1991 की मई की गर्मियां थीं। 2024 की मई की ही तरह चुनावी मौसम था। देश का राजनैतिक पारा चढ़ा हुआ था। तब हम दिल्ली के जंगपुरा एक्सटेंशन में रहा करते थे।
मैं और पत्नी मधु बच्चों के लिए मदर डेयरी से आइसक्रीम ले रहे थे। डेयरी के काउंटर पर रखे ट्रांजिस्टर से गूंज रहे फ़िल्मी गीतों ने वातावरण की गर्मास को कुछ सहनीय बना दिया था। ज़मी आइसक्रीम निकाली जा रही थी। यकायक संगीत रुकता है। एक तरह की विचित्र धुन ट्रांजिस्टर को चीरती हुई निकलती है। कुछ ही पलों में गंभीर आवाज़ में चेन्नई के पास पेरम्बदूर की चुनावी सभा में आत्मघाती मानव बम के विस्फोट की घोषणा की जाती है। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी इस सभा को सम्बोधित करके लौट रहे थे। हम दोनों अवाक। सभी एक-दूसरे का चेहरा देखने लगे। रंग उड़ा हुआ था। डेयरीवाला भी घबराया हुआ था। वह फटाफट शटर नीचे करने लगा। हम दोनों घर की तरफ लपके। पांच मिनिट का फासला था। बच्चों को पहले ही दूरदर्शन से पता लग चुका था।
पलभर में सब कुछ बदल चुका था। मकान मालिक सरदार हीरा सिंह थे। 31 अक्टूबर 1984 की सुबह इंदिरा जी हत्या की ख़बर से भी अस्सी वर्षीय सिख बिखर- से गए थे। फट पड़े थे, ’रब हत्यारों को कभी माफ़ नहीं करेगा।’ यह दुखद संयोग है कि सात साल बाद हम उसी मकान में रह रहे थे। एक दफ़ा फिर सुबह मां की हत्या के बाद, रात को उनके पूर्व प्रधानमंत्री बेटे राजीव गांधी के जीवन के त्रासद पटाक्षेप का समाचार भी यहीं सुना।
हम दोनों पल भर में कार से राजीव गांधी के निवास 10 जनपथ की ओर निकल पड़े। तीनों बच्चों को घर ही छोड़ दिया और ज़रूरी हिदायत देकर कार स्टार्ट कर दी। तीनों बच्चों ने अपनी आंखें टीवी स्क्रीन पर रोप दीं।
कॉलोनी में ख़ामोशी फैली हुई थी। इंडिया गेट से गुजरते हुए हम 10 जनपथ की ओर बढ़े जा रहे थे। रास्ते भर सन्नाटा-ही-सन्नाटा पसरा हुआ था। इक्के-दुक्के वाहन आ-जा रहे थे। इंडिया गेट का परिसर सूना होता जा रहा था। आइसक्रीम के ठेलेवाले और गुब्बारे बेचनेवाले लौट रहे थे अपने-अपने घरों को। शायद तब तक सभी को इस अनहोनी का पता चल चुका था।
जब हम अकबर रोड़ पर पहुंचे, देखा 10 जनपथ और हराभरा गोल चौराहा भीड़ से घिरे हुए हैं। चारों ओर लोग हैं और सड़कें कारों -मोटरबाइकों से पटी पड़ी हैं। तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर, पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह, तांत्रिक स्वामी चंद्रास्वामी और अमेरिका के खिलाफ नारे गूंज रहे हैं। बीच-बीच में प्रेस मुर्दाबाद के नारे भी लगते। कार हमने मोतीलाल नेहरू मार्ग पर पार्क की। हम दोनों भी भीड़ में शामिल हो गए। निवास स्थान के समीप जाने की कोशिश करने लगे। लेकिन, पहरा बढ़ा दिया गया था। अंदर जाना असंभव था। बाहर ही खड़े रहना मुनासिब लगा।
इसी बीच दो-तीन कांग्रेसी परिचितों ने हमें देख लिया। उनमें से एक नेता चतर सिंह पास आये और धीमे से बोले, ’जोशी जी, यहां से तुरंत भाग जाईये। किसी ने पहचान लिया तो कुछ भी आपके साथ घट सकता है। हम भी नहीं बचा सकेंगे। कांग्रेसी प्रेस से सख्त नाराज़ हैं। खिसक लें’ दोनों ने तय किया कि तुरंत ही यहां से निकल जाना चाहिए। कांग्रेसी मित्र कार तक छोड़ने आये और जैसे ही उसे स्टार्ट की अन्य कांग्रेसजनों की भीड़ हमारी तरफ आने लगी। कार के आगे पीछे के शीशे पर प्रेस जो लिखा हुआ था। मित्रों ने उसे रोकने की कोशिश की। मैंने एक्सेलटर को ज़ोर से दबाया। भीड़ भी पीछे दौड़ने लगी। खैर! हम चंद पलों में खतरे के क्षेत्र से बाहर निकल आये और राजपथ पार करते हुए सही सलामत रफ़ी मार्ग पहुंच गए। इस मार्ग पर नई दुनिया का ऑफिस था। कमरे में बैठ कर टेलीफोन पर इंदौर मुख्यालय को विस्तार से समाचार भेजना शुरू कर दिया। पंद्रह-बीस मिनट लगे होंगे। उस समय मैं नई दुनिया का दिल्ली ब्यूरो प्रमुख था।
आत्मघाती विस्फोट से राजीव गांधी की सैंतालीस वर्षीय जीवन यात्रा पर हठात विराम लग जायेगा, यह मेरे लिए अकल्पनीय था। दो शाम पहले यानी 19 मई की शाम को ही तो हमने आमने-सामने बैठ कर रात्रिभोज किया था। कांग्रेस की वरिष्ठ नेता और पूर्व काबीना मंत्री मार्ग्रेट अल्वा के निवास पर चंद पत्रकारों के साथ राजीव जी का डिनर रखा गया था। संयोग से हम दोनों एक बड़ी मेज़ पर आमने-सामने बैठे हुए थे। वे मेरे चेहरे से परिचित भी थे। मैं उनके साथ देश-विदेश की कई यात्रायें कर चुका था। प्रधानमंत्री के रूप में उनकी अंतिम विदेश यात्रा में भी मैं साथ था। बेलग्रेड में आयोजित गुटनिरपेक्ष सम्मलेन में भाग लेने के लिए गए हुए थे। सो, राजीव जी बहुत ही सहज भाव और तनाव मुक्त मुद्राओं के साथ अपनी खिलखिलाहट बिखेर रहे थे।
चुनाव पर गपशप हो रही थी। मार्च 1991 में कांग्रेस ने चंद्र शेखर -सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया था। फलस्वरूप, अल्पावधि में लोकसभा के चुनावों की घोषणा करनी पड़ी थी। कांग्रेस अध्यक्ष के नाते राजीव गांधी चुनाव प्रचार के समर में उतरे हुए थे। उन्हें 20 मई की सुबह ओडिशा में चुनाव प्रचार के लिए जाना था। मुझसे पूछने लगे, ’जोशी जी, विदिशा से कौन लड़ रहा है?।’ मैंने बताया, ’आपका प्रताप भानु शर्मा।’ ‘ और उनके अगेंस्ट कौन है ?’, राजीव जी ने तपाक से पूछा, और मैंने भी तपाक से कह दिया,’ अटलबिहारी वाजपेयी जी हैं।’ बिना सोचे-रुके राजीव जी ने चुनाव-परिणाम सुना दिया, ’फिर तो मारे गये प्रताप भानु।’ कोई भी पार्टी अध्यक्ष अपने प्रत्याशी की चुनाव नियति की ऐसी घोषणा नहीं करेगा। लेकिन, राजीव जी की धमनियों में खांटी राजनीति व नेतागीरी थी ही नहीं। उनकी मुख मुद्राओं और शब्दों से एक विचित्र प्रकार का भोलापन झलकता रहता था।
आज तैतीस साल बाद एक नहीं, अनेक घटनाएं याद आ रही हैं। लेकिन दो-तीन अनुभवों के उल्लेख से ही स्पष्ट हो जायेगा कि राजीव जी कैसे थे। 1991 में भी चुनाव का मौसम था, और आज भी चुनाव- भंवर में देश फंसा हुआ है।
ऐसे राजनीतिक माहौल में राजीव गांधी की पुण्य तिथि या शहादत दिवस का महत्व स्वतः हो जाता है। सारांश में, राजीव गांधी एक ऐसे व्यक्तित्व थे जिन्हें उस अखाड़े में उतरना पड़ा या उन्हें उसमें धकेल दिया गया था, जिसके वे दांव-पेंच सिरे से नहीं जानते थे। परले दर्ज़े के अनाड़ी थे।
एक दफ़ा हम पत्रकार राजीव जी के साथ सुल्तानपुर से अमेठी जा रहे थे। रात का समय था, सर्दी का मौसम था। प्रधानमंत्री का काफ़िला बीच राह अचानक रुक गया। बाहर ठंडी हवाएं चल रही थीं। दो-तीन मिनट हुये होंगे, बाहर से टॉर्च की लाइट मेरे चेहरे पर पड़ती है। मैं खिड़की से सट कर बैठा हुआ था। व्हाइट अम्बेसडर में दो और पत्रकार साथी थे। हम सभी चिंतित हुए। मैंने आशंका मिश्रित संकोच के साथ खिड़की का ग्लास नीचे किया। सभी भौंचक्के रह गए। सामने देख रहा हूं कि प्रधानमंत्री राजीव गांधी टॉर्च लिए खड़े हैं और उनके साथ दो-तीन अंगरक्षक हैं। हमने समवेत स्वर से पूछा, ’क्या हुआ राजीव जी?’। वे कुछ नाराज़गी के स्वर में बोले, ’हुआ क्या… मेरे पीछे ढेर सारी गाड़ियां चल रही हैं। ज़रुरत नहीं है। एक एक गाड़ी को लास्ट तक देखता हूं।’ इतना कह कर वे पीछे की तरफ बढ़ गए। हमने देखा, वे हरेक वाहन को देखते जा रहे हैं और कुछ निर्देश भी दे रहे हैं। कुछ देर बाद लौटे और बोले, ’मैंने बोल दिया है आप लोगों की कार के बाद पुलिस की गाड़ी रहेगी। दूसरी गाड़ियां बाद में आएंगी।’ इतना कहते हुए वे अपनी कार की तरफ आगे बढ़ गए।
प्रधानमंत्री राजीव गांधी की ऐसी सादगी और मासूमियत पर हम न हंस सकते थे, और न ही गुस्सा कर सकते थे। यह काम किसी साधारण पुलिस इंस्पेक्टर का हो सकता था। मगर, जब देश का प्रधानमंत्री ही इंस्पेक्टर या सिपाही का रोल निभाने लगे, तब क्या कहा जाए ! इसे भोली मूर्खता ही कहा जा सकता है। लेकिन, इस रोल की भी एक वज़ह है। राजीव जी के मानस में पश्चिमी समाज की राजनैतिक जीवन शैली समाई हुई थी। अमेरिका और पश्चिमी देशों में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की व्यवहार शैलियां सामान्य रहती हैं। वे अपने पदों को सिर पर नहीं बैठाते हैं। लेकिन, पिछड़े देशों के नेताओं के पोर-पोर में सामंती शैली का बास रहता है। इसलिए, सत्ताधारियों को भी लोगों का भिनभिनाना रास आता रहता है। पहले पायदान पर ठकुरसुहाती रहती है। राजीव गांधी दिलजोई संस्कृति के अभ्यस्त नहीं हो सके।
ऐसा ही एक अन्य अनुभव है। यह किस्सा तबका है जब राजीव गांधी को सत्ता से बेदख़ल हुए चंद रोज़ ही बीते थे। इंडिया गेट के पास वे एक खुली जीप को स्वयं चला कर आ रहे थे। पीछे थी उनके कुछ सुरक्षाकर्मियों की कार। लाल बत्ती की वज़ह से एक ट्रैफिक चौराहे पर उन्हें रुकना पड़ा। बराबरवाली लेन में मैं पहले से ही रुका हुआ था। उन्होंने इधर-उधर देखा और मुझ पर नज़र पड़ी। उन्होंने हाथ ही नहीं हिलाया, वे अपनी कार से उतरने भी लगे और मैं भी। इसी बीच हरी लाइट हो गई। जाते समय उन्होंने हाथ हिलाया। इस व्यवहार की व्याख्या कैसे की जाए!
हमारे देश में कोई नगर पार्षद या सरपंच भी बन जाता है तो वह स्वयं को सातवें आसमान का प्राणी समझने लग जाता है।! एक समय तक प्रधानमंत्री निवास स्थान पर नियमितरूप से ‘जनता दर्शन’ आयोजित किये जाते थे। मैंने ऐसे अवसरों को दो-तीन दफे कवर किया था। मुझे याद है, लोगों के साथ राजीव जी इतने घुलमिल जाया करते थे कि सुरक्षाकर्मियों के लिए समस्या पैदा हो जाती थी। एक दृश्य में तो जैनमुनि और दूसरे संत लोग उनके कानों में कुछ फुसफुसाने लगे थे। वे सहजभाव से उनके पास चले जाया करते थे।
वे मौज़ूदा प्रधानमंत्री मोदी की तरह अपने वस्त्रों को बार-बार नहीं बदला करते थे। विदेश यात्राओं में भी उन्हें दिन भर एक ही पोशाक में देखा है। उनके पास ऐसा कोई कुर्ता या कोट नहीं था जिसे पहन कर वे इतराते फिरते और विदेशी राष्ट्रपतियों-प्रधानमंत्रियों से कहते कि ‘देखिये, मेरी यह पोशाक 5 -10 लाख रुपयों की है।’
एक यात्रा में हम लोग मास्को से दिल्ली लौट रहे थे। मुझे विशिष्ट विमान के केबिन में राजीव जी का इंटरव्यू लेने का समय मिल गया था। निश्चित समय पर मैं केबिन में पहुंच गया। वे तैयार थे। अनौपचारिक वस्त्रों में थे। उन दिनों मोबाइल नहीं थे। मिनी टेपरिकॉर्डर का प्रयोग करते थे। मैंने ऐसा ही किया। मेरे रिकॉर्डर को देख कर उन्होंने उसे उठा लिया और अपने हाथों में नचाने लगे। मन में मैं सोचने लगा ‘मेरा रिकॉर्डर गया!’। हंसते हुए राजीव जी पूछने लगे, ’जोशी जी, बड़ा अच्छा है। यह कहां से मारा?’ मैं अवाक था। मैं प्रधानमंत्री से ऐसे प्रश्न की उम्मीद नहीं कर रहा था। फिर भी मैंने तुरंत उत्तर दिया, ‘राजीव जी, एक यात्रा में फ्रैंकफुर्ट (पश्चिमी जर्मनी) से ख़रीदा था।’ ‘‘सम्हाल कर रखें। अच्छा लग रहा है। अब इससे इंटरव्यू हो जाए।’ रिकॉर्डर को वापस देते हुए राजीव जी बोले।
राजीव जी की मासूमियत का एक और प्रसंग है। 20 जुलाई, 1987 की सुबह राजीव गांधी श्रीलंका की राजधानी कोलम्बो में सैन्य टुकड़ी का निरीक्षण कर रहे थे। निरीक्षण सलामी के दौरान एक सैनिक ने उन पर राइफल के बट से हमला कर दिया था। मैं भी प्रेस पार्टी का सदस्य था। हम लोगों को पहले से ही विमान में बैठने के लिए अग्रिम पार्टी के रूप में भेज दिया था। विमान में ही प्रधानमंत्री पर हमले की सूचना पहुंची थी। हम सब लोग अशुभ आशंकाओं में घिर गए थे; राजीव जी की जान जा सकती थी; सैन्य विद्रोह हो सकता था; स्थानीय सिंहली जनता भारत-श्रीलंका समझौते के ख़िलाफ़ थी।
इन आशंकाओं के बीच राजीव जी विमान में सही सलामत हम लोगों के बीच पहुंच गए। चिंतित पत्रकारों को शर्ट की कॉलर उठाकर अपने गले पर आई कुछ खरोंचों को भोलेमन से दिखाने लगे। उनके चेहरे पर कहीं भी तनाव, आक्रोश और घृणा के भाव नहीं थे। मुस्कराहट के साथ सिर्फ साहस या दुस्साहस ज़रूर चमक रहा था। ऐसे थे राजीव गांधी; एक मिसफिट प्रधानमंत्री, एक बेमनी राजनीतिककर्मी, पारदर्शी व्यक्ति, समर्पित देशभक्त, संचारक्रांति के सूत्रधार, ज़िम्मेदार पति व पिता। विडंबना देखिए, वे कोलंबो में सिंहली सैनिक से तो बच गये , लेकिन अपने ही देश की भूमि में श्रीलंका के तमिल उग्र राष्ट्रवादियों के षड़यंत्र के शिकार हो गए!
मुझे क्या मालूम था कि 19 मई का डिनर राजीव गांधी के साथ हमारा ‘लास्ट सपर’ (अंतिम भोजन) रहेगा! याद आया, बीस सदी पहले ईसा मसीह भी लास्ट सपर के बाद गले में क्रॉस को लटकाये अपनी अंतिम यात्रा पर निकले थे! पेरम्बदूर में उक्त आत्मघाती विस्फोट में अन्य 14 लोगों के प्राण भी गए थे, और अनेक घायल हुए। आज घटनास्थल पर राजीव जी की स्मृति में सुंदर- सा स्मारक स्थल बन चुका है। देखने लायक है।
(रामशरण जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)