Thursday, March 28, 2024

अर्थव्यवस्था के पतन की स्क्रिप्ट और कमल हासन का प्रधानमंत्री को पत्र

अर्थव्यवस्था के पतन की स्क्रिप्ट तो 2016 के 8 नवंबर को ही लिख दी गयी थी। वर्तमान दयनीय आर्थिक स्थिति है वह कोरोना आपदा के समय दिख ज़रूर रही है पर उसका कारण कोरोना आपदा से उतना नहीं है, जितना इसे प्रचारित किया जा रहा है । इस दयनीय आर्थिक स्थिति का जिम्मेदार नोटबंदी का मूर्खतापूर्ण निर्णय और उसका उससे अधिक मूर्खतापूर्ण ढंग से क्रियान्वयन है।

फिर कुछ ही महीनों बाद जीएसटी लागू करने का निर्णय और फिर उसका त्रुटिपूर्ण क्रियान्वयन भी उसी कड़ी में आता है । 2016 के 8 नवम्बर की रात 8 बजे जब इस देश के सबसे मूर्खतापूर्ण आर्थिक निर्णय की घोषणा हुई, तब से आर्थिक हालात जो बिगड़े, तो लगातार बिगड़ते ही चले गये। अब तो कोरोना आपदा ने उसे और दयनीय तथा चुनौतीपूर्ण बना दिया है। रही सही कमी, अब इस लॉक डाउन ने आर्थिकी को ही ध्वस्त करके पूरा कर दिया है । 

सारे आर्थिक सूचकांक, चाहे वे मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर के हों, बैंकों के एनपीए के हों, या आयात-निर्यात से जुड़े हों, या जीडीपी से सम्बंधित हों, के ग्राफ जो गिरना शुरू हुए तो आज तक वे ऊर्ध्वमुखी नहीं हो पाए। अब तो लॉक डाउन से हालात और भी बदतर होंगे। सरकार के पास इस विषम आर्थिक स्थिति से निपटने के लिये न तो प्रतिभा है, न कोई कार्य योजना और न ही इच्छा शक्ति। यह बात कभी सुब्रमण्यम स्वामी ने कही थी जो आज के हालात में भी प्रासंगिक है।

कोरोना आपदा से निपटने के लिये निश्चय ही सरकार को धन चाहिए। सरकार को बहुत सी स्वयंसेवी संस्थाओं का सहयोग मिल भी रहा है। लोग भी अपनी एक एक दिन की तनख्वाह पीएम केयर्स फंड में दे रहे हैं। सरकार जनप्रतिनिधियों के वेतन भत्तों में कटौती कर रही है। सांसद और विधायक निधि को दो साल के लिये मुल्तवी कर दिया गया है। एक एक पाई सरकार इकट्ठा कर रही है। आज एक बात अक्सर याद आती है कि जब सरकार ने गिरती हुई अर्थव्यवस्था को गति देने के लिये आरबीआई के रिज़र्व फंड का 1,78,000 करोड़ रुपया आरबीआई के सभी नियमों और परंपराओं को ताक पर रख कर, तत्कालीन आरबीआई के गवर्नर उर्जित पटेल और डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य की आपत्ति के बाद भी, इन दोनों अधिकारियों के पद त्याग करने के बाद एक नया गवर्नर शशिकांत दास को नियुक्त कर के ले लिया था, और यह सारा धन कॉरपोरेट को सौंप दिया गया था। यह सब सरकार की उस कार्य योजना का हिस्सा था जो सरकार ने आर्थिक मंदी से निपटने के लिये सरकार ने बनाया था। 

आज आरबीआई के पास भी अब इतना रिज़र्व फंड नहीं है, जिसे इस गाढ़े वक़्त में जब कि उसकी बहुत जरूरत है लेकर काम चलाया जा सके। लेकिन उस आर्थिक मंदी का काऱण क्या है ? वैश्विक आर्थिकी की ओर भी संकेत दिया जा सकता है। लेकिन अगर एक जिज्ञासु अर्थशास्त्र के विद्यार्थी की तरह से इसका अध्ययन किया जाएगा तो इस मंदी के मूल में नोटबंदी का निर्णय और जीएसटी का मूर्खतापूर्ण क्रियान्वयन है। 

दिल को तसल्ली देने के लिये कहा जा सकता है कि यह तो वैश्विक गिरावट है और यह तसल्लीबख्श तर्क कुछ हद तक सही भी है। लेकिन हमारे यहाँ तो यह गिरावट 2016-17 के अंतिम वित्तीय तिमाही से ही आ गयी थी। फिर शायद ही कोई वित्तीय तिमाही हो जिसमें आर्थिक सूचकांकों ने गोता न लगाया हो। हैरानी इस पर नहीं है कि देश की आर्थिक स्थिति गिरावट की ओर थी। पर हैरानी इस बात की है कि न तो उस गिरावट की प्रकृति को सरकार स्वीकार कर रही थी और न ही उससे निपटने के लिये कोई सार्थक पहल कर रही थी। एक ग्लोबल होती दुनिया मे जब दुनिया चपटी हो रही हो तो वैश्विक आर्थिक प्रभावों से बचा नहीं जा सकता है। पर इस दारुण स्थिति से निपटने के लिये आखिर किया क्या गया है और उसके क्या परिणाम आये हैं, यह शायद सरकार को भी पता न हो। 

नोटबंदी का निर्णय उचित था या अनुचित इस पर अर्थशास्त्रियों में मतभेद हो सकता है, पर नोटबंदी के प्रबंधन में जो गलतियां हुई हैं और जैसी अफरातफरी मची है उससे यह स्पष्ट है कि आदेश पहले आया और उसके लागू करने में क्या क्या दिक्कत हो सकती है यह बाद में सोचा गया। तीन चौथाई से भी अधिक मुद्रा प्रसार में रहने वाले पांच सौ और हज़ार रुपये के नोट अचानक चलन के बाहर हो जाएंगे और उससे क्या जनता को भोगना पड़ेगा यह बात वित्त मंत्रालय द्वारा सोची ही नहीं गयी थी। यहां तक कि नए 2000 रुपये के नोट छपने के बाद यह एटीएम को कैलिब्रेट किया गया यानी नोटों के आकार के आधार पर एटीएम की ट्रे डिजाइन की गयी। 150 लोग लाइनों में खड़े होकर या अवसाद से मर गए। 8 नवंबर से 31 दिसंबर के बीच 130 सर्कुलर वित्त विभाग और आरबीआई ने जारी किये। इतने सर्कुलर, सुबह कुछ और शाम कुछ कि बैंकों तक में मुश्किल पड़ने लगी कि वे आखिर काम कैसे करें। 

यही हाल जीएसटी के लागू करते समय भी हुआ। लम्बे समय तक तो उस जटिल नियमों को कोई सीए तक नहीं समझ सका। गांव और शहरों के वे दुकानदार जो कम्प्यूटर नहीं रखते थे उनके लिये यह एक बड़ी समस्या बन गया। एक देश एक कर का ढिंढोरा पीटने के बाद 5 स्लैब करों के बना दिये गये। इसका सीधा परिणाम बाजार पर पड़ा। छोटे और मझोले दुकानदार इस जटिल टैक्स प्रणाली से न केवल अपना काम सुचारू रूप से कर पाए और न ही वे बड़े बड़े मॉल और डिपार्टमेंटल स्टोर के सामने पूंजीवादी प्रतियोगिता में टिक पाए। 

नोटबंदी हो या जीएसटी, इन दोनों ही कथित आर्थिक सुधारों का क्रियान्वयन इतना त्रुटिपूर्ण रहा कि इसकी गाज सबसे अधिक छोटे और मझोले दुकानदार वर्ग को झेलनी पड़ी। नोटबंदी के समय जिस काले धन के खात्मे की बात कही जा रही थी उसका कोई भी आंकड़ा सरकार के पास नहीं है। 2017 के स्विस बैंक के आंकड़े कहते हैं कि उस समय सबसे अधिक भारतीयों ने वहाँ धन जमा किया। अगर यह कहा जाए कि लोगों ने सरकार से डर कर काला धन वहां भेज दिया तो फिर यह सवाल उठता है कि अगर सरकार से डर कर बाहर धन भेज दिया तो फिर सरकार ने उसके न भेजे जाने के लिये क्या सावधानी बरती ? अगर सरकार यह अनुमान नहीं लगा पायी तो यह भी तो इस सुधार के क्रियान्वयन की ही कमी है ? 

लॉक डाउन में भी सरकार ने निर्णय पहले लिया और उसके क्रियान्वयन के सम्बंध में बाद में सोचा। आज प्रसिद्ध फ़िल्म अभिनेता कमल हासन ने एक खुला पत्र प्रधानमंत्री को लिखा है, मैं यहां उद्धृत कर रहा हूँ। कमल हासन ने इस पत्र में हम सबके मन की बात कही है। पीएम इसका कोई उत्तर नहीं देंगे क्योंकि यह उनकी राजनीति का अंग ही नहीं है लेकिन कमल हासन ने जो सवाल उठाए हैं वे बेहद मौजूँ हैं। 

मैं यह पत्र देश के एक जिम्मेदार किन्तु निराश नागरिक के तौर पर आपको लिख रहा हूं। 23 मार्च को आपको लिखे अपने पहले पत्र में, मैंने सरकार से आग्रह किया था कि इस मुश्किल घड़ी में वह उन असहाय, कमजोर और आश्रित लोगों को अपनी नज़रों से ओझल न होने दे, जो हमारे समाज के अनाम नायक रहे हैं। अगले ही दिन, राष्ट्र ने एक सख्त और तत्काल लॉकडाउन की आपकी घोषणा सुनी, जो लगभग नोटबंदी की शैली में थी। मैं हतप्रभ ज़रूर हुआ, लेकिन मैंने आप पर, अपने चुने हुए नेता पर भरोसा करना चुना, जिसके प्रति हम यह विश्वास रखना चाहते थे, कि वह हमसे अधिक जानकार है। पिछली बार जब आपने नोटबंदी की घोषणा की थी, तब भी मैंने आप पर भरोसा करना चुना था, लेकिन समय ने साबित कर दिया कि मैं गलत था। समय ने साबित कर दिया कि आप एकदम ग़लत थे महोदय।

सबसे पहले, मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि आप अभी भी देश के चुने हुए नेता हैं, और आपके अलावा सभी 140 करोड़ भारतीय भी इस संकट के दौरान हर हाल में आपके हरेक दिशानिर्देश का पालन करेंगे। आज, शायद विश्व का कोई दूसरा ऐसा नेता नहीं है, जिसके पास इस तरह का जनसमर्थन हो। आप जो बोलते हैं, जनता अनुसरण करती है। आज पूरा देश इस अवसर पर एकजुट है और उसने आपके कार्यालय पर अपना विश्वास बनाए रखा है।

आपने देखा होगा, कि जब आपने स्वास्थ्य के लिए नि:स्वार्थ भाव से और अथक परिश्रम करने वाले अनगिनत स्वास्थ्यकर्मियों की सराहना करने के लिए देशवासियों का आह्वान किया, तो सबने उनके लिये ताली बजाई और जय जयकार की। हम आपकी इच्छाओं और आदेशों का पालन आगे भी करेंगे, लेकिन हमारे इस अनुपालन को हमारी अधीनता के रूप में नहीं समझा जाना चाहिए। अपने लोगों के नेता के रूप में मेरी खुद की भूमिका मुझे अपने मन की बात कहने और आपके तरीकों पर सवाल उठाने के लिए मजबूर करती है। अगर मेरी बातों में शिष्टाचार की कोई कमी महसूस हो, तो कृपया क्षमा करें।

मेरा सबसे बड़ा डर यह है, कि नोटबंदी की वही गलती फिर से बड़े पैमाने पर दोहराई जा रही है। जबकि नोटबंदी ने गरीबों की बचत और आजीविका को सर्वाधिक नुकसान पहुंचाया। आपका यह अ-नियोजित लॉक डाउन भी हमारे जीवन और आजीविका दोनों के ऊपर एक घातक प्रभाव डालने जा रहा है। गरीबों के पास उनका ख़याल रखने के लिए आज सिवाय आपके कोई भी नहीं है महोदय। एक तरफ आप अधिक विशेषाधिकार प्राप्त लोगों से रोशनी का तमाशा आयोजित करने के लिए कह रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ़ गरीब आदमी की दुर्दशा खुद एक शर्मनाक तमाशा बन रही है। जिस समय आपकी दुनिया के लोगों ने अपनी बालकनियों में तेल के दीये जलाए हैं, गरीब अपनी अगली रोटी सेंकने के लिए काम भर तेल इकट्ठा करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

राष्ट्र के नाम अपने अंतिम दो संबोधनों से आप उन लोगों को शांत करने की कोशिश कर रहे थे, जो इन हालात में आवश्यक भी है, लेकिन इसके अलावा भी बहुत कुछ ऐसा है, जिसे किया जाना निहायत जरूरी है। मनोचिकित्सा की यह तकनीक उस विशेषाधिकार सम्पन्न वर्ग की चिंताओं का समाधान कर सकती है, जिसके पास खुशी ज़ाहिर करने के लिए अपनी बालकनी है। लेकिन उन लोगों के बारे में क्या, जिनके सिर पर छत भी नहीं है? मुझे यकीन है कि आप केवल बालकनी वाले लोगों के लिए एक बालकनी सरकार नहीं चलाना चाहते होंगे, और न ही पूरी तरह से उन गरीबों की अनदेखी करना चाहते होंगे, जो हमारे समाज, हमारी समर्थन प्रणाली की सबसे बड़ी आधार संरचना तैयार करते हैं, जिस पर हमारा मध्य-वर्ग और सम्पन्न वर्ग अपने जीवन का निर्माण करता है।

यह सही है कि गरीब आदमी कभी भी फ्रंट पेज की खबर नहीं बन पाता, लेकिन प्राणशक्ति और जीडीपी- राष्ट्र निर्माण के दोनों पक्षों में उसके योगदान को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। राष्ट्र में उसकी बहुमत हिस्सेदारी है। इतिहास ने साबित कर दिया है, कि तल को नष्ट करने के किसी भी प्रयास से अन्तत: शीर्ष ही कमज़ोर होता है। यहां तक कि विज्ञान भी इससे सहमति ही जताएगा!

यह पहला संकट है, पहली महामारी जो समाज के शीर्ष तल पर प्रस्फुटित हुई है, और उसका प्रसार सबसे ऊपर से नीचे की तरफ़ हुआ है। लेकिन आपको देख कर ऐसा लगता है महोदय कि आप सबसे नीचे की आबादी को छोड़ कर ऊपर वालों को ही राहत देने का हर संभव प्रयास कर रहे हैं। लाखों-लाख दिहाड़ी मजदूर, घरेलू कामगार, रेहड़ी-पटरी विक्रेता, ऑटो-रिक्शा तथा टैक्सी चालक और असहाय प्रवासी कामगार इस उम्मीद में सारी तक़लीफ़ें सहन कर रहे हैं कि इस लंबी सुरंग के दूसरे छोर पर प्रकाश की कोई किरण ज़रूर होगी। पर हम केवल एक पहले से ही सुसंगठित मध्य-वर्गीय क़िले को और अधिक सुरक्षित करने का प्रयास कर रहे हैं। महोदय मुझे गलत मत समझिए, मैं यह सुझाव नहीं दे रहा हूं कि हम मध्यम वर्ग या किसी एक वर्ग की उपेक्षा करें। वास्तव में, मैं इसके ठीक विपरीत सुझाव दे रहा हूं।

मैं चाहता हूं कि आपको हर एक किले को सुरक्षित करने के लिए और अधिक प्रयास करना चाहिये और यह सुनिश्चित करना चाहिये कि कोई भी भूखा न सोए। COVID-19 को और अधिक शिकारों की तलाश रहेगी, लेकिन हम उसके लिये गरीबों की भूख (एच), थकावट (ई) और अभाव (डी) से एक उपजाऊ खेल का मैदान बना रहे हैं। HED- 20 एक ऐसी बीमारी है जो दिखने में छोटी लगती है, लेकिन COVID-19 की तुलना में वह कहीं अधिक घातक है। COVID-19 के जाने के बाद भी इसका प्रभाव लंबे समय तक महसूस किया जाएगा।

जब कभी ऐसा महसूस होता है कि हमारे पास इस फिसलन की रफ़्तार को थाम लेने का मौका है, हर बार आप अपने आपको एक सुरक्षित ढलान पर फिसलने देते हैं, और उस मौके को एक उत्साही चुनावी-शैली के अभियान में बदल देते हैं। हर बार यही प्रतीत होता है कि आप अपनी सुविधा से जिम्मेदारीपूर्ण व्यवहार को जनसामान्य के ऊपर और पारदर्शिता को राज्य सरकारों के ऊपर टाल रहे हैं। आपके बारे में ऐसी धारणा का निर्माण आप स्वयं कर रहे हैं, ख़ासकर उन लोगों के बीच जो भारत के वर्तमान और भविष्य को बेहतर बनाने के लिए अपनी बुद्धिजीविता का सर्वोत्तम उपयोग करते हुए काम करने में समय बिताते हैं।

मुझे खेद है यदि मैंने यहां बुद्धिजीवी शब्द के इस्तेमाल से आपको नाराज़ किया हो, क्योंकि मुझे पता है कि आप और आपकी सरकार को यह शब्द कतई पसंद नहीं है। लेकिन मैं पेरियार और गांधी का अनुयायी हूं, और मुझे पता है कि वे पहले बुद्धिजीवी थे। यह वह बुद्धि है, जो सभी के लिए धार्मिकता, समानता और समृद्धि का मार्ग चुनने में मार्गदर्शन करती है।

केवल उत्तेजक और फ़र्जी प्रचार के माध्यम से येन केन प्रकारेण लोगों के उत्साह को जीवित रखने के आपके रुझानों की वजह से ही शायद उन ज़रूरी कार्रवाइयों की अनदेखी करने की आपकी मंशा दृढ़ हुई है, जिनसे वास्तव में बहुत-सी जानें बचाई जा सकती थीं। महामारी के इस लंबे दौर में, जब पूरे देश में कानून और व्यवस्था को दुरुस्त रखना बेहद अहम कार्यभार था, आपका तंत्र देश के विभिन्न हिस्सों में अज्ञानी और मूर्ख लोगों की सभाओं और जमावड़ों को रोकने में विफल रहा। आज वे भारत में महामारी के प्रसार के सबसे बड़े केंद्र बन गए हैं। इस लापरवाही के कारण जितने लोग जान गंवाने वाले हैं, उन सभी लोगों के लिए कौन जिम्मेदार होगा?

डब्ल्यूएचओ को दिये गये चीनी सरकार के आधिकारिक बयान के अनुसार, 8 दिसंबर को कोरोना के संक्रमण का पहला मामला दर्ज़ किया गया था। भले ही आपने इस तथ्य को स्वीकार किया हो, कि दुनिया को स्थिति की गंभीरता को समझने में बहुत समय लगा, फरवरी की शुरुआत तक, पूरी दुनिया को पता चल चुका था कि यह वायरस एक अभूतपूर्व कहर बरपाने वाला है। भारत का पहला मामला 30 जनवरी को दर्ज़ किया गया था। हमने देखा था कि इटली में क्या हुआ था। फिर भी, हमने समय रहते अपने लिये कोई सबक नहीं सीखा।

जब हम अंततः अपनी नींद से जागे, तो आपने 4 घंटे के भीतर 140 करोड़ लोगों के पूरे देश को लॉकडाउन करने का फ़रमान सुना दिया। आपके पास पूरे 4 महीने की नोटिस अवधि थी, जबकि देश की इतनी विशाल आबादी के लिए मात्र 4 घंटे की नोटिस अवधि! दूरदर्शी नेता वे होते हैं, जो समस्याओं के गंभीर होने से बहुत पहले उसके समाधान पर काम करते हैं।

मुझे यह कहते हुए खेद है महोदय, कि इस बार आपकी दृष्टि विफल रही। इसके अलावा, आपकी सरकार और उसके सहयोगियों की सारी शक्ति किसी भी प्रतिक्रिया या रचनात्मक आलोचना का मुंहतोड़ जवाब देने में ख़र्च हो रही है। राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखने वाली और देश की बेहतरी चाहने वाली जो भी आवाजें कहीं से उठती हैं, उन्हें फ़ौरन कुचलने और बदनाम कर देने के लिये आपकी ट्रोल आर्मी पिल पड़ती है, और ऐसी आवाज़ों को राष्ट्र-विरोधी करार दे दिया जाता है।

आज मैंने यह हिम्मत कर ली है कि जिसको कहना हो मुझे राष्ट्र-विरोधी कह ले। परिमाणात्मक रूप से इस तरह के विशाल संकट के लिये अगर आम आबादी तैयार नहीं है, तो इसके लिये उसको दोषी नहीं ठहराया जा सकता। इसके लिए सिर्फ़ और सिर्फ़ आपको दोषी ठहराया जा सकता है। लोग अपने लिए सरकार चुनते और उसका ख़र्च उठाते ही इसीलिए हैं कि वह उनके जीवन को सुरक्षित और सामान्य बनाये रखे।

इस परिमाण की घटनाओं को दो कारणों से इतिहास में दर्ज़ किया जायेगा, पहला कारण वह तबाही (बीमारी और मृत्यु) है, जो वे अपने मूल स्वभाव के कारण पैदा करती हैं। दूसरा कारण यह है कि वे मनुष्यों की प्राथमिकताओं पर कैसा दीर्घकालिक प्रभाव डालती हैं, और किस तरह के सामाजिक-सांस्कृतिक बदलाव लाती हैं। मैं अपने समाज को एक ऐसे प्रकोप से त्रस्त होते देख कर बहुत दुखी हूं, जो प्रकृति द्वारा हमारी तरफ़ उछाले गये किसी भी दूसरे वायरस के प्रकोप से बहुत अधिक खतरनाक और दीर्घजीवी है।

महोदय, यह समय उन आवाजों को सुनने का है, जो वास्तव में सरोकार रखती हैं। मुझे उनकी परवाह है। यह सभी सीमाओं को तोड़ देने और हर एक से यह स्पष्ट आह्वान करने का समय है कि वे आपके साथ आयें और मदद का हाथ बढ़ाएं। भारत की सबसे बड़ी क्षमता इसकी मानवीय क्षमता है, और हमने अतीत में बड़े-बड़े संकटों को पार किया है। हम इसे भी पार कर लेंगे, लेकिन इसे इस तरह से पार किया जाना चाहिए ताकि सभी एक साथ आएं और इसमें पक्षपात के लिये कोई जगह न हो।

( यह पत्र द हिन्दू में छपा है जिसका हिंदी अनुवाद राजेश चंद्र ने किया है। )

■ 

नोटबंदी और जीएसटी की बदइंतजामी के बाद  लॉक डाउन जैसे सही निर्णय के गलत क्रियान्वयन से,  देश की सप्लाई लाइन टूट गयी जिसकी एक बड़ी कीमत बाजार चुकाने जा रहा है। अगर देशबंदी के दौरान आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति करने वाले वाहनों को हाइवे और बाजार में आने जाने की अनुमति आंशिक तौर पर दे दी गयी होती, तो यह क्रम कुछ न कुछ जीवित रहता। एक बार फिर भी बिना पूर्व तैयारी और सोचे समझे घोषित किए गए लॉक डाउन ने राज्यों, शहरों, जिलों और गांवों तक दिन-रात खाने-पीने के जरूरी सामान से लेकर तमाम आवश्यक साजो-सामान की ढुलाई में जुटे ट्रांसपोर्ट उद्योग को खत्म सा कर दिया ।

देश में करीब 12.47 लाख से ज्यादा नेशनल परमिट वाले गुड्स ट्रक हैं, जो माल ढुलाई का काम करते हैं। जिसमें कहा जा रहा है कि लगभग 4 से 5 लाख ट्रक ऐसे हैं जो, बीच रास्ते में फँसे हुए हैं। इन ट्रकों में करोड़ों रुपये कीमत की दवाएं, दवा बनाने वाला कच्चा माल, मेडिकल उपकरण, साबुन, मास्क बनाने का कच्चा माल, और जल्दी खराब होने वाली साग-सब्जियां और फल लदे हैं। इस कारण मांग और आपूर्ति में इतना अंतर आ गया कि सभी वस्तुओं के दाम 5 से 10 रुपए तक बढ़ा दिए गए हैं। अधिकतर दुकानों से आटा गायब हो चुका है।

सबसे बड़ा संकट तो देश मे दवाइयों का खड़ा होने वाला है। अखिल भारतीय दवा विक्रेता संगठन (एआईओसीडी) पूरे देश के 850,000 दवा विक्रेताओं का प्रतिनिधित्व करता है और इसके अध्यक्ष जगन्नाथ शिंदे ने बिज़नेस स्टैंडर्ड से बात करते हुए कहा कि हरियाणा, पंजाब, हिमाचल और चंडीगढ़ जैसे क्षेत्रों में स्थिति गंभीर है और खुदरा विक्रेता स्तर पर अगले दस दिन में आपूर्ति खत्म हो सकती है। क्लीयरिंग एंड फॉरवर्ड, एजेंटों के पास एक महीने का स्टॉक पड़ा हुआ है, लेकिन सप्लाई नहीं हो रही है इंसुलिन जैसी दवा की आपूर्ति भी बुरी तरह से प्रभावित है। न सिर्फ सड़कों पर बल्कि बंदरगाहों, पर रेलवे स्टेशन पर, हवाई अड्डों के कार्गो स्टेशनों पर  ढेरों माल पड़ा हुआ है उठाने वाले, गंतव्य तक पुहंचाने वाले नहीं मिल रहे हैं। 

आज भले ही सरकार के समर्थक आर्थिक दुर्व्यवस्था की जिम्मेदारी कोविड 19 के प्रकोप पर डाल कर सरकार के बदइंतजामी को ढंकने का प्रयास करें पर मेरा यह मानना है कि अर्थिकी के गिरने की स्क्रिप्ट 8 नवम्बर 2016 को शाम 8 बजे ही लिख दी गयी थी। 

( विजय शंकर सिंह रिटायर्ड आईपीएस अफ़सर हैं और आजकल कानपुर में रहते हैं।)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles