एक पत्रकार का अधिकार नागरिक से ज्यादा नहीं कह कर सुप्रीम कोर्ट ने ख़ारिज की अर्णब की याचिका

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यह कहते हुए कि संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (क) के तहत एक पत्रकार का अधिकार बोलने और व्यक्त करने के नागरिक के अधिकार से अधिक नहीं है उच्चतम न्यायालय के जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस एमआर शाह की पीठ ने मंगलवार 19 मई को रिपब्लिक टीवी के एडिटर-इन-चीफ अर्णब गोस्वामी द्वारा कथित सांप्रदायिक टिप्पणी के लिए मुंबई पुलिस द्वारा दर्ज मामले की जांच केंद्रीय जांच ब्यूरो को ट्रांसफर करने और एफआईआर को रद्द करने की याचिका को खारिज कर दिया है।

पीठ ने कहा कि अनुच्छेद 32 के तहत एफआईआर पर कोई सुनवाई नहीं हो सकती। याचिकाकर्ता के पास सक्षम अदालत के समक्ष उपाय अपनाने की स्वतंत्रता है। यही नहीं उच्चतम न्यायालय ने बांद्रा में मस्जिद के सामने एकत्र होने वाली भीड़ से सम्बन्धित अर्णब गोस्वामी की याचिका भी ख़ारिज कर दी है और राहत के लिए सक्षम न्यायालय में जाने को कहा है।   

पीठ ने हालांकि 24 अप्रैल को पारित पहले के अंतरिम आदेश की पुष्टि की है, जिसमें कई एफआईआर को एक साथ कर मुंबई में ट्रांसफर किया गया था। 24 अप्रैल को दी गई अंतरिम सुरक्षा को एफआईआर के संबंध में उचित उपाय करने में सक्षम बनाने के लिए तीन और सप्ताह बढ़ा दिया गया है। पीठ ने मुंबई पुलिस आयुक्त को उन्हें सुरक्षा प्रदान करने के लिए भी निर्देश दिया है। पीठ ने यह भी स्पष्ट किया है कि कार्रवाई के एक ही कारण पर उनके खिलाफ कोई और एफआईआर नहीं होनी चाहिए और टीटी एंटनी के मामले के आधार पर बाद में होने वाली एफआईआर को रद्द कर दिया।

जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस एमआर शाह की पीठ ने 11 मई को उक्त रिट याचिका पर आदेश सुरक्षित रखा था। गोस्वामी ने मुंबई पुलिस की निष्पक्षता पर संदेह जताते हुए सीबीआई को जांच स्थानांतरित करने की भी मांग की थी। जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस एम आर शाह की पीठ ने एफआईआर पर फैसला सुनाने तक के लिए कठोर कार्रवाई से अंतरिम सुरक्षा प्रदान की थी।

सुनवाई के दौरान पीठ ने मौखिक रूप से कहा था कि याचिकाकर्ता के लिए बॉम्बे हाईकोर्ट में उचित उपाय उपलब्ध हैं, चाहे वह अग्रिम जमानत के रूप में हो या एफआईआर को रद्द करने के लिए। जस्टिस चंद्रचूड़ ने मौखिक रूप से कहा था कि यदि आप इस प्राथमिकी को रद्द करना चाहते हैं, बॉम्बे हाईकोर्ट जा सकते हैं। हमने पहले कार्रवाई के एक ही कारण से उत्पन्न एफआईआर की बहुलता के कारण हस्तक्षेप किया था। पीठ ने मौखिक रूप से यह भी कहा था कि आपराधिक प्रक्रिया संहिता के तहत सामान्य प्रक्रिया से एक विशेष छूट इस मामले के लिए नहीं बनाई जा सकती है। 24 अप्रैल को, इसी पीठ ने पालघर लिंचिंग की घटना के कथित सांप्रदायिकरण के लिए उनके खिलाफ दर्ज कई एफआईआर के संबंध में गोस्वामी को तीन सप्ताह की अंतरिम सुरक्षा प्रदान की थी। अदालत ने विभिन्न राज्यों में एफआईआर भी समेकित कर दिया था और उन्हें मुंबई स्थानांतरित कर दिया था।

रजा एजुकेशनल वेलफेयर सोसाइटी के सचिव इरफान अबुबकर शेख के कहने पर की गई एफआईआर को गोस्वामी द्वारा रद्द करने की मांग की गई, जिसमें आरोप लगाया गया है कि उनके चैनल ने बांद्रा में प्रवासियों के बड़े जमावड़े की घटना को सांप्रदायिक रूप दिया। रिपब्लिक टीवी चीफ के लिए पेश वरिष्ठ वकील हरीश साल्वे ने कहा था कि आपराधिक जांच का मकसद पत्रकारिता के लिए उनके मुवक्किल को परेशान करना है। उन्होंने कहा था कि 25 अप्रैल को पुलिस द्वारा गोस्वामी से 12 घंटे लंबी पूछताछ की गई थी।

उन्होंने यह भी बताया था कि गोस्वामी से पूछताछ करने वाले अधिकारियों में से एक का कोविड-19 टेस्ट पॉजिटिव आया है। महामारी के बीच पुलिस ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए गोस्वामी से पूछताछ के लिए अनुरोध नहीं किया, वरिष्ठ वकील ने कहा था। साल्वे ने कंपनी के सीईओ से भी पूछताछ करने पर पुलिस की निष्पक्षता पर सवाल उठाने की कोशिश की और कहा कि पुलिस ने चैनल की फंडिंग से जुड़े सवाल उठाए।

महाराष्ट्र राज्य के लिए पेश वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने इसका विरोध किया था और कहा कि मामले को सीबीआई को हस्तांतरित करने का मतलब होगा जांच आपके हाथ में जाएगी। वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने कहा था कि गोस्वामी “शुद्ध सांप्रदायिक हिंसा” में लिप्त हैं। उन्होंने कहा था कि इस सांप्रदायिक हिंसा को रोकें। शालीनता और नैतिकता का आपको पालन करने की आवश्यकता है। आप सनसनीखेज चीजों के माध्यम से लोगों को कलंकित कर रहे हैं। सिब्बल के इस बयान पर भारत के सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कड़ी आपत्ति जताई थी। सॉलिसिटर जनरल ने कहा था कि उनके पास मामले में लेने के लिए कोई पक्ष नहीं है, और यह नहीं कह रहे हैं कि अदालत को याचिकाकर्ता की प्रार्थना को स्वीकार या अस्वीकार करना चाहिए।

उच्चतम न्यायालय में महाराष्ट्र पुलिस द्वारा दायर आवेदन में आरोप लगाया गया था कि गोस्वामी अदालत द्वारा उन्हें दी गई अंतरिम सुरक्षा का दुरुपयोग कर रहे हैं। तुषार ने यह भी कहा था कि इस तरह के मामले में एक नागरिक से 12 घंटे की पूछताछ वास्तव में परेशान करने वाली है, मुझे लगता है।

साल्वे ने कहा था कि तबलीगी जमात के मरकज़ की बैठक के मुद्दे पर आलोचनात्मक टिप्पणी करना सांप्रदायिक सद्भाव के विघटन के रूप में नहीं माना जा सकता है। मरकज़ के मुद्दे पर बहुत से लोगों ने आलोचना की है, अगर कुछ निकाय एक धार्मिक समूह के नेतृत्व की आलोचना करते हैं तो वह 295 (आईपीसी की धारा 295) नहीं है। यदि ऐसा है, तो अनुच्छेद 19 को खत्म किया जाना चाहिए ।

(वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह की रिपोर्ट।)

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