Thursday, April 25, 2024

न्याय के मामले में भी बेहद सीमित हो गयी है सुप्रीम कोर्ट की भूमिका

उच्चतम न्यायालय ने कल शीशे की तरह साफ कर दिया कि सरकार की बुद्धिमत्ता (विज्डम) के आगे उच्चतम न्यायालय की बुद्धिमत्ता के कोई मायने नहीं हैं। सरकार के निर्णयों/कार्यों में सुसंगत कानूनों का अनुपालन हो न हो, संविधान का खुलेआम उल्लंघन हो उच्चतम न्यायालय यह मान कर चल रहा है कि नीतिगत निर्णय लेना “सरकार का विशेषाधिकार” है, बेवजह न्यायालय हस्तक्षेप नहीं कर सकता। लाख टके का सवाल यह है कि यदि न्यायपालिका सत्ता के साथ ही खड़ी दिखेगी तो न्याय कैसे मिलेगा? संविधान की न्यायपालिका संरक्षा कैसे करेगी? देश में कानून के शासन की अवधारणा कैसे बनाये रखेगी?

उच्चतम न्यायालय ने कोरोना वायरस महामारी से निबटने के लिये प्रधानमंत्री नागरिक सहायता एवं आपात स्थिति राहत कोष (पीएम केयर्स फंड) बनाने के सरकार के फैसले को निरस्त करने के खिलाफ दायर याचिका सोमवार को खारिज कर दी। चीफ जस्टिस एसए बोबडे, जस्टिस एल नागेश्वर राव और जस्टिस एम एम शांतानागौडर की तीन सदस्यीय पीठ ने वीडियो कांफ्रेंसिंग के माध्यम से अधिवक्ता मनोहर लाल शर्मा की याचिका सुनवाई के बाद खारिज कर दी। पीठ ने कहा कि यह याचिका मिथ्या तथ्यों पर आधारित है। पीठ याचिकाकर्ता शर्मा की इन दलीलों से सहमत नहीं थी कि इस कोष की स्थापना संविधान के अनुच्छेद 266 और 267 में प्रदत्त योजनाओं का अनुसरण किये बगैर ही की गयी है।

केन्द्र ने 28 मार्च को कोविड-19 जैसी महामारी फैलने और इससे प्रभावित लोगों को राहत प्रदान करने हेतु आपात स्थितियों में प्रधानमंत्री के नागरिक सहायता और राहत कोष (पीएम केयर्स कोष) की स्थापना की थी। प्रधानमंत्री इस कोष के पदेन अध्यक्ष हैं और रक्षा मंत्री, गृह मंत्री तथा वित्त मंत्री इसके पदेन ट्रस्टी हैं। शर्मा ने अपनी जनहित याचिका में कहा कि पीएम केयर्स फंड की स्थापना के बारे में अध्यादेश और राजपत्र में इसकी अधिसूचना प्रकाशित हुए बगैर ही 28 मार्च को प्रेस विज्ञप्ति जारी होने, कोविड- 19 महामारी का मुकाबला करने और भावी स्वास्थ्य सुविधाओं के लिये प्रधानमंत्री की लोगों से इस ट्रस्ट में दान देने की अपील करने के साथ यह मुद्दा उठा।

याचिका में इस कोष के सभी ट्रस्टियों के साथ ही प्रधानमंत्री को भी पक्षकार बनाया गया था। याचिका में इस कोष को मिला सारा दान भारत के समेकित कोष में स्थानांतरित करने का निर्देश देने के साथ ही इस कोष की स्थापना की जांच न्यायालय की निगरानी में विशेष जांच दल से कराने का अनुरोध किया गया था।

केवल गरीब तबकों की मुफ्त कोरोना जाँच

आज ही उच्चतम न्यायालय ने अपना एक फैसला पलट दिया। उच्चतम न्यायालय ने कोरोना टेस्ट फ्री करवाने के अपने पुराने आदेश में बदलाव करते हुए अब इसे केवल गरीब तबकों तक सीमित कर दिया है। नए आदेश के मुताबिक गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले, ईडब्ल्यूएस और आयुष्मान भारत के मरीजों की टेस्टिंग फ्री होगी। इससे पहले आदेश में देश की सर्वोच्च अदालत ने फैसला सुनाया था कि सरकारी या प्राइवेट दोनों की लैबों पर कोरोना वायरस की जांच फ्री होगी।

इस आदेश के बाद एक डॉक्टर ने अपील की थी कि इस आदेश में दोबारा विचार करना चाहिए और केवल गरीबों की ही जांच फ्री में होना चाहिए। उच्चतम न्यायालय ने साथ में यह भी कहा कि कोरोना वायरस की जांच सिर्फ वही लैब करें तो एनएबीएल से मान्यता प्राप्त लैबों या विश्व स्वास्थ्य संगठन या इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च से मंजूरी प्राप्त किसी एजेंसी के जरिए होनी चाहिए।

प्रेस को रोक नहीं सकते

आज उच्चतम न्यायालय ने दिल्ली के निज़ामुद्दीन में तबलीगी जमात की बैठक को कोरोना से जोड़कर सांप्रदायीकरण करने पर मीडिया के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की मांग करने वाली याचिका पर अंतरिम आदेश पारित करने से इनकार कर दिया। चीफ जस्टिस  एसए बोबडे ने कहा कि हम प्रेस को रोक नहीं सकते। हम अंतरिम आदेश / निर्देश पारित नहीं करेंगे। चीफ जस्टिस एसए बोबडे, जस्टिस एलएन राव और जस्टिस एमएम शांतनागौदर की पीठ ने समाचार सामग्री के बारे में ठोस दीर्घकालिक उपाय करने के लिए कहते हुए मामले को दो सप्ताह के लिए स्थगित कर दिया। पीठ ने कहा कि इस मामले में प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया को भी पक्षकार बनाया जाए।

याचिकाकर्ता ने जोर देकर कहा कि अदालत को इस संबंध में कार्रवाई करनी चाहिए क्योंकि कर्नाटक में हिंसा की घटनाएं हुई हैं और लोगों के नाम सार्वजनिक किए गए थे। याचिकाकर्ता ने आरोप लगाया कि वे कोरोना रोगियों के नाम और पते प्रकाशित कर रहे हैं। यह कानून के खिलाफ है। इस पर पीठ ने कहा कि यदि याचिकाकर्ता की प्रार्थना हत्याओं और मानहानि की तरफ है तो उसका उपाय कहीं और है।

पिछले हफ्ते, इस्लामिक विद्वानों के संगठन, जमीयत उलमा-ए-हिंद ने दिल्ली के निज़ामुद्दीन में तबलीगी जमात की बैठक के सांप्रदायीकरण करने के लिए मीडिया के खिलाफ सख्त कार्रवाई की मांग करते हुए सुप्रीम कोर्ट का रुख किया। दलीलों में कहा गया है कि मीडिया के कुछ वर्ग “सांप्रदायिक सुर्खियों” और ” कट्टर बयानों” का इस्तेमाल कर रहे हैं, ताकि पूरे देश में जान बूझकर कोरोना वायरस फैलाने के लिए पूरे मुस्लिम समुदाय को दोषी ठहराया जा सके, जिससे मुसलमानों के जीवन को खतरा है।

केंद्र को निर्देश देने से इनकार

उच्चतम न्यायालय की जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस रवींद्र भट की पीठ ने आज कोविड-19 के खतरे से निपटने के लिए भारत के स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र का राष्ट्रीयकरण करने के लिए सरकार को किसी भी प्रकार का निर्देश देने से इनकार कर दिया। पीठ ने याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा कि यह ऐसा फैसला नहीं है कि अदालत सरकार को लेने के लिए कहे। हम अस्पतालों के राष्ट्रीयकरण का आदेश नहीं दे सकते। सरकार ने पहले ही कुछ अस्पतालों को अपने कब्जे में ले लिया है।

जस्टिस भूषण ने स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र के राष्ट्रीयकरण की इस प्रार्थना को गलत  बताया, जबकि सॉलिसीटर जनरल तुषार मेहता ने एडवोकेट अमित द्विवेदी द्वारा दायर इस याचिका को खारिज करने का आग्रह किया। द्विवेदी की वैकल्पिक प्रार्थना के संबंध में, हेल्थकेयर संस्थाओं को कोविड -19 से संबंधित सभी परीक्षण, प्रक्रियाएं और उपचार मुफ्त में करने के निर्देश देने के लिए, पीठ ने उन्हें सूचित किया कि इस मुद्दे को एक अन्य याचिका के साथ टैग किया गया है। सरकार के प्रयासों से संतुष्ट पीठ ने कहा कि हर कोई अपना काम कर रहा है। सरकार कोविड -19 से संक्रमित व्यक्तियों के इलाज के लिए सभी प्रकार के प्रभावी कदम उठा रही है।

(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और क़ानूनी मामलों की जानकारी भी रखते हैं।)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles