Friday, March 29, 2024

पांड्या हत्या के फैसले में अपनी किताब का जिक्र आने पर राणा अयूब ने कहा- कोर्ट मुझे तथ्यों को पेश करने का मौका दे

पांच जुलाई को जस्टिस अरुण मिश्रा के नेतृत्व वाली सुप्रीम कोर्ट की दो सदस्यीय बेंच ने 2011 के गुजरात हाईकोर्ट के एक फैसले को पलट दिया। हाईकोर्ट ने गुजरात के पूर्व गृहमंत्री हरेन पांड्या की हत्या के 12 आरोपियों को बरी कर दिया था। यह हत्या 2003 में हुई थी। रिहाई के फैसले में कोर्ट ने मामले में सीबीआई के जांच की कड़ी निंदा की थी- एजेंसी ने पांड्या की हत्या को गुजरात में रहने वाले विश्व हिंदू परिषद के एक नेता से जोड़ा था और कहा था कि हत्याएं एक अंतरराष्ट्रीय साजिश थीं जिन्हें माना जाता है कि एक मौलवी के नेतृत्व में अंजाम दिया गया था जिससे हिंदुओं में भय पैदा किया जा सके।

हाईकोर्ट ने इस बात को चिन्हित किया था कि “मौजूदा केस के रिकार्ड से जो बात साफ-साफ सामने आती है वह यह कि हरेन पांड्या की हत्या के केस में पूरी जांच चकतियों से भरी पड़ी है और इसमें ढेर सारा झोल है और अभी बहुत कुछ किए जाने के लिए बाकी है।” “अन्यायपूर्ण नतीजों, बहुत सारे संबंधित लोगों का भीषण उत्पीड़न तथा सार्वजनिक संसाधनों और अदालतों के समय की बेतहाशा क्षति के लिए संबंधित जांच अफसरों को उनकी अक्षमता के लिए जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए।” लेकिन सर्वोच्च अदालत ने इन मूल्यांकनों को सिरे से खारिज कर दिया। बेंच सीबीआई के दावों से पूरी तरह से सहमत हो गयी और उसने सभी 12 आरोपियों की सजा को फिर से बहाल कर दिया।

कोर्ट ने नये प्रमाणों की रोशनी में पांड्या हत्या की फिर से जांच के लिए एक गैर लाभकारी संगठन द्वारा दायर जनहित याचिका को भी खारिज कर दिया। यह नई सूचना हाल की एक गवाही थी जो पांड्या की हत्या को गैंगस्टर सोहराबुद्दीन शेख, जिसे बाद में गुजरात पुलिस द्वारा कथित तौर पर एक फर्जी एनकाउंटर में मार डाला गया था, से जुड़ती है। शेख के एक सहयोगी और मामले का मुख्य गवाह आजम खान 2018 में मुंबई हाईकोर्ट को बताया था कि “सोहराबुद्दीन के साथ बातचीत में उसने मुझे बताया था कि उसे….गुजरात के हरेन पांड्या की हत्या करने का ठेका मिला था।” सोहराबुद्दी ने उसे बताया कि “उसे ठेका वंजारा ने दिया था।” वह गुजरात पुलिस के पूर्व डीआईजी डीजी वंजारा का हवाला दे रहा था जिसने नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्रित्व काल में राज्य की सेवा की थी। गुजरात के पूर्व गृह राज्यमंत्री अमित शाह जो मौजूदा समय में केंद्रीय गृहमंत्री हैं, एक दौर में सोहराबुद्दीन केस के मुख्य अभियुक्त थे।

जजों ने सीपीआईएल द्वारा पेश किए गए प्रमाणों को खारिज कर दिया जिसमें न्यूज संगठन आउटलुक मैगजीन और 2016 में प्रकाशित मेरी किताब “गुजरात फाइल्स: एनाटमी आफ ए कवर अप” जैसे पत्रकारीय काम भी शामिल थे। किताब में जांच को सीबीआई के हाथ में लेने से पहले पांड्या की हत्या की जांच करने वाले अफसर वाईए शेख से बातचीत की ट्रांसस्क्रिप्ट भी थी जिसको मैंने उनके साथ की थी। केस का हवाला देते हुए शेख ने कहा था कि “एक बार सचाई बाहर आ जाती है तो मोदी घर चले जाएंगे। उन्हें जेल हो जाएगी।” उसने दावा किया था कि पांड्या की हत्या के मुख्य आरोपी असगर अली को हिरासत में प्रताड़ित किया गया था और फिर उसे गुनाह कबूल करने के लिए मजबूर किया गया था। शेख ने मुझे बताया था कि “उन्हें दोष किसी मुस्लिम शख्स पर मढ़ना था…..उन्होंने केवल असगर अली को उसमें फिट कर दिया था।”

किताब में दिए गए प्रमाणों को दरकिनार करते हुए फैसले में मेरे बारे में भी कुछ मूल्यांकन कर एक पत्रकार के तौर पर मेरी ईमानदारी पर सवाल उठाया गया है। जस्टिस मिश्रा द्वारा लिखे गए फैसले में मेरी किताब से एक लाइन कोट किया गया है- और केवल एक लाइन।  

मिस राणा अयूब द्वारा लिखी गयी एक किताब भी मौजूद है जिसमें ऐसा माना गया है कि हरेन पांड्या का केस एक ज्वालामुखी है। “एक बार सच सामने आता है, (xxx) घर चले जाएंगे। उन्हें जेल हो जाएगी।” वकील आगे हरेन पांड्या के पिता श्री विट्ठल पांड्या के बयान पर आधारित आउटलुक में छपे एक लेख का भी हवाला देते हैं। उससे ऐसा लगता है कि वास्तविक हत्यारों को लेकर उनको भी संदेह था लेकिन किसी के खिलाफ कोई सबूत नहीं था।

राणा की किताब की कोई उपयोगिता नहीं है। यह संदेह, अनुमान और कल्पनाओं पर आधारित है और इसका कोई प्रामाणिक मूल्य नहीं है। किसी एक शख्स का विचार प्रमाण की सचाई का स्थान नहीं ले सकता है। और इसके राजनीतिक रूप से प्रेरित होने की संभावना को खारिज नहीं किया जा सकता है। गोधरा घटना के बाद जिस तरह से गुजरात में चीजें आगे बढ़ी हैं इस तरह के आरोप और प्रत्यारोप असामान्य नहीं हैं और इन्हें कई बार उठाया गया है और फिर उन्हें खरा नहीं पाया गया। ये सब महज एक विचार तक सीमित रह गए।

फैसला आने के तुरंत बाद सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के समर्थकों ने अपने ट्वीट में मेरे पत्रकारीय काम को प्रोपोगंडा और मुझे बेवकूफ और एक “राजनीतिक कुत्ता” करार देते हुए टैग करना शुरू कर दिया। इनमें से बहुत सारे एकाउंट की भीषण फालोइंग है जिसमें मोदी और शाह भी शामिल हैं। ओप-इंडिया जो एक दक्षिणपंथी प्रकाशन है, सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला देते हुए एक पीस प्रकाशित किया जिसकी हेडलाइन थी, “सुप्रीम कोर्ट ने राणा अयूब की किताब को कूड़ेदान में डाला, कहा- यह पूरी तरह से संदेहों, अनुमानों और कल्पनाओं पर आधारित है।” बहुत सारे एकाउंट ने उसको साझा भी करना शुरू कर दिया। मेरी टाइमलाइन पर इस तरह की ट्वीट की बाढ़ आ गयी जिसमें मुझ पर पत्रकारिता को कलंकित करने का आरोप था।

सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी और आनलाइन प्रतिक्रिया को देखते हुए मैं कुछ तथ्यों को सार्वजनिक डोमेन में रखना जरूरी समझती हूं।  

पहली बात, “गुजरात फाइल्स” पूरी तरह से एक खोजी और पत्रकारीय अभ्यास था। यह मेरे द्वारा 2010 की शुरुआत में अंडरकवर के तौर पर आठ महीने तक किया गया एक स्टिंग आपरेशन था जिसमें टेप किए गए वीडियो की ट्रांसस्क्रिप्ट शामिल थी। इस दौरान मैंने गुजरात के पूर्व गृह सचिव अशोक नरायन, पूर्व डीजीपी पीसी पांडेय, एटीएस के पूर्व हेड राजन प्रियदर्शी, एटीएस अहमदाबाद के पूर्व हेड जीएल सिंघल, पूर्व आईजीपी गीता जौहरी और वाईए शेख के साथ बातचीत को गोपनीय तरीके से रिकार्ड किया था। इन अधिकारियों के साथ बातचीत में 2002 के गुजरात के मुस्लिम विरोधी नरसंहार से संबंधित खुलासे, पांड्या और सोहराबुद्दीन के साथ इशरत जहां और तुलसीराम प्रजापति की हत्याएं शामिल थीं। गौरतलब है कि बाद के दोनों लोगों का भी गैरकानूनी तरीके से एनकाउंटर कर दिया गया था। अधिकारियों की मेरे सामने स्वीकारोक्ति जिसे मैंने किताब में प्रकाशित किया है उन्हें और उनके ही गुजरात के कई दूसरे शक्तिशाली सदस्यों को भी फंसा देती है। गुजरात नरसंहार की जांच के लिए गठित एसआईटी की पूछताछ के समय ठीक इन्हीं अफसरों को भूलने की बीमारी हो गयी थी- उन्होंने दावा किया था कि उन्हें इस तरह का कोई विवरण नहीं याद है।

2016 में किताब लांच होने के बाद मैंने एसआईटी समेत सभी जांच एजेंसियों से टेप की बातचीत को देखने का निवेदन किया था और बार-बार रिकार्डिंग को सौंपने का प्रस्ताव दिया था। 

विभिन्न राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संगठनों ने “गुजरात फाइल्स” को पत्रकारिता के लिहाज से एक प्रतिष्ठित किताब के तौर पर चिन्हित किया है। इसको 2017 में जोहांसबर्ग में ग्लोबल साइनिंग लाइट अवार्ड से सम्मानित किया गया था। यह अवार्ड जोखिम मोल लेते हुए की जाने वाली खोजी पत्रकारिता के लिए दिया जाता है। 2018 में फ्री प्रेस अनलिमिटेड ने मुझे हेग स्थित पीस पैलेस में मेरे कामों का गला घोंटने के प्रयास के खिलाफ प्रतिरोध खड़ा करने के लिए मोस्ट रेजिलिएंट जर्नलिस्ट के खिताब से सम्मानित किया।

यह चिन्हित करना बेहद महत्वपूर्ण है कि मेरे द्वारा प्रकाशित किताब में जिक्र किए गए किसी अकेले अफसर या नौकरशाह ने अपने बयान से इंकार नहीं किया है। या फिर मानहानि के लिए मुझे कोर्ट ले गया हो। मैंने इस ट्रांसस्क्रिप्ट को अपनी जिंदगी को जोखिम में डालकर प्रकाशित किया है। क्योंकि मुझे लगातार मौत और बलात्कार की धमकी दी जा रही है और आनलाइन तथा आफलाइन घृणा कैंपेन का निशाना बनाया जा रहा है। पिछले साल संयुक्त राष्ट्र ने मेरी सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिहाज से भारत सरकार को पांच स्पेशल रैपोर्टियर लिखे थे।

मैं यहां यह भी चिन्हित करना चाहूंगी कि गुजरात फाइल्स में सामने आय़ीं चीजें मेरी पहले के खुलासों और पत्रकारीय कामों की ही कतार में थीं। इसमें वह प्रमाण भी शामिल है जिसका सीबीआई ने प्रजापति और सोहराबुद्दीन के केसों में अपनी चार्जशीट में हवाला दिया था। 2010 में तहलका मैगजीन में काम करते हुए मैं उन कॉल रिकार्ड को सामने लायी थी जो प्रजापति की हत्या की रात में किए गए थे। शाह उन अफसरों से सीधे संपर्क में थे जिन्हें बाद में फर्जी एनकाउंटर करने के लिए गिरफ्तार किया गया था। ठीक यही अफसर सोहराबुद्दीन की गैरन्यायिक हत्या मामले में शामिल थे और फिर उसी संदर्भ में गिरफ्तार किए गए थे। सीबीआई की जांच की सुप्रीम कोर्ट निगरानी कर रहा था और एजेंसी ने ठीक इसी रिकार्ड का अपनी चार्जशीट में हवाला दिया था जिसको उसने सुप्रीम कोर्ट में पेश किया था।

इस बात को देखते हुए कि मेरी किताब में पांड्या की हत्या पर विचार नहीं है और उसमें ट्रांसस्क्रिप्ट के तौर पर केवल और केवल पत्रकारीय काम शामिल है। कोर्ट की टिप्पणी बेहद परेशान करने वाली है। यहां तक कि ये बात और अधिक परेशान करने वाली है कि कोर्ट यह महसूस करता है कि मेरी किताब कल्पनाओं पर आधारित है लेकिन किसी गवाह या फिर मुझे या फिर मुझसे उन टेपों को जिन्हें मैंने कोट किया है, लेने की जरूरत महसूस नहीं किया। कोर्ट ने वाईए शेख के लिए गए इंटरव्यू की एक लाइन मेरी किताब को बदनाम करने के लिए इस्तेमाल किया लेकिन टेप को देखने की भी जहमत नहीं उठायी। इस सचाई के बावजूद कि उसमें पांड्या केस के दूसरे संदर्भ भी शामिल हैं।

मेरे काम पर आगे और संदेह जाहिर करते हुए कोर्ट यह सुझाव देता हुआ लगता है कि मेरी पत्रकारिता में एक राजनीतिक मकसद शामिल है- यह भी बेहद अचरज भरा है। यह देखते हुए कि सीबीआई ने एक बार खुद उन्हीं प्रामाणिक तथ्यों पर विश्वास किया था। उन्हीं मामलों में जिन्हें मैंने सार्वजनिक डोमेन में लाने का काम किया था।

मैंने गुजरात फाइल्स को 26 वर्ष की एक जर्नलिस्ट के रूप में  रिपोर्ट किया था। सच को बाहर लाने के लिए अपने जीवन को जोखिम में डालकर खतरनाक परिस्थितियों में एक अंडरकवर के तौर पर जीवन बिताते हुए। जब मेरे काम को कोई प्रकाशक नहीं मिला- संपादकों ने राजनीतिक दबावों का हवाला देकर इसको सेंसर कर दिया- मुझे नर्वस ब्रेकडाउन का सामना करना पड़ा। इस फैसले के जरिये कोर्ट ने मेरी परेशानियों को और बढ़ा दिया है जिससे मुझे भीषण दुख और मानसिक आघात पहुंचा है।

अपने फैसले में कोर्ट ने बगैर प्रमाणों की जांच किए मेरी खोजी पत्रकारिता को ऐसा लगता है कि किनारे लगा दिया। 2016 में मैंने साफ-सुथरी और स्वतंत्र जांच सुनिश्चित करने के लिए इन मामलों को देखने वाले जांच आयोगों से टेप और स्टिंग आपरेशन की हार्ड डिस्क लेने की सार्वजनिक रूप से गुजारिश की थी। मैं कोर्ट के लिए इस दलील को एक बार फिर से दोहराना चाहती हूं: मैं किताब की एक प्रति और स्टिंग में बातचीत की टेप को पेश करने के लिए उससे निवेदन करती हूं।

खोजी पत्रकार खतरनाक परिस्थितियों का सामना करते हैं- मेरी सहयोगी गौरी लंकेश जिन्होंने गुजरात फाइल्स का कन्नड़ में अनुवाद किया था, की हत्या हो गयी है। निश्चित तौर पर ऐसा दक्षिणपंथी ताकतों के खिलाफ उनके काम के चलते हुआ। मेरी किताब के बारे में टिप्पणी शायद उन लोगों को उत्साहित कर सकती है जो सालों से मुझे निशाना बनाए हुए हैं। मेरे काम को बदनाम करने की उन्हें इजाजत दी जा रही है जबकि यह सत्तारूढ़ और विपक्ष दोनों के प्रति बेहद आलोचक रहा है। इस समय मैं कोर्ट से प्रार्थना करती हूं- वह भारत की सर्वोच्च न्यायिक संस्था के सामने तथ्यों को पेश करने की इजाजत दे।

(राणा अयूब का यह लेख दि कारवां में अंग्रेजी में प्रकाशित हुआ था। साभार लेकर यहां हिंदी में अनुवाद पेश किया गया है।)    

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