सुखदेव थोराट का लेख:  उच्च शिक्षा संस्थानों में  एससी-एसटी छात्रों की आत्महत्याओं को रोकने के लिए जरूरी चार उपाय

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आईआईटी-बॉम्बे के केमिकल इंजीनियरिंग के छात्र दर्शन सोलंकी की आत्महत्या के मामले में एक नया मोड़ आ गया है। मामले की जांच कर रही मुंबई पुलिस की विशेष जांच टीम (एसआईटी) को एक सुसाइड नोट मिला है जिसके बाद जाति आधारित उत्पीड़न और आत्महत्या के लिए उकसाये जाने की आशंका को फिर से बल मिला है। जबकि इससे पहले आईआईटी द्वारा गठित 12 सदस्यीय जांच समिति ने जातीय भेदभाव के पहलू से इंकार किया था और कमजोर शैक्षणिक प्रदर्शन को एक संभावित कारण बताया था।

आत्महत्या के मामलों में ऐसी जांच समितियों के निष्कर्ष हमेशा ऐसे ही होते हैं, यह 2016 के रोहित वेमुला मामले में भी हम देख चुके हैं। नीतियां बनाने वाले निकायों के वायदे भी हमेशा उसी तरह से, बिना किसी ठोस निर्णय के गुम हो जाते हैं। 2016 में इसी तरह के वायदों में से एक, शिक्षण संस्थानों के परिसरों में जातीय भेदभाव के खिलाफ रोहित वेमुला क़ानून बनाने का था, जिसके तहत भेदभाव और ग़ैरबराबरी के प्रति छात्रों को संवेदनशील बनाया जाना, पिछड़ रहे छात्रों को अतिरिक्त शैक्षणिक मदद दिया जाना और समान अवसर उपलब्ध कराने के लिए प्रकोष्ठ तैयार किये जाने थे। सरकार और ‘विश्वविद्यालय अनुदान आयोग’ (यूजीसी) ने इस संबंध में अगर शीघ्र निर्णय लिये होते तो ऐसी घटनाएं नहीं घटी होतीं। यह एक आपराधिक उपेक्षा है। अब सरकार को निम्नलिखित क़दम शीघ्र उठाने के बारे में सोचना चाहिए।

पहला, जिस तरह रैगिंग विरोधी क़ानून बनाया गया था, उसी तरह जातीय भेदभाव को भी दंडनीय अपराध घोषित कर दिया जाए। ‘नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम-1955’ और ‘अनुसूचित जाति/जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनियम-1989’ कुल 37 तरह के भेदभावों को ग़ैरक़ानूनी घोषित करते हैं, लेकिन वे शैक्षणिक संस्थानों पर पर्याप्त रूप से लागू नहीं होते। इसे देखते हुए ‘यूजीसी’ ने 2012 में नियम बनाये, जो परिसरों में जाति, पंथ, धर्म, जातीयता और लिंग आधारित भेदभाव, उत्पीड़न, अनुचित व्यवहार और अत्याचारों को निषिद्ध करते हैं। लेकिन इन दिशानिर्देशों को प्रभावी ढंग से लागू नहीं किया गया। यहां तक कि हाल ही में जब मैं आईआईटी-बॉम्बे गया था तो वहां के प्रशासन को इन नियमों के बारे में कोई जानकारी तक नहीं थी।

इसलिए परिसर में जातीय भेदभाव को दंडनीय अपराध घोषित किये जाने को एक उचित विकल्प के तौर पर विचार किया जाना चाहिए। शिक्षा मंत्रलय द्वारा जारी नीतियों के संबंध में पिछले दशक में रैगिंग पर लगाम लगाना सफलता की एक दास्तान है। मेरी राय में उसी तरीक़े को अपनाया जाना चाहिए। एक बार छात्रों को यह बात समझ में आ जाए कि जातीय पूर्वाग्रह उनके कैरियर को ख़तरे में डाल देगा, तो जातीय भेदभाव में कमी आ जाएगी। अगर सरकार ने शिक्षण संस्थाओं में भेदभाव को दंडनीय अपराध घोषित कर दिया होता तो हालिया आत्महत्या की घटनाएं नहीं घटी होतीं।

दूसरा क़दम है, भेदभाव और ग़ैरबराबरी की समस्याओं के बारे में छात्रों को शिक्षित करने और संवेदनशील बनाने के लिए एक अनिवार्य पाठ्यक्रम शुरू करना। लोकतांत्रिक मूल्यों और आचरणों के असंगत परंपरागत मूल्य बच्चों के विकास के शुरुआती दिनों से ही समाज और परिवार में समाजीकरण के माध्यम से उनके व्यवहार को आकार देते रहते हैं। परिसर के उनके व्यवहार में भी यही चीज प्रतिबिंबित होती है। सभी छात्रों के लिए एक अनिवार्य पाठ्यक्रम उन्हें इन ग़ैर लोकतांत्रिक मूल्यों से मुक्त कर सकता है। एक अफ्रीकी-अमरीकी शिक्षाविद जे. ए. बैंक्स का मानना है कि “21वीं सदी में शिक्षा की भूमिका यह है कि छात्र ऐसे रास्तों को जानें, ध्यान रखें और उस दिशा में काम करें, जिनसे एक लोकतात्रिक और न्यायपूर्ण समाज को विकसित और संपोषित किया जा सके। साथ ही वे व्यक्तिगत, सामाजिक और नागरिक कार्यवाहियों के प्रति अपने भीतर प्रतिबद्धता तथा जरूरी ज्ञान और कौशल को विकसित कर सकें।”

अमरीका तथा कुछ अन्य देशों के विश्वविद्यालयों ने सन् 2000 में नागरिकता शिक्षण की शुरुआत की, जो बहुत उपयोगी साबित हुआ। ऐसे पाठ्यक्रमों ने छात्रों को आमने-सामने बैठाकर बहस-मुबाहिसों के माध्यम से उनके पूर्वाग्रहों तथा बनी-बनायी रूढ़ छवियों को तोड़ने तथा उन्हें भिन्नताओं का सम्मान करना सीखने में सक्षम बनाया। चूंकि ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020’ में मूल्य आधारित शिक्षा का प्रस्ताव किया गया है, अतः भेदभाव और ग़ैरबराबरी की निरंतरता के खिलाफ छात्रों को संवेदनशील बनाने के लिए सरकार को एक अनिवार्य पाठ्यक्रम शुरू करने के लिए जरूरी क़दम उठाने चाहिए।

तीसरा उपाय है, छात्रों के स्तरों में गहरी भिन्नता के मद्देनज़र, अपने सहपाठियों से पिछड़ रहे छात्रों को उनकी कमजोरियों को दुरुस्त करने वाली शैक्षणिक मदद की अनिवार्य व्यवस्था करना। कमजोरियों को दुरुस्त करने वाले प्रशिक्षण की नीति कोई नयी चीज नहीं है, लेकिन दुर्भाग्य से संस्थानों ने इसे गंभीरता से नहीं लिया। यूजीसी को अंग्रेजी भाषा और मुख्य विषयों में प्रवीणता बढ़ाने के लिए छात्रों की कमजोरियों को दुरुस्त करने वाली मदद कार्यक्रम को अनिवार्य बनाने के संबंध में नियम बनाना चाहिए। इससे छात्रों के शैक्षणिक प्रदर्शन को सुधारने तथा उनके मनोवैज्ञानिक दबावों को खत्म करने में मदद मिलेगी। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में सन् 2000 में शुरू किया गया व्यक्तिगत जरूरतों पर आधारित छात्रों की कमजोरियों को दुरुस्त करने वाली मदद का कार्यक्रम अपने सकारात्मक प्रभावों के लिए एक खास उदाहरण है।

सारतः, यूजीसी के 2012 के नियमों को लागू करने के साथ ही छात्रों को समान अवसर उपलब्ध कराने के लिए प्रकोष्ठ तैयार किया जाना, भेदभाव रोकने वाले अधिकारियों की नियुक्ति, नागरिकता शिक्षण के पाठ्यक्रम तथा व्यक्तिगत समस्याओं को ध्यान में रखते हुए उनकी कमजोरियों को दुरुस्त करने वाली शैक्षणिक मदद के कार्यक्रम शुरू करने की जरूरत है। अब समय आ गया है कि सरकार तुरंत इन मोर्चों पर आगे बढ़े और छात्र संगठनों से अतीत में किये गये वायदों को पूरा करे, ताकि छात्रों की भावी आत्महत्याओं के प्रेत से बचा जा सके।  

(जेएनयू के पूर्व प्रोफेसर सुखदेव थोराट यूजीसी के चेयरमैन रहे हैं। शिक्षाविद् और आर्थशास्त्री के रूप में भी उनकी ख्याति है। उनका यह लेख हिंदुस्तान टाइम्स में प्रकाशित हुआ था। साभार प्रकाशन। अनुवाद-शैलेश )

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