(स्वामी जी का कर्म रण भूमि से हठात जाना किसे नहीं अखरेगा? मौजूदा दौर में तो उनकी हस्तक्षेपकारी भूमिका की पहले से अधिक ज़रूरत थी। यकीनन उनके जाने से फासीवादी शक्तियों को राहत की सांस लेने का अवसर ज़रूर मिल गया है। इन्हीं फासीवादी तत्वों ने 2018 में झारखण्ड में उनके लीवर को इतना आघात पहुँचाया कि वह तब से सामान्य नहीं हो सका। इसी कुकृत्य को 2019 में भी दोहराया गया था जब स्वामीजी पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी को श्रद्धांजलि देने जा रहे थे। क्या यह है भारतीय संस्कृति ? झारखण्ड से क्षतिग्रस्त लीवर फिर ठीक नहीं हो सका और स्वामी जी के लिए प्राणघातक सिद्ध हुआ।)
स्वामी अग्निवेश और मेरे सम्बधों की लगभग आधी सदी पूरी हो रही है।1970 का समय था जब मैंने प्रमुख रूप से दो संन्यासियों : स्वामी अग्निवेश और इंद्रवेश का नाम पहली दफा अख़बारी सुर्ख़ियों में देखा था। तब हरियाणा स्वामियों का कर्म रंगमंच हुआ करता था। इनके साथ दो और संन्यासी हुआ करते थे जिनका नाम मुझे याद नहीं। लेकिन अग्निवेश और इंद्रवेश का कर्म जगत और काया आकार स्वामी विवेकानंद की याद दिलाने के लिए काफी थे। इनके उदय में एक ‘ रेडिकल अपील ‘ थी। मैं तब हिंदी पत्रकारिता में सक्रिय था। चिंतन की दृष्टि से मैं संक्रमण -काल से गुजर रहा था।
1972 मैं वामपंथी राजनीति में पूर्णकालिक सक्रिय हो गया। 1971 में युद्ध रिपोर्टिंग और ‘72 में ढाका से लौटने के बाद मैं इस नतीजे पर पहुँच चुका था कि भारत में क्रांति की ज़रूरत है, रेडिकल विचार चाहिए। तब तक स्वामी जी का नाम उत्तर भारत के पटल पर छा चुका था। अग्निवेश जी के प्रति मेरा आकर्षित होना स्वाभाविक था। मैं चरम वामपंथ के एक जन संगठन ‘अखिल भारतीय युवा क्रांतिकारी संघ’ का अध्यक्ष भी था। स्वामीजी की वाग्मिता आरम्भ से ही अद्भुत रही है। आपकी वक्तृत्व कला में समयानुकूल भाषा, विचार, मुद्दे और प्रस्तुति का संगम होना चाहिए, न कि सिर्फ वाकपटुता का जमावड़ा। यह अलग बात है कि इस जमावड़े या भाषणबाजी के बल पर आज कुछ लोग सत्ता शिखर पर जमे हुए हैं। लेकिन अग्निवेश की वक्तृत्व कला में विचार, विवेक, विश्लेषण और परिवर्तन के भाव -सन्देश प्रमुख रहते थे।
इसलिए युवा मन को ये छू लिया करते थे। इसीलिए मेरे और दूसरे कामरेड स्वामी जी की तरफ आकृष्ट होते चले गए। यह नक्सलवाद के उभार का भी दौर था। 1964 में कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी का विभाजन हो चुका था और युवक को नए रेडिकल विकल्प चाहिए थे। स्वामीजी ने भारतीय ईथोस में रमी क्रांति का नारा दिया। यहाँ यह जानना ज़रूरी है कि सामाजिक सुधारों और क्रांतिकारी विचारों की दृष्टि से हिंदी भारत आज़ादी के बाद सुस्त- सा रहा है। सामंती मानसिकता और महाजनी पूंजीवाद इसकी धमनियों में बसे रहे हैं। पितृसत्तात्मकता का वर्चस्व रहा है। इस पृष्ठभूमि में किसी भी प्रकार के आमूलचूल बदलाव की कल्पना करना असम्भव नहीं तो बेहद कठिन ज़रूर था। पर स्वामीजी और उनके साथियों ने इस चुनौती को स्वीकार किया तथा रोहतक को अपनी कर्म धुरी ली।
संघ के साथियों ने तय किया कि क्यों न स्वामीजी के साथ मिल कर काम किया जाए? संघ के उपाध्यक्ष डॉ. महेंद्र मधुप को जयपुर से रोहतक भेजा गया और स्वामीजी की पत्रिका का सम्पादन कार्य सौंपा गया। मेरे साथियों को लगा था कि विशुद्ध मार्क्सवादी भाषा से काम नहीं चलेगा। स्वामीजी और उनके साथियों की भाषा शैली अपनानी होगी। वैसे स्वामीजी स्वयं भी सामंतवाद और पूंजीवाद के विरुद्ध संघर्षरत थे। बदलाव के लिए मार्क्स का नाम लेना ज़रूरी नहीं है। स्वामीजी को हम लोग और अधिक ‘रैडिक्ल’ देखना चाहते थे। इसलिए सहयोग बढ़ाया। जब समीप से देखा तो स्वामीजी स्वयं ही काफी रैडिकल थे।
भारतीय ढंग से मार्क्सवाद को अपना रहे थे। परस्पर सहयोग बढ़ता गया। दो-तीन बार ऐसा भी हुआ जब गिरफ्तारी से बचने के लिए भेष बदल कर दोनों को हरियाणा के कुछ गावों से भागना भी पड़ा। उस समय शायद मुख्यमंत्री बंसीलाल हुआ करते थे। स्वामी जी ने प्रतिरोध के हथियार नहीं डाले। शांतिपूर्ण ढंग से प्रतिरोध को तीव्र से तीव्रतर करते चले गए। 1975 के आपातकाल में फरार भी हुए, गिरफ्तार भी।
मैंने सातवें दशक के शुरू में कृषि भारत में बंधक श्रमिक प्रथा पर लिखना शुरू कर दिया था। एक लेख काफी चर्चित हुआ: क्या भारत का खेतिहर श्रमिक अर्द्ध दास है?’ 1977 में मैं राष्ट्रीय श्रम संस्थान में कृषि भारत में शोध कार्य से जुड़ गया। देशभर में श्रमिक शिविर लगाए। गांधी शांति प्रतिष्ठान और श्रम संस्थान के संयुक्त ‘ राष्ट्रीय बंधक श्रमिक सर्वेक्षण‘ के माध्यम से किसानों की स्थिति जानी -समझी। इसका फायदा हुआ। आठवें दशक के शुरू में अग्निवेश जी ‘ बंधुआ मुक्ति मोर्चा ‘ की स्थापना की जिसके संस्थापक अध्यक्ष स्वामी अग्निवेश और मैं पहला महासचिव बना। बंधुआ मुक्ति चौपाल का आयोजन किया गया था जिसमें देश भर से एक्टिविस्ट आये थे और हम दोनों का चुनाव किया गया था।
स्वामीजी ने तूफानी दौरे किये। ईंट-भट्टा -खदानों में सक्रिय हुए। 1983 में स्वामी अग्निवेश और इंद्रवेश यूरोप की यात्रा पर निकले, और साथ में मैं भी था। ‘ एंटी स्लेवरी सोसाइटी ‘ के निमंत्रण पर स्वामीजी ने कई जगह भाषण भी दिया, जेनेवा में मानवाधिकार आयोग को सम्बोधित भी किया। बंधुआ श्रमिकों की समस्या को अंतर राष्ट्रीय मंच पर उठाया। विश्व का ध्यान इस तरफ भी गया। जब स्वदेश लौटे तो सरकारी एजेंसीज खफा मिलीं। दिलचस्प बात यह है कि स्वयं इंदिरा गांधी के 20 -सूत्री कार्यक्रम का एक हिस्सा यह भी था कि इस कलंक को समाप्त किया जाए। यहाँ तक कि ‘ बंधक श्रमिक प्रथा समाप्त क़ानून‘ भी बनाया गया था। स्वामी जी अपनी बात पर दृढ़ रहे और मामला रफा-दफा हो गया। कहने का अर्थ यह है कि अग्निवेश अपनी बुनियादी प्रतिबद्धता से कभी डिगे नहीं हैं।
स्वामीजी सदैव से प्रयोगधर्मी रहे हैं। स्वामीजी का विचार व कर्म संसार एकरंग नहीं बहुरंगी है; संन्यासी होने के बावजूद समाज सुधार के कार्यों को हाथ में लिया; काफी हद तक स्वामी सहजानंद की याद दिलाई; राजनीति के अखाड़े में उतरे और सत्ता प्रतिष्ठान से सीधी टक्कर ली; हरियाणा के शिक्षा मंत्री बने और शिक्षा में सुधार लाने की कोशिश की; बंधक श्रमिक प्रथा को समाप्त करने के साथ साथ जाति प्रथा के विरुद्ध भी आवाज़ उठाई और लोकसभा टेलीविजन पर कार्यक्रम चलाया; न्यूनतम मज़दूरी को लेकर अभियान चलाया और बंधुआ मज़दूरी को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में परिभाषित किया, न्यूनतम वेतन से कम पाने वाला श्रमिक बंधक है; इस परिभाषा ने सरकार की चूलें हिला दीं ; ईंट- भट्टा श्रमिकों की मांग को लेकर आला अदालत के दरवाज़े तक खटखटाये; सर्व धर्म समभाव का अभियान भी चलाया और विभिन्न धर्मावलम्बियों को एक मंच पर लाने का अथक प्रयास किया; भ्रष्टाचार विरोधी अन्ना हज़ारे आंदोलन से भी जुड़े।
एक बेचैन आत्मा की भांति स्वामीजी एक जगह नहीं, कई ठौरों पर अपना पाल लगाते रहे हैं। स्वामीजी की अकुलाहट इतनी तीव्र रही है कि वे किसी एक मुहाने से बंधे नहीं रहे हैं। इस वजह से स्वामीजी विवादों के शिकार भी रहे हैं। लेकिन समाज के अंतिम व्यक्ति के उत्थान की चिंता हमेशा उनके केंद्र में रही है। उन के मंचों पर जहां स्वामी दयानन्द सरस्वती का चित्र होता है वहीं कार्ल मार्क्स का भी। सारांश में सामाजिक न्याय, शोषण-उत्पीड़न, विषमता, मानवाधिकार जैसे मुद्दों को अग्निवेश जी ने कभी ओझल नहीं होने दिया। “ एप्लाइड स्पिरिचुअलिटी “ में उन्होंने इन मुद्दों को रेखांकित भी किया है। मेरे कहने का अर्थ है कि स्वामी जी ने ‘आध्यात्मिकता , ईश्वर और धर्म ‘ के पांवों को भूमि पर ही रखा, उन्हें अदृश्य या आकाशीय नहीं बनने दिया।
स्वामीजी ने एक स्थान पर कहा भी है, “ मेरा कोई धर्म नहीं है, मैं न हिन्दू हूँ, न ही मुस्लिम। मैं एक मानव प्राणी हूँ जो सभी हिन्दुओं , मुसलमानों , ईसाईयों को पसंद करता है। मैं न्याय के लिए लड़ता हूँ। मैं मानवाधिकार एक्टिविस्ट हूँ सामाजिक एक्टिविस्ट हूँ , किसी भी नाम से याद करो यदि मुझे चीजों में अच्छाई दिखाई देती है तो उसे मैं कहीं से भी चुन लेता हूँ।” संक्षेप में, स्वामीजी सदैव साम्प्रदायिक एकता के पक्षधर रहे हैं जिसकी आज सबसे अधिक ज़रूरत है। आज देश में जिस रफ्तार से फासीवादी ताक़तें फैलती जा रही हैं और अल्पसंख्यकों को घृणा के निशाने पर रखा जा रहा है, इससे देश की एकता को खतरा पैदा होता जार हा है। बहुलतावाद का स्थान ‘ एकलतावाद ‘ और ‘ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ‘ ले रहे हैं। उग्र राष्ट्रवाद, युद्धोन्माद का माहौल तैयार किया जा रहा है। ऐसे में धार्मिक संकीर्णता के स्थान पर बहुधार्मिक सामंजस्य वाद की ज़रूरत है जो कि स्वामीजी का गुरु मन्त्र है।
स्वामी जी और उनके साथियों की कोशिश ज़रूर रही कि वैदिक समाजवाद को प्रासंगिक बनाएं और स्वामीदयानन्द सरस्वती के विचारों को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में ढालें। इसलिए अगस्त 1971 में आर्यसभा के प्रथम प्रतिनिधि सम्मेलन में एक प्रगतिशील प्रस्ताव पारित भी किया था। प्रस्ताव में स्पष्ट शब्दों में कहा गया था, “ यह सदन राष्ट्र के वर्तमान पूंजीवादी ढांचे के प्रति असंतोष प्रकट करता है जिसके अंतर्गत संविधान में व्यक्ति को दी गई मौलिक अधिकारों की गारण्टी व्यावहारिक रूप में लगभग अर्थहीन हो गई है। व्यक्तिगत हितों की पूर्ति के लिए गिने चुने पूंजीपतियों द्वारा जनता का शोषण किया जाता है। आर्थिक हितों की पूर्ति के लिए घूसखोरी भ्रष्टाचार, व अश्लीलता के प्रचार व प्रसार द्वारा राष्ट्र का नैतिक व चारित्रिक पतन तीव्र गति से योजनाबद्ध रूप में किया जा रहा है’ स्वामीजी और उनकी आर्यसभा के इरादे नेक थे, लेकिन राज्य की राजनीतिक आर्थिकी अपने ढंग से चलती है।
राज्य का विशेष चरित्र होता है और अर्थतंत्र उसे संचालित करता है। जहाँ वामपंथी शक्तियों ने अति बौद्धिकता व अस्वदेशीपन के माध्यम से भारत में क्रांति लाने की कोशिश की, वहीं प्रगतिशील आध्यात्मिक-धार्मिक -भौतिक शक्तियों ने आदर्शवादी ढंग से क्रांति लाने की सोची। इस लिहाज से दोनों ही पक्ष अपने मूल उद्देश्यों में विफल रहे। स्वामीजी और उनके साथियों की सबसे बड़ी सीमा यही रही है क्योंकि समाज व राज्य समरूपी नहीं होते हैं। बहुरंगी शक्तियां समाज व राज्य के आकार -प्रकार का निर्धारण करती हैं। यह सही है कि मानव को यंत्रवत ढंग से हांका नहीं जा सकता। भौतिकतावाद के समानांतर भी अन्य शक्तियां हैं जो मनुष्य के अस्तित्व व चेतना का निर्माण करती हैं।
स्वामीजी ने इन ध्रुवों के बीच सामंजस्य बैठाने की पूरी निष्ठा के साथ कोशिश राष्ट्रीय और विश्व मंचों पर की है। जहाँ तक मैं समझ पाया हूँ स्वामीजी धर्म और अध्यात्म को मानव के शोषण, उत्पीड़न, वर्ग विषमता व जाति विषमता से मुक्ति के शस्त्र के रूप में इस्तेमाल करना चाहते रहे हैं क्योंकि भारत जैसे परम्परागत व धर्मभीरु समाज में विशुद्ध विवेक तर्क और प्रगतिशील विचारधारा के आधार पर बुनियादी परिवर्तन नहीं ला सकते हैं। भारत मूलतः भावना प्रधान देश है। यदि इस देश में बदलाव लाना है तो दिल के रास्ते यानि भावना के माध्यम से दिमाग को झकझोरना पड़ेगा। पिछड़े और विकसित या अनौपचारिक व औपचारिक समाजों के मनोविज्ञान या मानसिकता को ज़ज़्ब किये बगैर किसी बड़े बदलाव की उम्मीद नहीं की जा सकती।
जनता को कैसे गोलबंद किया जाता है, इस दृष्टि से गाँधी जी की शैली से काफी कुछ सीखा जा सकता है। एक बात यह भी है कि दक्षिण अमेरिका में ‘ लिबरेशन थिओलॉजी ‘ का प्रयोग भी काफी उपयोगी रहा है। अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ चर्च ने कम महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभाई। वहां के पादरी वर्ग ने धर्म को शोषण के विरुद्ध खड़ा किया था। वहां के प्रख्यात क्रांतिकारी शिक्षा शास्त्री पाउलो फ्रेरे ने अपने शिक्षा दर्शन के माध्यम से शिक्षा क्षेत्र में क्रांति ला दी थी। इस दृष्टि से उनकी प्रसिद्ध पुस्तक ‘ उत्पीड़ितों का शिक्षा शास्त्र ‘ और ‘ परिवर्तन के लिए सांस्कृतिक कार्रवाई ‘ काफी लोकप्रिय हैं।
इस शिक्षा दर्शन के सम्बन्ध में स्वामीजी के साथ मेरी चर्चा हुयी थी और वे फ्रेरे के विचारों से सहमत थे बल्कि अफ्रीका में आयोजित किसी संगोष्ठी में इस पर व्याख्यान भी दिया था। रोचक तथ्य यह है कि फ्रेरे स्वयं पादरी थे और मार्क्सवाद से भी प्रभावित थे ; चर्च में मार्क्स और मलीन बस्तियों में जीसस के दर्शन एक विलक्षण अनुभूति है। संभवतः अग्निवेश जी भी भारत में धर्म को मुक्ति का बहु आयामी शस्त्र के रूप में प्रयोग करने का स्वप्न देख रहे हों! स्वामी जी को दक्षिण अमेरिका में कभी प्रभावशाली रहनेवाली ‘लिबरेशन थिओलॉजी ‘का भारतीय संस्करण के रूप में भी देखा जाना अनुचित नहीं होगा।
स्वामीजी की मन-वचन -कर्म -सोच में निरंतर प्रतिबद्धता अंतिम व्यक्ति के साथ रही है। यह स्वयं में बड़ी उपलब्धि है। लेकिन यह भी सत्य है कि स्वामीजी से मंज़िल दूर भी है। यह उनकी निजी विफलता नहीं है, उन सब की साझी विफलता है जिन्होनें क्रांति व समतावादी समाज व राज्य का विराट स्वप्न देखा था। पर इस घोर नैराश्य और पतनग्रस्त राज्य के परिवेश में भी क्रांति का दीप और समतावादी समाज का स्वप्न यथावत जीवित भी है, यह स्वामीजी और हम सबकी साझी उपलब्धि भी है।
(रामशरण जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं आप बंधुआ मुक्ति मोर्चा के संस्थापक महासचिव रह चुके हैं। स्वामी अग्निवेश जिसके संस्थापक अध्यक्ष थे।)