूल अधिकार की बहस उठनी स्वभाविक हो चली है।

याद कीजिए वर्ष- 2018 में सबरीमाला मन्दिर मुद्दे पर पाँच सदस्यों की टीम ने (चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा सहित) मन्दिर में महिलाओं के प्रवेश का रास्ता साफ किया था। उस समय सत्ताधारी दल के एक कद्दावर व्यक्ति ने केरल के कन्नूर में कहा कि बीजेपी पार्टी भगवान अयप्पा के भक्तों के साथ चट्टान की तरह खड़ी है। राज्य की वाम सरकार भगवान अयप्पा के भक्तों का दमन कर रही है। इतना ही नहीं उन्होंने सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश से जुड़े सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर सवाल उठाते हुए कहा कि सुप्रीमकोर्ट को वही फैसले सुनाने चाहिए, जिनका पालन हो सके। उन्होंने कहा- ‘सरकार और कोर्ट को आस्था से जुड़े मामलों में फैसले सुनाने से बचना चाहिए। ऐसे आदेश नहीं देने चाहिए जो लोगों की आस्था का सम्मान नहीं कर सकें।’

ये देश के सर्वोच्च अदालत की अवमानना ही नहीं बल्कि विद्वेष और आतंक फैलाने वाला बयान था, जिसका मकसद एक विशेष समुदाय के हिंसक प्रवृत्ति के लोगों को उकसाना था। इस बयान के बाद सबरीमाला मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का समर्थन करने वाले स्वामी संदीपानंद गिरि के आश्रम पर हमला भी किया गया था। संदीपानंद गिरि ने आरोप लगाया था कि हमला प्रदेश भाजपा अध्यक्ष पीएस श्रीधरन पिल्लई, सबरीमाला मंदिर के पुजारियों और पंडालम शाही परिवार के इशारे पर हुआ है।  संदीपानंद गिरि ने शीर्ष अदालत के उस फैसले का स्वागत किया था, जिसमें 10 से 50 साल की महिलाओं को सबरीमाला में भगवान अयप्पा के मंदिर में पूजा की अनुमति दी गई थी।  

इसके अलावा सरकार के मंत्रालय की एक जिम्मेवार मंत्री महोदया ने तो यहाँ तक कह दिया कि – “खून से सने नैपकिन या कपड़े के साथ कोई महिला भगवान के मंदिर में कैसे जा सकता है?”

रूढ़िवादिता के विरुद्ध वैज्ञानिकता और परंपरा के विरुद्ध आधुनिकता का द्वंद और संघर्ष किसी सभ्य और विकसित समाज में ठीक उसी प्रकार स्वाभाविक रूप से आगे बढ़ता है जिस प्रकार प्रकृति के नियम स्वाभाविक रूप से आगे बढ़ते हैं विकासोन्मुखी व वैज्ञानिक चेतना का विकास सभ्य विकसित समाज का नैर्सिंगक गुण है, हालांकि कई परंपराएं उतनी जड़ या रूढ़ भी नहीं होतीं जितना आधुनिक प्रगतिशील विमर्श के दौरान दर्शाया व समझा जाता है। वस्तुतः परंपराएं भी निकट अतीत की आधुनिकता और चेतन मन से उपजा स्वरूप होता है जिसका दायरा समय विस्तार के साथ बढ़ता जाता है और कुछ समय के बाद यह रूढ़िवादी प्रवृत्ति के रूप में फैल जाती है।

सामाजिक परिवर्तन और विकास के दौर में जब वैज्ञानिकता और आधुनिकता के मार्ग में यह परंपरा खड़ी होती है तो द्वंद्व और संघर्ष का जन्म होता है क्योंकि परंपरा विभिन्न काल संदर्भों की आधुनिकताओं से निकला जड़ वैमर्यशीकी होती है। जिसमें गति निरंतर कम हो जाती है या बिल्कुल रुक जाती है जबकि आधुनिकता वर्तमान संदर्भ में वैज्ञानिक चेतन, विचार विमर्श और तर्क चिंतन पर आधारित गतिशील विकास मुखी पद्धति होती है।

हालिया संदर्भ में केरल के सबरीमाला मंदिर पर उच्चतम न्यायालय का फैसला भी इसी प्रकार आधुनिक प्रगतिशील विचारों और वर्षों पुरानी धार्मिक परंपरा के बीच के द्वंद के रूप में देखा जा सकता है सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद अनायास कई विवाद और कई प्रश्न सामने आ जाते हैं मसलन –

★ क्या केवल आस्था और विश्वास से उपजी परंपराओं और मान्यताओं के आधार पर समाज के एक बड़े हिस्से को उपेक्षित एवं अपमानित करना चाहिए ?

★ क्या आस्था से उपजी परंपरा के निर्वहन से संवैधानिक अधिकारों का हनन नहीं हो रहा है ?

★ क्या सामाजिक और लैंगिक मुद्दे को धर्म के पाश में बांधकर वैज्ञानिकता और प्रगतिशीलता के मार्ग में बाधक बनना उचित है ?

★ आखिर आस्था और वैज्ञानिकता के बीच द्वंद का समाधान ऐसे कानून या फैसले से संभव है या फिर इसके लिए एक परिपक्व सामाजिक सोच की भी आवश्यकता है ?

प्रश्न अनेक हैं, सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के ना सिर्फ धार्मिक सामाजिक पक्ष हैं वरन इसके राजनीतिक और विधिक पक्ष भी हैं ऐसे में किसी निष्कर्ष पर पहुंच पाना इतना आसान नहीं है। ऐसी स्थिति में किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले सबरीमाला मंदिर की पृष्ठभूमि, इतिहास और 10 से 50 वर्ष के आयु वर्ग की महिलाओं के मंदिर में प्रवेश निषेध की धार्मिक परंपरा के पीछे के कारणों की समग्र समझ आवश्यक है। तभी अतीत की पौराणिक परंपरा को वर्तमान आधुनिक प्रगतिशीलता के साथ सही ढंग से और समग्रता के साथ जोड़ सकते हैं।

सबरीमाला मन्दिर की पृष्ठभूमि

सबरीमाला मन्दिर केरल के पठानम थिट्टा जिले के इदुक्की की सीमाओं पर घाट की पर्वत श्रृंखलाओं की प्राकृतिक वादियों में स्थित है, जो बेहद सुरम्य मनमोहक पहाड़ी इलाका है। यह मंदिर पेरियार टाइगर रिजर्व के मध्य 18 पहाड़ियों के बीच खड़े एक शिखर पर स्थित है। यह मंदिर चारों ओर से घने जंगलों और पर्वतों से घिरा है। भौगोलिक दृष्टि से यह निलाकल घाट क्षेत्र से 18 किलोमीटर दूर पम्बा नदी के किनारे स्थित शिविर से 5 किलोमीटर दूर है। सदियों से तीर्थ यात्रियों के लिए तथा सभी धर्मों के लिए यह प्रसिद्ध रहा है। यहां सभी धर्मों और मान्यताओं के लोग बड़ी संख्या में पहुंचते हैं। उस मंदिर में मूल रूप से भगवान अयप्पा की पूजा अर्चना की जाती है।

भगवान अयप्पा को धर्मसत्य और मनिकनन्दन के नाम से भी जाना जाता है। हिन्दू धार्मिक मान्यताओं के अनुसार जब शक्ति स्वरूपा देवी दुर्गा ने महिसासुर नामक राक्षस का वध किया तो उसकी बहन महिसासुरी ने इसका प्रतिशोध लेना चाही। महिसासुरी ने अपनी तपस्या से भगवान ब्रह्म से वरदान प्राप्त कर लिया जिसके अनुसार उसका वध केवल भगवान विष्णु और भगवान शिव से उतपन्न संतान द्वारा ही हो सकता था। महिसासुरी के साथ एक कहानी जुड़ी है जिसके अनुसार एक श्राप के कारण उसे राक्षसी जीवन जीना पड़ रहा था, और इससे मुक्ति का भी यही उपाय था कहा जाता है कि देवासुर संग्राम के बाद समुद्र मंथन से निकले अमृत को प्राप्त करने के लिए भस्मासुर नामक राक्षस का संहार करने के लिए भगवान विष्णु ने एक अति रूपवान स्त्री मोहनी का रूप धारण किया था।

भगवान शिव मोहनी के सुन्दर रूप से आसक्त हो गए। और इस प्रकार भगवान शिव और भगवान विष्णु के रूप मोहनी के योग से भगवान अयप्पा का जन्म हुआ। अयप्पा से पराजित होने के बाद महिसासुरी अपने मूल स्वरूप यानी सुंदर स्त्री के रूप में आ गई और उसने अयप्पा के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा जिसे अयप्पा ने यह कहकर अस्वीकार कर दिया कि उन्हें जंगल मे रहकर ब्रह्मचर्य जीवन व्यतीत करते हुए भक्तों के प्रार्थनाओं को सुनने भर का आदेश है। महिसासुरी के अपने जिद पर अड़ी रहने पर भगवान अयप्पा ने उसे वचन दिया कि उससे वह उस दिन विवाह करेंगे जिस दिन कोई भक्त उनके दर्शन को नहीं आएगा। इस प्रकार समय बीतता गया लेकिन वह दिन कभी नहीं आया की कोई भक्त भगवान अयप्पा के दर्शन को नहीं आया हो, महिसासुरी प्रतीक्षा करती रहीं। यही कारण है कि अयप्पा के मंदिर के बगल में ही देवी मलिकपुराथामा देवी का भी मन्दिर स्थित है। तभी से 10 से 50 वर्ष आयु वर्ग के महिलाओं के मंदिर में प्रवेश का निषेध कर दिया गया क्योंकि ऐसा माना जाता है कि इससे भगवान अयप्पा के ब्रह्मचर्य में खलल पड़ता है और महिसासुरी के प्रेम का अपमान होता है।

एक अन्य मिथक के अनुसार कुछ लोग इसे बौद्ध धर्म से भी जोड़कर देखते हैं। कुछ लोग उसे स्थानीय आदिवासियों की पूजा पद्धति से भी जोड़कर देखते हैं जिसके अनुसार केरल के आदिवासी समुदाय के लोग अयप्पा को अपने प्रकृति देवता के रूप में मानते हैं। वैसे भी अयप्पा की पूजा केरल, तमिलनाडु, श्रीलंका के जनजातियों द्वारा किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि यह अराया समुदाय से जुड़ा है जहां अयप्पा उनका माला देवांगल अर्थात पहाड़ी देवता है। 12 वीं शताब्दी में पाण्डलम राजवंश के भुवराय ने इसका जीर्णोद्धार करवाया जिसे भगवान अयप्पा का ही अवतार माना गया।

मिथक अनेक हैं, जिसमें क्या सत्य है या असत्य ये अलग शोध का विषय है और अलग प्रकार के बहस को जन्म देती है लेकिन फिर भी हिन्दू सम्प्रदाय वाला मान्यता सबसे अधिक प्रभावी है और संवैधानिक रूप से भी इसे हिन्दू सम्प्रदाय का मंदिर माना जाता है।

वैसे दक्षिण भारत मे भगवान अयप्पा के अन्य कई मन्दिर हैं जिन्हें संस्था मन्दिर के नाम से जाना जाता है और उन मन्दिरों में महिलाओं के प्रवेश पर कोई पाबन्दी नहीं है लेकिन सबरीमाला मन्दिर में कुछ विशेष आयु वर्ग के महिलाओं के प्रवेश पर पाबंदी है। हालांकि वर्षों से चल आ रही इस प्रथा के जानकार लोगों तथा स्थानीय निवासियों के अनुसार यह परंपरा उतनी भी सख़्त नहीं थी। कुछ विशेष उत्सवों या पारम्परिक रस्मों के निर्वहन के समय छिटपुट रूप से महिलाएं आती-जाती रही हैं।

यह प्रतिबंध केरल हाइकोर्ट के 1991 ईस्वी में आये एक फैसले के बाद ही सख्त रूप में लागू हुआ, हालांकि इस फैसले की पृष्ठभूमि 1950 ईस्वी में ही बन गई थी, जब सबरीमाला मन्दिर में एक भयंकर आग लगी या लगाई गई थी। और इस मंदिर को बुरी तरह नकुसान पहुंचाया गया। आग की स्थिति को देखते हुए ऐसा माना गया कि आग जानबूझकर कर लगाई गई है, इसके लिए कुछ लोगों ने ईसाई मिशनरियों पर आरोप लगाया तो कुछ जनजातियों के लोगों ने ब्राह्मणवादी व्यवस्था को इसके लिए जिम्मेदार बतलाया। इसकी जांच के लिए एक कमेटी भी गठित की गई लेकिन किसी ठोस निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाया। इस घटना के बाद मंदिर के परम्परा एवं कार्य पद्धति में बदलाव किया गया, जिसके तहत महिलाओं के प्रवेश पर पाबंदी की व्यवस्था को अपनाया गया, इसका वर्णन केरल हिन्दू सार्वजनिक पूजा स्थल प्रवेश प्रमाणीकरण नियम 1965 के अनुभाग 3 (b) के अंतर्गत वर्णित है।

1990 ईस्वी में एस महिन्दरण नामक व्यक्ति ने सबरीमाला मन्दिर में महिलाओं के प्रवेश निषेध के खिलाफ केरल हाइकोर्ट में एक याचिका दायर की। इस याचिका पर सुनवायी करते हुये केरल हाइकोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 25 (2) का हवाला देते हुए फैसला सुनाया जिसके तहत 10 से 50 वर्ष के आयु वर्ग के महिलाओं को मन्दिर में प्रवेश पर पाबंदी लगा दिया गया और राज्य सरकार को इसे सख्ती से लागू करने का निर्देश दिया गया। बाद में वर्ष 2006 में भारतीय युवा अधिवक्ता संघ की छः महिला सदस्यों ने केरल हाइकोर्ट के इस फैसले को सुप्रीमकोर्ट में चुनौती देते हुए एक जनहित याचिका दायर की जिसमे संविधान की अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) तथा अनुच्छेद 25 (उपासना की स्वतंत्रता की स्वतंत्रता) के मौलिक अधिकार के हनन की बात उठाई गई।

2007 में केरल की लेफ्ट डेमोक्रेटिक सरकार ने जनहित याचिका का समर्थन करते हुए एक शपथ पत्र दायर की। मामले की गंभीरता को देखते हुए 2008 में सुप्रीमकोर्ट ने एक तीन सदस्यीय बेंच को मामले को सौंप दिया। 2016 में इस मुद्दे की सुनवाई शुरू हुई बाद में उच्चतम न्यायालय ने इस मामले को पांच सदस्यीय संवैधानिक पीठ को हस्तांतरित कर दिया, जिसमें संवैधानिक पीठ के तत्कालीन चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के अलावा डीवाई चंद्रचूड, एएम खानविलकर, रोहिंटन नरीमन एवं महिला जज इंदु मल्होत्रा शामिल थीं। उस पीठ ने 28 दिसम्बर 2018 को 4:1 के बहुमत से ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए केरल हाइकोर्ट के फैसले को गलत ठहराया और सबरीमाला मन्दिर में 10 से 50 वर्ष आयुवर्ग के महिलाओं के प्रवेश पर पाबंदी को हटा दिया।

सुप्रीमकोर्ट ने इस प्रतिबंध को अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 15, अनुच्छेद 17, अनुच्छेद 19 (1), अनुच्छेद 21 तथा अनुच्छेद 25 का उल्लंघन माना साथ ही केरल हिन्दू सार्वजनिक पूजा स्थल प्रमाणीकरण नियम 1965 के अनुभाग 3(b) में वर्णित प्रवेश निषेध को संविधान की मूल भावना के खिलाफ बताया। हालांकि पीठ की एक मात्र महिला जज इन्दु मल्होत्रा ने फैसले का विरोध किया और कहा कि धर्मनिरपेक्ष राज्य में न्यायालय को धर्म के आंतरिक मामले में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। सुप्रीमकोर्ट के इस फैसले के बाद परंपरावादी और प्रगतिशील आधुनिक व्यक्ति के बीच नई बहस का सूत्रपात हुआ जिसके अपने-अपने तर्क और दावे हैं। संवैधानिक रूप से इस फैसले के पक्ष और विपक्ष में अनेक प्रकार के तर्क दिए जाते हैं जिन्हें बिंदुवार समझना आवश्यक है।

धर्म आस्था और विशवास के सहारे चलने वाली एक जीवन पद्धति है जो व्यक्ति की गरिमा से जुड़ा है ऐसी कोई भी परंपरा जो व्यक्ति की गरिमा और आत्मसम्मान के विरुद्ध हो वह धर्मिक कार्य कैसे माना जा सकता है? सबरीमाला मंदिर में 10 से 50 आयु वर्ग की महिलाओं का प्रवेश निषेध संवैधानिक रूप से भी उचित नहीं ठहराया जा सकता है। यह व्यक्ति के मूल अधिकारों के विरुद्ध है। जिसे निम्न आधार पर समझा जा सकता है।

● सविधान के अनुच्छेद-14 (समानता का अधिकार ) के तहत सभी व्यक्ति विधि के समक्ष समान हैं, ऐसे में सबरीमाला मंदिर में प्रवेश निषेध इस मूल अधिकार का उल्लंघन है।

● अनुच्छेद -15 के तहत धर्म, जाति, मूल, वंश, जन्मस्थान, लिंग आदि किसी भी आधार पर विभेद नहीं किया जा सकता है। अनुच्छेद-15(2)(ख) के स्वरुप हैं कि कोई भी धर्म, जाति, मूल, वंश, लिंग, जन्मस्थान आदि के आधार पर राज्यपोषित अथवा सामान्य जनता के उपयोग में लाई जाने वाली कुएं, तालाब या सार्वजनिक स्थानों के उपयोग के सम्बंध में किसी प्रकार की निर्योग्यता के विरूद्ध होगा। इस प्रकार सबरीमाला में एक विशेष आयु वर्ग की महिलाओं का प्रवेश निषेध न सिर्फ लैंगिक असमानता के दैर में आता है बल्कि धार्मिक स्वतंत्रता का भी उल्लंघन करता है।

● मासिक धर्म के आधार पर 10 से 50 वर्ष आयु वर्ग की महिलाओं को धार्मिक कार्यक्रम में भाग लेने से रोकना उसके साथ अस्पृश्यता जैसा आचरण है जो संविधान के अनुच्छेद1-17 (अस्पृश्यता के विरूद्ध अधिकार) का भी उल्लंघन करता है। जो दंडनीय अपराध के दायरे में आता है। हालांकि अनुच्छेद -17 के तहत अस्पृश्यता संबंधी आचरण हेतु दंड निर्धारण के लिये अस्पृश्यता अपराध अधिनियम 1955 एवं उसके उत्तरवर्ती संसाधनों के अंतर्गत “अस्पृश्यता” शब्द को स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं किया गया है। लेकिन सिविल अधिकार संरक्षण अधिनियम के पैरा-3 में स्पष्ट रूप से उल्लिखित है कि –

(1) किसी ऐसे लोक पूजा स्थान में प्रवेश करने से जो उसी धर्म के सामने वाले या उसके किसी विभाग के अन्य व्यक्तियों के लिये खुला हो अथवा

(2) किसी लोक पूजा स्थानों में किसी भी धार्मिक सेवन, पवित्र तालाब, कुएं, जल स्रोत का उपयोग उसी धर्म की रीति से करने के लिये अनुज्ञय हो जिसका वह व्यक्ति है,

इस प्रकार सबरीमला मंदिर में उसी धर्म के मानने वाली महिलाओं को मासिक धर्म के आधार पर धार्मिक कार्यक्रमों के निर्योग करना अस्पृश्यता का ही एक रूप है जो दंडनीय है। अस्पृश्यता शब्द की व्याख्या को लेकर संविधान सभा में भी बहस के दौरान कुछ सदस्यों ने तंज भरे लहजों में पूछा था कि जो व्यक्ति संक्रामक रोग से पीड़ित है। क्या उस पर भी अस्पृश्यता लागू होगी या कुछ धर्मों में स्त्रियों पर भी अस्पृश्यता मानी गयी है। तो क्या अस्पृश्यता अधिनियम उस पर भी लागू होगी? इस प्रश्न का उत्तर देते हुये संविधान मसौदा समिति के प्रमुख सदस्य केएम मुंशी ने कहा था कि-सविधान में “अस्पृश्यता” शब्द को उदाहरण शब्द के अंतर्गत रखा गया है जिसका अर्थ वही है जिसे हम सामान्य रूप में समझते हैं। बाद में जब संविधान सभा सदस्य नजीरुद्दीन अहमद ने अनुच्छेद 17 के मसौदे में संशोधन कर इसे जाति एवं धर्म तक सीमित करने की मांग रखी तो इसे बीआर आम्बेडकर ने ख़ारिज कर दिया और संविधान सभा ने इस पर अपनी सहमति भी जताई।

● अनुच्छेद-25 धर्म और उपासना के मौलिक अधिकार का हनन –

सबरीमाला मंदिर में 10 से 50 वर्ष आयु वर्ग की महिलाओं का प्रवेश निषेध संविधान के अनुच्छेद-25(1) का भी उल्लंघन है। अनुच्छेद-25(2) में स्पष्ट रूप से उल्लिखित है कि राज्य सरकार सामाजिक कल्याण और सुधार के लिये हिंदू धार्मिक संस्थाओं को हिन्दुओं के सभी वर्ग और उपभागों के लिए खोल सकता है। अनुच्छेद-25(2) के पैरा 3 में स्प्ष्ट उल्लिखित है कि किसी पुरानी प्रथा या विधि या न्यायालय आदेश से असंगत होने के बावजूद सार्वजनिक हिन्दू धार्मिक स्थलों को सभी वर्गों के लिये खोला जाएगा और कोई भी हिन्दू चाहे वह किसी भी वर्ग का होगा उसे प्रवेश से रोका नहीं जा सकता।

इसी पैरा 3 के परन्तुक में कुछ वर्गों का ज़िक्र है जिसे हिन्दू धार्मिक स्थलों में प्रवेश से निषिद्ध किया गया है जैसे गैर हिन्दू, विक्षिप्त, शराबी, संक्रामक रोगी आदि। इसी परंतुक के 3(ख) में ऐसी महिलाओं का भी इन स्थानों में प्रवेश निषिद्ध किया गया है जिन्हें पुरानी प्रथा या चलन के आधार पर इन स्थालों में प्रवेश की अनुमति नहीं थी बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने हिन्दू सार्वजनिक पूजा स्थल प्रवेश प्रमाणीकरण नियम 1965 के पैरा 3(ख) को यह कहकर हटा दिया कि यह अपने ही मूल नियम के आशय के विरुद्ध है।

आज देश की सर्वोच्च अदालत ने पुनर्विचार याचिका को सीधे खारिज करने के बजाय उसे 7 सदस्यीय पीठ को सौंप दिया। लेकिन प्रश्न उठने तो स्वाभाविक हैं कि समानता और नारी उत्थान की बात करने वाले देश का सर्वोच्च न्यायालय किसी राजनैतिक शक्ति के दबाव में तो नहीं? वर्ष 2018 के फ़ैसलों के बाद सत्ताधारी दल के बड़े राजनैतिक कद वाले सियासी शूरमाओं के बयान का प्रभाव तो नहीं? आस्था और परम्परा के नाम पर दिया गया यह फैसला 21 वीं सदी के वैज्ञानिक युग में किसी भी समानता आधारित सभ्य विकसित समाज को शायद ही स्वीकार्य हो पाए। लेकिन माननीय सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को सम्मानपूर्ण तरीके से देखने की लोकतांत्रिक मर्यादा सर्वोपरि है।

(दयानंद स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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