उच्चतम न्यायालय के चीफ जस्टिस एनवी रमना, जस्टिस एएस बोपन्ना और जस्टिस ऋषिकेश रॉय की पीठ ने गुरुवार को देश में राजद्रोह कानून के बड़े पैमाने पर दुरुपयोग पर चिंता व्यक्त की। सीजेआई एनवी रमना ने भी विरोध को रोकने के लिए कथित तौर पर 1870 में औपनिवेशिक युग के दौरान डाले गए प्रावधान (आईपीसी की धारा 124 ए) के उपयोग को जारी रखने पर आपत्ति व्यक्त की। केंद्र सरकार की ओर से पेश सालिसीटर जनरल तुषार मेहता ने उच्चतम न्यायालय का राजद्रोह कानून के बड़े पैमाने पर दुरुपयोग को लेकर कठोर रुख को देखते हुए संकेत दिए कि सरकार इस कानून का दुरुपयोग रोकने के लिए कदम उठाना चाहती है।
इस तरह के जितने भी ऐसे मुद्दे आते हैं जिनमें केंद्र सरकार फंसती दिखती है सालिसीटर जनरल तुषार मेहता का यही प्रयास होता है कि कोर्ट कोई आदेश न दे बल्कि केंद्र सरकार को निर्णय लेने के लिए दे ताकि मामले को और लटकाया जा सके और मनमाने कथित सुधारात्मक कदम उठाया जा सकें।
चीफ जस्टिस रमना ने आईपीसी की धारा 124 ए को चुनौती देने वाली याचिका पर नोटिस जारी करते हुए कहा कि कानून के बारे में इस विवाद का संबंध है, यह औपनिवेशिक कानून है। यह स्वतंत्रता आंदोलन को दबाने के लिए था, उसी कानून का इस्तेमाल अंग्रेजों ने महात्मा गांधी, तिलक आदि को चुप कराने के लिए किया था। आजादी के 75 साल बाद भी क्या यह जरूरी है? आज़ादी के 75 साल बाद भी इस तरह के कानूनों को जारी रखना दुर्भाग्यपूर्ण है।
कोर्ट ने जिस याचिका पर नोटिस जारी किया है उसमें 1962 में आए केदारनाथ सिंह बनाम बिहार फैसले पर सवाल उठाए गए हैं। उस फैसले में कोर्ट ने कहा था कि आईपीसी की धारा 124A वैध है, लेकिन इसका उपयोग ऐसे मामलों में ही होना चाहिए जिसमें किसी के कुछ कहने से सचमुच हिंसा हुई हो या सरकार के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह का अंदेशा हो।
याचिका में कहा गया है कि यह फैसला पुराना पड़ चुका है। यह दुनियाभर में प्रचलित उस कानूनी सिद्धांत के मुताबिक नहीं है जिसमें किसी की बोलने की स्वतंत्रता को डरा कर दबाने को गलत माना गया है।
पीठ ने देशभर में राजनीतिक कारणों से इस धारा के दुरुपयोग का हवाला दिया। चीफ जस्टिस ने टिप्पणी की कि किसी राज्य में सत्ताधारी पार्टी अपने विरोधियों के ऊपर यह धारा लगवा देती है।
चीफ जस्टिस रमना ने कहा कि सरकार कई कानून हटा रही है, मुझे नहीं पता कि वे इस पर गौर क्यों नहीं कर रहे हैं। अगर हम इस धारा को लगाने के इतिहास को देखें, तो इस धारा की विशाल शक्ति की तुलना एक बढ़ई से की जा सकती है जिसके पास एक वस्तु बनाने के लिए आरी है, जो इसका उपयोग एक पेड़ के बजाय पूरे जंगल को काटने के लिए करता है। यही प्रावधान का प्रभाव है।
चीफ जस्टिस रमना ने स्पष्ट किया कि वह प्रावधान के दुरुपयोग के लिए किसी राज्य या सरकार को दोषी नहीं ठहरा रहे हैं, लेकिन दुर्भाग्य से, निष्पादन एजेंसी और विशेष रूप से अधिकारी इसका दुरुपयोग करते हैं। 66 ए का उदाहरण लें, जिसे हटा दिया गया था लेकिन लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया है। इन प्रावधानों का दुरुपयोग है, लेकिन कोई जवाबदेही नहीं है!” न्यायाधीश ने स्पष्ट किया कि धारा 124 ए के तहत शक्तियां इतनी विशाल हैं कि एक पुलिस अधिकारी जो किसी को ताश, जुआ आदि खेलने के लिए फंसाना चाहता है, धारा 124 ए भी लागू कर सकता है।
चीफ जस्टिस रमना ने कहा कि हमारी चिंता कानून के दुरुपयोग और कार्यकारी एजेंसियों की जवाबदेही ना होने की है। सीजेआई ने कहा कि स्थिति की गंभीरता इतनी विकट है कि अगर कोई राज्य या कोई विशेष दल आवाज नहीं सुनना चाहता है, तो वे इस कानून का इस्तेमाल ऐसे लोगों के समूहों को फंसाने के लिए करेंगे।
उच्चतम न्यायालय सेना के दिग्गज मेजर-जनरल एसजी वोम्बटकेरे (सेवानिवृत्त) द्वारा दायर एक याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें आईपीसी की धारा 124 ए के तहत राजद्रोह के अपराध की संवैधानिकता को अस्पष्ट होने और बोलने की स्वतंत्रता पर प्रतिकूल प्रभाव होने के लिए चुनौती दी गई थी।
अधिवक्ता प्रसन्ना एस के माध्यम से दायर की गई याचिका में कहा गया है कि आईपीसी की धारा 124ए संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) के विपरीत है, जिसे अनुच्छेद 14 और 21 के साथ पढ़ा जाता है, और इसे 1962 में केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य के फैसले में आंशिक रूप से पढ़ने के बाद बरकरार रखा गया था।
सुनवाई के दौरान पीठ ने कहा कि याचिकाकर्ता ने देश की रक्षा के लिए अपना पूरा जीवन कुर्बान कर दिया। हम यह नहीं कह सकते कि यह कोई प्रेरित मुकदमा है।
अटार्नी जनरल ने कहा कि धारा को निरस्त नहीं करना चाहिए और राजद्रोह के कानून का उपयोग करने के लिए मानदंड निर्धारित किए जा सकते हैं। चीफ जस्टिस रमना ने केंद्र को नोटिस जारी करते हुए जवाब दिया कि मैं इस पर गौर करूंगा। संघ की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने नोटिस स्वीकार किया। मेहता ने कहा, “सरकार की तरफ से जवाब दाखिल होने दीजिए। कोर्ट की बहुत सारी चिंताएं कम हो जाएंगी”।
चीफ जस्टिस की पीठ के सामने यह बात भी रखी गई कि आईपीसी की धारा 124A को चुनौती देने वाली कुछ और याचिकाएं दूसरी बेंच के सामने लंबित हैं। इस पर कोर्ट ने कहा कि वह इस बात पर विचार करेगा कि इस याचिका को मामले में लंबित दूसरी याचिकाओं के साथ जोड़ा जा सकता है या नहीं। सुनवाई की अगली तिथि बाद में अधिसूचित की जाएगी।
इसके पहले जस्टिस यूयू ललित की अध्यक्षता वाली पीठ आईपीसी की धारा 124ए की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिका के साथ-साथ हस्तक्षेप आवेदनों पर भी सुनवाई कर रही है। 30 अप्रैल को, कोर्ट ने मणिपुर और छत्तीसगढ़ राज्यों में काम कर रहे दो पत्रकारों द्वारा दायर याचिका में नोटिस जारी किया था। 12 जुलाई को कोर्ट ने मामले में एजी से जवाब मांगा था और मामले को 27 जुलाई तक के लिए स्थगित कर दिया था। प्रतिवादियों को अपना जवाब दाखिल करने के लिए दो सप्ताह का समय दिया गया है।
भारतीय दंड संहिता या आईपीसी की धारा 124ए में राजद्रोह की सजा का उल्लेख है। पर यह कैसे पता चलेगा कि किसी व्यक्ति ने राजद्रोह किया है या नहीं। इस पर कानून में राजद्रोह के चार स्रोत बताए गए हैं, बोले गए शब्द, लिखे गए शब्द, संकेत या कार्टून, पोस्टर या किसी और तरह से प्रस्तुति। अगर दोष साबित हो गया तो तीन साल की सजा या जुर्माना या दोनों हो सकते हैं। अधिकतम सजा उम्रकैद की है।
इस धारा के साथ तीन स्पष्टीकरण भी दिए गए हैं। असंतोष में देशद्रोही और दुश्मनी की सभी भावनाएं शामिल हैं। दूसरा और तीसरा स्पष्टीकरण कहता है कि कोई भी व्यक्ति सरकार के फैसलों या उपायों पर टिप्पणी कर सकता है, पर उसमें उसका अपमान या नफरत नहीं होनी चाहिए। अगर आपने कहा कि यह सरकार अच्छी है, पर वैक्सीन पॉलिसी खराब है तो यह राजद्रोह नहीं है। पर अगर आपने सिर्फ इतना लिखा या कहा कि सरकार की वैक्सीन पॉलिसी खराब है तो यह राजद्रोह बन सकता है। हालिया उदाहरण तो कुछ इसी तरह के निकले हैं।
1870 में आईपीसी बना और लागू हुआ। इस कानून को जेम्स स्टीफन ने लिखा था। राजद्रोह से जुड़े कानून पर जेम्स का कहना था कि सरकार की आलोचना बर्दाश्त नहीं होगी। उसने तो यह फैसला भी पुलिस पर छोड़ दिया था कि किस हरकत को देशद्रोह माना जा सकता है और किसे नहीं। साफ है कि गोरे भारत की आजादी के आंदोलन को दबाना चाहते थे और इसके लिए कानून लाया गया था। ताकि आंदोलनकारियों को दबाया जा सके।
इस कानून को लेकर 1891 के बांगोबासी केस, 1897 और 1908 में बाल गंगाधर तिलक के केस और 1922 में महात्मा गांधी के केस में अदालतों ने कहा कि जरूरी नहीं कि हिंसा भड़कनी चाहिए। अगर अधिकारियों को लगता है कि किसी बयान से सरकार के खिलाफ असंतोष भड़क सकता है तो राजद्रोह के तहत गिरफ्तार कर सजा सुनाई जा सकती है। तिलक के केस में तो जस्टिस आर्थर स्ट्राची ने कहा था कि असंतोष भड़काने की कोशिश करना भी राजद्रोह है।
आर्टिकल-14 डॉट कॉम ने 2020 में एक रिसर्च में यह दावा किया है कि 2010 से 2020 के बीच करीब 11 हजार लोगों के खिलाफ देशद्रोह के 816 केस दर्ज हुए। इसमें 65 फीसद लोगों को मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद आरोपी बनाया गया। इनमें विपक्ष के नेता, छात्र, पत्रकार, लेखक और शिक्षाविद शामिल हैं। 405 भारतीयों के खिलाफ नेताओं और सरकारों की आलोचना करने पर राजद्रोह के आरोप लगे। इनमें 96% केस 2014 के बाद रजिस्टर हुए। इसमें भी 149 पर मोदी के खिलाफ गंभीर और अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल करने का आरोप है। 144 केस उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की आलोचना करने के हैं।
मनमोहन सिंह की यूपीए-2 सरकार की तुलना में 2014 से 2020 के बीच हर साल राजद्रोह के केस में 28% की बढ़ोतरी हुई है। ज्यादातर केस सरकार के खिलाफ हुए आंदोलनों को लेकर दाखिल हुए। इनमें ज्यादातर केस नागरिकता कानून में संशोधन और हाथरस में दलित किशोरी के दुष्कर्म के विरोध में हुए आंदोलनों को लेकर दर्ज हुए।
(वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह की रिपोर्ट।)