Thursday, April 25, 2024

‘हिंदुस्तान पर दिन दहाड़े पसरता जा रहा है एक भूतिया साया’

(कारवां में लेख के तौर पर प्रकाशित यह पर्चा लेखिका अरुंधति रॉय ने 12 नवंबर को न्यूयॉर्क शहर में आयोजित ‘जॉनाथन शैल मेमोरियल लेक्चर-2019’ में पढ़ा था। विष्णु शर्मा द्वारा अंग्रेजी से हिंदी में अनुवादित इस लेख को जनचौक ने तीन किस्तों में देने का फैसला किया है। पेश है इसकी पहली किस्त-संपादक)

आज जब चिली, कैटेलोनिया, ब्रिटेन, फ्रांस, इराक, लेबनान और हांगकांग की सड़कें प्रदर्शनों के शोर से गूंज रहीं हैं और नई पीढ़ी धरती के साथ की गई ज्यादतियों के कारण गुस्से में है, इस बीच मैं आप लोगों को एक ऐसी जगह की कहानी सुनाने के लिए माफी चाहती हूं जहां की सड़कों पर कुछ अलग ही घट रहा है। एक ऐसा वक्त था जब हिंदुस्तान की सड़कों पर मुझे फख्र हुआ करता था। मुझे आज भी याद है कि सालों पहले मैंने लिखा था कि “असहमति” हिंदुस्तान का दुनिया को सबसे उम्दा निर्यात है।

लेकिन आज जब धरती का पश्चिमी कोना प्रदर्शनों की धमक से कांप रहा है, हमारे यहां सामाजिक और पर्यावरण न्याय के लिए पूंजीवाद और साम्राज्यवाद विरोधी महान आंदोलन-बड़े बड़े बांधों, निजीकरण और नदियों व जंगलों की लूट के खिलाफ, बड़े पैमाने पर विस्थापन, मूलनिवासियों की उनकी जमीन से बेदखली के खिलाफ मार्च—जैसे सुन्न पड़ गए हैं। इस साल 17 सितंबर को जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने 69वें जन्मदिन के मौके पर खुद को पानी से लबालब सरदार सरोवर बांध तोहफे में दिया, उसी समय उस बांध के खिलाफ 30 सालों से भी ज्यादा अरसे तक लोहा लेने वाले हजारों–हजार ग्रामीण लोग अपने घरों को जल समाधि लेते देख रहे थे। यह एक बड़ा प्रतीकात्मक क्षण था।

हिंदुस्तान में आज एक भूतिया साया दिन दहाड़े हमारे ऊपर पसरता जा रहा है। खतरा इतना बड़ा है कि खुद हमारे लिए इसके आकार, बदलती शक्ल, गंभीरता और अलग-अलग रूपों को समझ पाना और बताना मुश्किल से मुश्किल-तर होता जा रहा है। इसके असली रूप को बताने में खतरा यह है कि यह कहीं अतिश्योक्ति न लगने लगे। और इसलिए विश्वसनीयता और शिष्टाचार का ख्याल रखते हुए हम इस पिशाच को पाले जा रहे हैं जबकि इसने अपने दांत हमारे अंदर गड़ा रखे हैं—हम उसके बालों को संवारते हैं और उसके मुंह से टपकती लार साफ करते हैं ताकि यह शरीफ लोगों के सामने पेश करने के काबिल हो जाए। हिंदुस्तान दुनिया की सबसे खराब या खतरनाक जगह नहीं है, कम से कम अभी तो नहीं ही है, लेकिन यह क्या हो सकता था और यह क्या बन गया, इसके बीच जो कुछ है वही सबसे ज्यादा दुखद है। 

फिलहाल कश्मीर घाटी के 70 लाख लोग, जिनमें से अधिकांश लोग हिंदुस्तान के नागरिक नहीं रहना चाहते और जिन्होंने दशकों तक आत्मनिर्णय के अधिकार की लड़ाई लड़ी, वे अब डिजिटल बंदिश और दुनिया की सबसे सघन सैन्य उपस्थिति में लॉकडाउन के हालात में जी रहे हैं। साथ ही, देश के पूर्वोत्तर राज्य असम में 20 लाख लोग जो भारत का हिस्सा बनना चाहते हैं, अपना नाम राष्ट्रीय नागरिक पंजिका (एनआरसी) में दर्ज न पाकर बेवतन करार दिए जाने के खतरे का सामना कर रहे हैं। हिंदुस्तानी सरकार ने एनआरसी को पूरे देश में लागू करने का अपना इरादा जाहिर कर दिया है। इसके लिए कानून बनाया जा रहा है। इससे अभूतपूर्व स्तर पर लोगों की बेवतनी होगी।

पश्चिमी मुल्कों के अमीर लोग संभावित जलवायु आपदा के मद्देनजर अपने लिए इंतजाम करने में लगे हैं। ये लोग बंकर बना कर साफ पानी और खाना इकट्ठा कर रहे हैं। गरीब मुल्कों में (दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने के बावजूद, हिंदुस्तान शर्मनाक हद तक अब भी गरीब और भूखा है) अलग ही तरह के इंतजाम किए जा रहे हैं।  5 अगस्त 2019 को हिंदुस्तान सरकार ने कश्मीर पर कब्जा कर लिया।

कब्जे की यह कार्रवाई हिंदुस्तान के गहराते जल संकट से जुड़ी है और अन्य चीजों के अलावा, भारत कश्मीर घाटी से निकलने वाली नदियों को फौरन ही अपने कब्जे में कर लेना चाहता है। एनआरसी नागरिकों की सोपान वाली व्यवस्था का निर्माण करेगी जिसमें कुछ नागरिकों के पास बाकी नागरिकों की तुलना में ज्यादा अधिकार होंगे। यह भी एक तरह से संसाधनों की कमी वाले वक्त की पूर्व तैयारी ही है। हन्ना अरेंट ने कहा था कि नागरिकता अधिकार पाने का अधिकार है।

पर्यावरण संकट का पहला शिकार ‘आजादी, भाईचारा और बराबरी’ का विचार बनेगा। सच तो यह है कि यह बन भी चुका है। मैं कोशिश करूंगी कि विस्तार से बता पाऊं कि क्या हो रहा है और हिंदुस्तान ने इस आधुनिक संकट को हल करने का कैसा आधुनिक इंतजाम किया है। इस इंतजाम की जड़ें हमारे इतिहास के खतरनाक और घिनौने तंतु से जुड़ीं हैं।

समावेश की हिंसा और बहिष्कार की हिंसा उस ऐंठन की अग्रदूत है जो हिंदुस्तान की नींव को हिला सकती है और दुनिया में इसकी पहचान और इसके मायने को नया अर्थ दे सकती है। हिंदुस्तान का संविधान देश को धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी गणतंत्र कहता है। हम “धर्मनिरपेक्षता” को दुनिया से जरा अलग तरीके से परिभाषित करते हैं।  हमारे लिए इसके मायने हैं कि कानून के सामने सभी धर्म बराबर हैं। लेकिन व्यवहार में हिंदुस्तान न कभी धर्मनिरपेक्ष था और न कभी समाजवादी। इसने हमेशा से ऊंची जातियों के हिंदू राज्य की तरह काम किया। लेकिन धर्मनिरपेक्षता का दिखावा ही सही, यह एक ऐसा तकाजा है जो हिंदुस्तान का हिंदुस्तान होना मुमकिन बनाता है। यह ढोंग हमारी सबसे अच्छी चीज है। अगर यह ढोंग भी नहीं रहेगा तो हिंदुस्तान मिट जाएगा।

मई 2019 में, आम चुनाव में दूसरी बार जीतने के बाद भाषण देते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने घमंड से कहा था कि कोई नेता या राजनीतिक दल अपने चुनाव प्रचार में “धर्मनिरपेक्ष” शब्द इस्तेमाल करने की हिम्मत नहीं कर पाया। मोदी ने कहा कि धर्मनिरपेक्षता का टैंक खाली हो गया है। तो अब यह आधिकारिक बात है कि हिंदुस्तान खाली टैंक से चल रहा है, और हम लोग बड़ी देर बाद पाखंड को संजोना सीख रहे हैं। क्योंकि जब धर्मनिरपेक्षता इतिहास बन जाएगी तब हम लोग कम से कम उसके दिखावे को बीते दिनों के अदब-तहजीब की मानिंद याद कर सकेंगे।

असल में हिंदुस्तान एक देश नहीं है। यह एक महाद्वीप है। यूरोप की तुलना में यहां कई सारी भाषाएं (बोलियों को छोड़ कर, आखरी गिनती तक 780 भाषाएं), कई सारी राष्ट्रीयताएं और उप-राष्ट्रीयताएं, कई आदिवासी समुदाय और धर्म हैं। जरा सोचिए कि तब क्या होगा जब यह विविधता का महान सागर, यह नाजुक, तुनक-सा, सामाजिक ताना-बाना अचानक एक हिंदू श्रेष्ठतावादी संगठन के जरिए चलाया जाने लगेगा जो एक राष्ट्र, एक भाषा, एक धर्म और एक संविधान पर यकीन रखता है।

मैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की बात कर रही हूं जिसकी स्थापना 1925 में हुई थी। जो भारतीय जनता पार्टी का मातृ संगठन है। आरएसएस के संस्थापक और शुरुआती विचारक जर्मन और इटालियन फासीवाद से प्रभावित लोग थे। ये लोग हिंदुस्तान के मुसलमानों को “जर्मनी के यहूदियों” की तरह मानते थे और उनका यकीन था कि हिंदू हिंदुस्तान में मुसलमानों की कोई जगह नहीं है। आज आरएसएस, गिरगिट की तरह रंग बदल कर, यह दावा करता है कि वह इस विचार को नहीं मानता लेकिन इसकी नजर में मुसलमान पक्के धोखेबाज “बाहरी” लोग हैं। यह विचार बीजेपी के नेताओं के सार्वजनिक भाषणों में बार-बार सुनाई देता है और दंगा-फसाद करने वाली भीड़ के बीच यह नारा बार-बार गूंजता है। मिसाल के लिए इनका एक नारा है: “मुसलमानों का एक स्थान, कब्रिस्तान या पाकिस्तान।” इस साल अक्टूबर में आरएसएस के सर्वोच्च नेता मोहन भागवत ने कहा, “हिंदुस्तान एक हिंदू राष्ट्र है और इस बात पर कोई समझौता नहीं हो सकता।”

यह विचार हिंदुस्तान से संबंधित तमाम खूबसूरत बातों को तेजाब में बदल देता है।

यह दिखाना कि इस युगांतकारी क्रांति में आखिरकार हिंदू सदियों तक उन पर हुए मुस्लिम शासकों के जुल्मों का अंत कर रहे हैं, आरएसएस के छद्म इतिहास प्रोजेक्ट का हिस्सा है। सच तो यह है कि लाखों-लाख भारतीय मुस्लिम उन जातियों के लोगों के वंशज हैं जो क्रूर जातिवादी प्रथा से बचने के लिए मुसलमान बन गए थे। धर्मांतरण की यही घबराहट 1920 के दशक में आरएसएस के पैदा होने की वजह बनी।

नाजी जर्मनी अपनी सोच को एक महाद्वीप में लागू करना चाहता था लेकिन आरएसएस शासित हिंदुस्तान उससे उल्टी दिशा में चल रहा है। यहां एक महाद्वीप सिकुड़ कर देश बन जाना चाहता है। नहीं, यह तो एक देश को एक प्रांत जितना बनाना चाहता है। एक आदिम, सजातीय धार्मिक प्रांत। यह अकल्पनीय हिंसक प्रक्रिया बनती जा रही है, एक तरह का स्लो-मोशन वाला राजनीतिक विखंडन जिससे निकलने वाली रेडियोधर्मिता ने अपने चारों ओर की सब चीजों को प्रभावित करना शुरू कर दिया है। यह ख्याल अपनी मौत खुद मर जाएगा इस पर कोई शक नहीं, लेकिन सवाल है कि किस-किस को और क्या-क्या अपने साथ लेकर मरेगा।

किसी अन्य श्रेष्ठतावादी और दुनिया भर में बढ़ रहे नव-नाजी समूहों के पास आरएसएस जितना ढांचा नहीं है। देशभर में आरएसएस की 57 हजार शाखाएं हैं और 6 लाख समर्पित हथियारबंद स्वयंसेवक हैं। इसके स्कूलों में लाखों बच्चे पढ़ते हैं, इसका अपना चिकित्सीय मिशन है, मजदूर संगठन है, किसान संगठन है, मीडिया है और औरतों का संगठन है। हाल ही में संघ ने घोषणा की थी कि वह भारतीय सेना में भर्ती होने के इच्छुक लोगों के लिए ट्रेनिंग स्कूल खोलेगा। इसके भगवा ध्वज के नीचे ऐसे अनेक नए-नए उग्र दक्षिणपंथी संगठनों का मेला लगा गया है जिन्हें मिलाकर संघ परिवार कहा जाता है। ये संगठन, जिन्हें शैल कंपनियों का राजनीतिक रूप कहा जा सकता है, अल्पसंख्यकों पर अत्यंत हिंसक हमलों के जिम्मेदार हैं, जिनके नतीजे में पिछले सालों में इतने हजारों लोग कत्ल किए गए कि उनकी गिनती तक मुहैया नहीं है। इनकी मुख्य रणनीति, हिंसा, सांप्रदायिक दंगे भड़काना, और छद्म-देशभक्ति के झंडे उठाकर हमले करना है। यह भगवा अभियान का केंद्रीय काम है। 

आरएसएस की शाखा में नरेंद्र मोदी।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ताउम्र आरएसएस के सदस्य रहे। मोदी आरएसएस का अविष्कार हैं। हालांकि वह ब्राह्मण नहीं हैं लेकिन उन्होंने अन्य किसी के मुकाबले इस संगठन को हिंदुस्तान में सबसे ज्यादा ताकतवर बना दिया है और अब वह इस संगठन का सबसे शानदार अध्याय लिखने के करीब हैं। मोदी के सत्ता में आने के पीछे की कहानी उबा देने की हद तक बार-बार दोहराई जा चुकी है लेकिन जिस तरह इस कहानी को अधिकारिक रूप से भुला देने की कोशिश हो रही है, इसलिए इसे दोहराना एक जिम्मेदारी है।

मोदी का राजनीतिक कैरियर अमेरिका में 9/11 के हमलों के कुछ हफ्तों बाद अक्टूबर 2001 में शुरू हुआ। बीजेपी ने गुजरात के निर्वाचित मुख्यमंत्री को हटाकर मोदी को उनकी जगह पर नियुक्त किया। उस वक्त वह विधानसभा के निर्वाचित सदस्य तक नहीं थे। उनके पहले कार्यकाल के पहले तीन महीनों के भीतर एक बर्बर लेकिन रहस्यमयी आगजनी हुई जिसमें एक रेल कोच में सवार 59 हिंदू तीर्थयात्रियों को जला दिया गया। इसका “बदला लेने के लिए” हिंदुओं की बेलगाम भीड़ ने सुनियोजित तांडव किया। अंदाजन 2500 लोगों को, जिनमें ज्यादातर मुसलमान थे, दिन दहाड़े मार डाला गया। इसके तुरंत बाद मोदी ने विधानसभा चुनावों का ऐलान किया और चुनाव जीत गए।

कत्लोगारत के बावजूद नहीं बल्कि कत्लोगारत की वजह से मोदी चुनाव जीते थे। वह हिंदू हृदय सम्राट बन गए। और इसके बाद वह लगातार तीन बार मुख्यमंत्री बने। 2014 में बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर- यह चुनाव भी मुस्लिम नरसंहार के इर्द-गिर्द ही लड़ा गया लेकिन इस बार इसका केंद्र उत्तर प्रदेश का मुजफ्फरनगर था- रॉयटर समाचार एजेंसी के एक पत्रकार ने जब नरेन्द्र मोदी से पूछा कि क्या उन्हें 2002 का हत्याकांड पर पछतावा है तो नरेन्द्र मोदी ने पूरी ईमानदारी से जवाब दिया, “अगर दुर्घटनावश कोई कुत्ता उनकी गाड़ी के नीचे आकर मर जाता है तो इसका भी उन्हें पछतावा होगा।” यह विशुद्ध, प्रशिक्षित आरएसएस की जुबान थी।

जब मोदी ने हिंदुस्तान के 14वें प्रधानमंत्री के तौर पर शपथ ली, सिर्फ हिंदू राष्ट्रवादियों ने जश्न नहीं मनाया बल्कि हिंदुस्तान के जाने-माने उद्योगपतियों और कारोबारियों ने भी उनके सत्ता में विराजमान होने का स्वागत किया। हिंदुस्तान के कई उदारवादियों और अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने उम्मीद और तरक्की की मिसाल के तौर पर इसका जश्न मनाया। इन लोगों को मोदी में भगवा सूट पहनने वाला मसीहा नजर आया जो हिंदुस्तान की प्राचीन और आधुनिक सभ्यता का समिश्रण था। मोदी को हिंदू राष्ट्रवाद और बेलगाम मुक्त बाजार पूंजीवाद के प्रतीक के रूप में देखा गया।

इन सालों में मोदी ने हिंदू राष्ट्रवाद के मोर्चे पर अच्छा प्रदर्शन किया है लेकिन मुक्त व्यापार के मोर्चे पर बुरी तरह पिट गए हैं। गलतियों पर गलतियां कर मोदी ने हिंदुस्तान के अर्थतंत्र को घुटनों के बल गिरा दिया है। 2016 में अपने पहले कार्यकाल में, एक साल पूरा करने के कुछ समय बाद एक दिन अचनाक वह रात को टीवी पर प्रकट हुए और एलान कर दिया कि सभी 500 और 1000 के नोटों पर पाबंदी लगाई जा रही है। ये नोट परिचालन में रही मुद्रा का 80 फीसदी थे। इससे पहले इस स्तर पर कुछ भी नहीं हुआ था। लगता नहीं कि वित्त मंत्री और मुख्य आर्थिक सलाहकार को भरोसे में लिया गया था। मोदी ने इस “नोटबंदी” को भ्रष्टाचार और आतंकवादियों को मिल रही फंडिंग के खिलाफ “सर्जिकल स्ट्राइक” बताया।

यह विशुद्ध रूप से छद्म अर्थशास्त्र था, और नीम-हकीम का यह घरेलू नुस्खा एक अरब की जनता पर थोपा गया था। यह फैसला भयानक त्रासदी साबित हुआ। लेकिन कोई दंगा-फसाद नहीं हुआ, कोई विरोध नहीं हुआ। लोग चुपचाप बैंकों में लाइन लगाकर पुराने नोट जमा करने की अपनी बारी का इंतजार करते रहे। उनके पास और चारा ही क्या था? कोई चिली नहीं, कोई कैटोलोनिया नहीं, कोई लेबनान या हांगकांग नहीं। लगभग रातों-रात नौकरियां गायब हो गईं, निर्माण उद्योग ठप्प पड़ गया और छोटे कारोबार बंद हो गए।

नोटबंदी की कतार में शामिल लोग।

हम जैसे कई लोगों ने बड़ी मासूमियत से मान लिया कि यह मोदी के अंत की शुरुआत है। लेकिन हम लोग गलत साबित हुए। लोगों ने जश्न मनाया। उन्हें दर्द हुआ लेकिन उन्होंने दर्द का मजा लिया। ऐसा लग रहा था जैसे दर्द को मजे में तब्दील कर दिया गया है। यह बात मान ली गई कि इस प्रसवपीड़ा के बाद महान और समृद्ध हिंदू हिंदुस्तान का जन्म होगा। 

कई अर्थशास्त्रियों ने नोटबंदी और माल एवं सेवा कर (जीएसटी) को, जिसकी घोषणा मोदी ने नोटबंदी के बाद की थी, तेजी से चलती कार के पहियों में गोली मारने जैसा बताया था। मोदी ने जीएसटी को “एक राष्ट्र, एक कर” के वादे का मूर्त रूप बताया। बहुतों ने कहा है कि सरकार द्वारा जारी आर्थिक विकास के आंकड़े, जो पहले ही काफी हताशा जनक हैं, सत्य के साथ प्रयोगों जैसे हैं। इनका कहना है कि भारतीय अर्थव्यवस्था मंदी का शिकार है और नोटबंदी ने इस मंदी को और तीखा बनाया है। यहां तक कि सरकार भी मानती है कि बेरोजगारी 45 साल में इस वक्त सबसे ज्यादा है। 2019 के वैश्विक भूख सूचकांक में 117 देशों में हिंदुस्तान 102वें नंबर पर है। इस सूचकांक में नेपाल 73वें, बांग्लादेश 88वें और पाकिस्तान 94वें नंबर पर है।)

लेकिन नोटबंदी केवल आर्थिक मामलों के लिए नहीं थी। यह वफादारी का इम्तिहान थी, मुहब्बत का ऐसा सबूत थी जो महान नेता हम से मांग रहा था। वह पूछ रहा था कि क्या हम लोग उसके पीछे चलने को तैयार हैं, क्या उसे प्यार करते रहेंगे चाहे वह कुछ भी करता रहे? हम इस इम्तेहान में अव्वल दर्जे से पास हो गए। जिस वक्त हम लोगों ने नोटबंदी को कबूल किया उसी वक्त हमने अपने आपको बौना बना लिया और घटिया तानाशाही के आगे घुटने टेक दिए।

लेकिन जो देश के लिए बुरा था वह बीजेपी के लिए अच्छा साबित हुआ। 2016-17 के बीच जब अर्थतंत्र ताश के पत्तों की तरह ढह रहा था बीजेपी दुनिया की सबसे अमीर राजनीतिक पार्टी बन गई। इसकी कमाई में 81 फीसदी की बढ़ोतरी हुई। वह अपनी निकटतम प्रतिद्वंदी पार्टी कांग्रेस से पांच गुना अमीर पार्टी बन गई जिसकी कमाई में 14 फीसदी की गिरावट आई थी। छोटी पार्टियां दिवालिया हो गईं। महत्वपूर्ण राज्य उत्तर प्रदेश में बीजेपी को जीत मिली और 2019 का आम चुनाव उसके लिए फरारी कार और पुरानी साइकिल की रेस जैसा आसान साबित हुआ। क्योंकि चुनाव पैसे के बूते लड़ा जाता है और सत्ता और पूंजी संचय एक ही सिक्के के दो पहलू की तरह हैं, तो लगता नहीं कि निकट भविष्य में मुक्त और निष्पक्ष चुनाव होंगे। वाकई नहीं लगता कि नोटबंदी बड़ी गलती थी।

मोदी के दूसरे कार्यकाल में आरएसएस ने अपना खेल पहले से ज्यादा बड़ा बना लिया है। अब यह संगठन एक शेडो स्टेट या समानांतर सरकार नहीं बल्कि असली स्टेट है। दिन-ब-दिन हमारे पास न्यायपालिका, मीडिया, पुलिस, गुप्तचर संस्थाओं में इसके नियंत्रण के उदाहरण सामने आ रहे हैं। चिंताजनक बात है कि यह सशस्त्र बलों में भी एक हद तक प्रभाव रखता है। विदेशी कूटनयिक और राजनयिक इसके नागपुर स्थित मुख्यालय में जाकर बाअदब हाजरी लगाते हैं।

चीजें इस स्तर पर पहुंच गई हैं कि प्रत्यक्ष नियंत्रण जरूरी नहीं रहा है। चार सौ से ज्यादा टीवी समाचार चैनल, लाखों व्हाट्सएप ग्रुप और टिकटॉक वीडियो जनता को धर्मांधता के नशे में डुबाए रखते हैं।

तीन दिन पहले, 9 नवंबर को भारत की सर्वोच्च अदालत ने “दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण” कहे जा रहे मामले पर फैसला सुनाया। 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में विश्व हिंदू परिषद और बीजेपी नेताओं की अगुवाई में हिंदू उपद्रवियों की भीड़ ने 450 साल पुरानी एक मस्जिद को ढहा दिया था। इनका दावा था कि यह मस्जिद, बाबरी मस्जिद, एक मंदिर के खंडहरों पर बनाई गई थी जो भगवान राम का जन्मस्थान था। मस्जिद ढहाए जाने के बाद हुई सांप्रदायिक हिंसा में दो हजार से ज्यादा लोग मारे गए, जिनमें अधिकांश मुसलमान थे। 9 नवंबर के फैसले में अदालत ने कहा कि कानूनी तौर मुस्लिम मस्जिद पर अपना एकमात्र और निरंतर मालिकाना हक साबित नहीं कर पाए।

अदालत ने इस स्थान को एक ट्रस्ट के हवाले कर दिया – जिसका गठन बीजेपी सरकार करेगी- और उसे मंदिर बनाने का जिम्मा सौंप दिया। फैसले का विरोध करने वालों की व्यापक स्तर पर गिरफ्तारियां हुईं। वीएचपी ने अपने पुराने बयान से पीछे हटने से इनकार कर दिया है कि अब वह दूसरी मस्जिदों पर दावा करेगी। यह एक अंतहीन अभियान बन सकता है, और क्यों न हो, आखिर सभी लोग कहीं न कहीं से तो आए ही हैं और सभी इमारतें किसी न किसी इमारत के ऊपर ही बनी हैं।

अकूत पैसा जितना प्रभाव-उत्पादक होता है, उसी के बूते पर बीजेपी ने अपने सियासी प्रति-द्वंदियों को अपने में मिलाया, खरीदा, या महज कुचल डाला। इसका सबसे ज्यादा नुकसान उत्तर प्रदेश और बिहार में दलित और दूसरी अधिकारहीन जातियों के आधार वाली पार्टियों को हुआ है। इन पार्टियों (बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल और समाजवादी पार्टी) के पारंपरिक समर्थकों का बड़ा हिस्सा बीजेपी में शामिल हो गया है। इसे हासिल करने के लिए बीजेपी ने दलित और पिछड़ी जातियों के अंदर मौजूद जाति की ऊंच-नीच का फायदा उठाया है। इन जातियों के भीतर ऊंच-नीच का अपना ही एक ब्रह्मांड है। जाति के बारे में बीजेपी की गहरी और साजिशी समझ और अकूत पैसे ने जातीय राजनीति के पुराने चुनावी समीकरण को पूरी तरह से बदल दिया है।

दलित और पिछड़ी जाति के वोटों को अपनी तरफ आकर्षित कर लेने के बाद बीजेपी ने शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्रों के निजीकरण की नीतियों को आगे बढ़ाया है और वह तेजी के साथ आरक्षण से मिलने वाले फायदों को खत्म कर रही है। वह पिछड़ी जाति के लोगों को रोजगार और शिक्षा संस्थान से बाहर कर रही है। इस बीच राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो से पता चलता है कि दलितों के खिलाफ अत्याचार कई गुना बढ़ गया है, जिसमें उनकी लिंचिंग और खुलेआम पिटाई जैसे अपराध शामिल हैं। इस साल सितंबर में जब गेट्स फाउंडेशन ने मोदी को हिंदुस्तान को खुले में शौच मुक्त बनाने के लिए सम्मानित किया, उसी वक्त खुले में शौच करने के लिए दो दलित बच्चों को मार डाला गया। किसी प्रधानमंत्री को सफाई के लिए सम्मानित करना जबकि लाखों दलित अभी भी हाथों से मैला उठा रहे हैं, एक भद्दा मजाक है।

जारी…

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