Thursday, April 25, 2024

शीतला सिंह: धार्मिक उन्माद व पत्रकारिता के दूषित प्रवाहों के विरुद्ध अलख जगाये रखने वाला महारथी चला गया 

बीती शताब्दी के नवें दशक की बात है। ‘पढ़ाई-लिखाई’ खत्मकर बेरोजगार घूम रहा था और कई मीडिया संस्थानों में खासा बढ़िया इंटरव्यू देने के बावजूद हाथ लगी निराशा ने मनोबल को बुरी तरह तोड़ रखा था। इसलिए अयोध्या (उन दिनों फैजाबाद) से प्रकाशित दैनिक जनमोर्चा से, जिसकी जनपक्षधरता की उन दिनों उसके अंचल में तूती बोलती थी, इंटरव्यू के लिए बुलावा आया तो भी अंदर से बहुत उत्साह नहीं जागा।

सोचा, फिर वही अजीबोगरीब सवाल-जवाब होंगे, वही ‘जरूरत होगी, तो बुला लेंगे आपको’ और फिर वही निराश करने वाला अंतहीन इंतजार। लेकिन यह क्या, सौ किलोमीटर की यात्रा कर फैजाबाद के चौक में बजाजा स्थित जनमोर्चा के दफ्तर पहुंचकर किसी से पूछा कि सम्पादक जी (यानी शीतला सिंह) कहां बैठते हैं तो उसने इशारे से बताया- देख नहीं रहे, सामने वाली कुर्सी पर बैठे हैं।

हुंह! यह कैसे सम्पादक हैं? न ढंग का कमरा, न केबिन, न इंतजार करते मिलने वाले, न उन्हें रोकने को चपरासी, न समय लेने और स्लिप भिजवाने का झंझट! सम्पादक हैं कि…? मैंने मन ही मन सोचा और अंदाजा लगाया कि यह बन्दा जरूर किसी और मिट्टी का बना हुआ है। बहरहाल, उनकी कुर्सी के सामने जा खड़ा हुआ तो उन्होंने बैठने को तो नहीं कहा, लेकिन भरपूर मुस्कुराये।

तब तक मुझे कई तरह की मुस्कानों का तजुर्बा हो चुका था, लेकिन उनकी मुस्कान मुझे कुटिलता से एकदम रहित लगी, निर्मल और उन्मुक्त। मैंने परिचय दिया तो बोले- हां, बायोडाटा देख लिया है आपका। दिन रात लिखने पढ़ने वाले आदमी लगते हैं आप। लेकिन जनमोर्चा में आपकी नौकरी आपके इस सवाल के जवाब पर निर्भर करेगी कि आपकी शादी हुई है या नहीं।

जाड़े के दिन थे वे लेकिन उनकी बात सुनकर मुझे पसीना छूटने लगा। हिम्मत करके कहा- मेरी शादी हो गई है सर, लेकिन जनमोर्चा की नौकरी का मेरी शादी से भला क्या सम्बन्ध।

वे हंसे और बोले- तुम्हें नहीं मालूम कि शादीशुदा आदमी कितना जिम्मेदार होता है! आज्ञापालन की कितनी आदत होती है उसे।

बाद में जनमोर्चा की नौकरी के कई सालों बाद पता चला मुझे, कि उस रोज वे मुझे नहीं अपने गुरु महात्मा हरगोविन्द को ‘सता’ रहे थे, जिन्होंने इसलिए शादी नहीं की थी कि उन्हें लगता था कि शादी से स्वतंत्रता संघर्ष में उनकी सक्रिय भागीदारी में बाधा आयेगी। फिर उन्होंने अपने जीवन के दो और लक्ष्य निर्धारित कर लिये थे- मुक्तिकामी लेखन और लोगों को जागरूक करने वाली पत्रकारिता। गजब यह कि शीतला सिंह बाल-बच्चेदार होने के बावजूद उनके अभिन्न अनुयायी थे।

बाद के दिनों में जनमोर्चा में काम करते हुए मुझे शीतला सिंह के सम्पादकीय व्यक्तित्व की दो और बातें बहुत अच्छी लगीं। पहली यह कि उनसे किसी भी समय किसी भी काम के लिए मिला जा सकता था और दूसरी यह कि किसी भी मामले में उनकी आंखों से आंखें मिलाकर कहा जा सकता था कि इस मामले में मैं आपसे सहमत नहीं हूं।

और एक दिन तो गजब ही हो गया। एक बड़े दैनिक ने मुझसे उनका इंटरव्यू करने के लिए कहा। मैंने इस बाबत उनसे बात की तो पहले तो उन्होंने चुटकी ली कि एक दिन मैंने तुम्हारा इंटरव्यू लिया था, अब तुम मेरा लोगे? न बाबा न, मैं नहीं देता। जानें क्या पूछ लो तुम। फिर बड़ी मुश्किल से राजी भी हुए तो कहा- अपने सारे सवाल लिख लाओ। मैं लिखकर ले गया तो आदेश दिया- अब इनका जवाब भी लिख डालो।

मैं हतप्रभ-सा हो गया तो कहने लगे- दो दशक मेरे साथ काम करके भी तुम मुझे नहीं समझ पाये तो तुम पर भी लानत है और मुझ पर भी। मरता क्या न करता, मैंने जवाब भी लिखे और उन्हें दिखाने ले गया तो बोले-ये हुई न बात! थोडे़ बहुत करेक्शन किये और मुझे लौटा दिया।

अलबत्ता, बाद में एक और बातचीत में उन्होंने बहुत खुलकर बेधड़क अपने विचार व्यक्त किये थे। कहा था: “आज की तारीख में यह देखकर बहुत अफसोस होता है कि पत्रकारिता की मार्फत जितनी जन-जागरूकता हम लाना चाहते थे, नहीं ला पाये। लेकिन फिर सोचता हूं कि यह असफलता मेरी अकेले की नहीं, सामूहिक है। इस क्षेत्र में व्यावसायिकता और लाभ का सारी नैतिकताओं से ऊपर होते जाना देखकर भी अफसोस होता है। मेरे देखते ही देखते मूल्याधारित (वैल्यूवेस्ड) और जनपक्षधर पत्रकारिता की अलख जगाने वाले सम्पादकों की पीढ़ी समाप्ति के कगार पर पहुंच गयी और अपनी निजी उपलब्धियों के लिए चिन्तित रहने वाले लोग चारों ओर छा गये। वे निजी लाभों के लिए किसी भी हद तक गिरने को तैयार रहते हैं और सबसे अफसोसजनक यह है कि अब संपादक नाम की संस्था ही लुप्त होने के कगार पर है।”

गत मंगलवार को अयोध्या के एक अस्पताल में उन्होंने अंतिम सांस ली तो मैंने उनकी इन्हीं बातों से आईने में देखा था कि हिन्दी की पत्रकारिता ने उनके जीवन के साथ क्या-क्या खो दिया है और वह कितनी निर्धन होकर रह गई है।

लेकिन मैं अभी भी नहीं सोच पा रहा कि उनके द्वारा जनमोर्चा की मार्फत विकसित की गई अनूठी वस्तुनिष्ठ व प्रतिरोधी पत्रकारिता का आगे क्या होगा! खासकर जब उनके ही अनुसार अब न पुराने वक्त की तरह समयदानी पत्रकार रह गये हैं, न ही त्यागी। यों, यह सवाल आज इसलिए भी बड़ा लगता है कि कोई साठ साल के उनके सम्पादन काल में ही जनमोर्चा ने अपनी हीरक जयंती मनाई और जानकारों के मुताबिक वे दुनिया के सबसे लम्बे कार्यकाल तक पद पर बने रहने वाले सम्पादक बने।

उनका यह कार्यकाल 1962 में भारत चीन युद्ध के दौरान जनमोर्चा के एक सम्पादकीय को सरकार के युद्ध प्रयत्नों में बाधक करार देकर उसके संस्थापक संपादक महात्मा हरगोविन्द को जेल भेज दिये जाने के बाद की बेहद असामान्य परिस्थितियों में शुरू हुआ था। वे कोई चार दशकों तक अयोध्या में समाजवादी विचारक डाॅ. राममनोहर लोहिया की परिकल्पना वाले रामायण मेलों के आयोजन के सूत्रधार और चार बार प्रेस कौंसिल ऑफ इंडिया के सदस्य भी रहे।

अयोध्या विवाद की उग्रता के दिनों में एक के बाद एक चलते रहने वाले उसके समाधान के प्रयासों का हिस्सा होने के कारण वे उसकी रग-रग से वाकिफ हो चले थे। उनकी यह वाकफियत ऐसी थी कि कई लोग उन्हें उस मामले का विशेषज्ञ करार देने लगे थे। लेकिन अपनी अलग तरह की नैतिकता के तहत उन्होंने इस विशेषज्ञता का किसी भी स्तर पर कोई लाभ उठाने से हमेशा परहेज बरता।

हां, प्रवाह के विपरीत तैरने और किसी भी तरह के दबाव में न आने वाली शीतला सिंह की आदत उनके आखिरी क्षणों तक बनी रही। तब भी जब रामजन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद के बहाने देश को झुलसाता आ रहा उग्र व हमलावर धार्मिक साम्प्रदायिक उन्माद हिन्दी पत्रकारिता के कई दूषित प्रवाहों के साथ अयोध्या में उनकी और जनमोर्चा की देहरी तक आ पहुंचा था। वे प्रायः कहते थे कि नदी की धारा के साथ तो मरी हुई मछलियां ही बहती हैं। जब तक उनमें जीवन रहता है, वे उसके प्रवाह को चीरती रहती हैं और जब तक चीरती रहती हैं, कोई उनके जिन्दा रहने पर संदेह नहीं करता।

उनकी एकमात्र इच्छा थी कि वे अपनी आखिरी सांस तक सक्रिय रहें और लम्बे अरसे से बीमार होने के बावजूद उन्होंने अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति से इसे संभव कर दिखाया। मंगलवार को अपने आखिरी दिन भी वे जनमोर्चा आये और लौटकर घर गये तो थोड़ी बेचैनी की शिकायत की और थोड़ी ही देर में इस दुनिया को अलविदा कह दिया।

(कृष्ण प्रताप सिंह जनमोर्चा के संपादक हैं और फैजाबाद में रहते हैं।)

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