बोल्शेविकों ने रुसी क्रांति को अवश्यम्भावी बना दिया

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“रूस के दो प्रमुख शहरों और अधिकांश क्षेत्रों में श्रमिक क्रांति की सफलता ने किसानों को भूमि प्रबंधन अपने नियंत्रण में लेने का मौका दिया है। हालांकि, अभी सभी किसान यह नहीं समझ पाए हैं कि उनके किसानों के डिप्टी सोवियत ही वास्तविक, वैध और सर्वोच्च राज्य शक्ति हैं, लेकिन वे इसे जल्द ही समझ जाएंगे।” लेनिन के ये शब्द महज शब्द नहीं थे बल्कि जिस रूपांतरण का अनुभव एक कम्युनिस्ट होने के नाते उन्होंने बहुत दिन पहले किया था वह पूरा होता हुआ देख पा रहे थे। वह देख पा रहे थे अपने और साथ में सर्वहारा क्रांति के सपनों को साकार होता हुआ। कम्युनिस्ट आन्दोलनों और क्रांति के इतिहास में नवंबर का महीना बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि इसी महीने रूस की समाजवादी क्रांति को मूर्त रूप दिया गया था।

बड़ा सवाल यह है कि आखिर ऐसा हुआ क्या जिसकी वजह से 1905 और फरवरी 1917 की क्रांति के बाद भी अक्टूबर क्रांति की जरूरत पड़ गयी? यह सवाल जितना आज से 110 साल पहले महत्वपूर्ण था उतना ही आज भी प्रासंगिक है, सुधार या क्रांति। लोगों के मध्य यह बात बहुत मजबूती से बिठाई गयी है कि बदलाव तो तय है चाहे आप चाहो या न चाहो। और वह इसकी तुलना 50 साल पुरानी बातों से करेंगे और बोलेंगे क्या कुछ नहीं बदला है? हाँ बिलकुल बदला है और इससे कोई भी इंकार नहीं कर सकता है।

हम तकनीक में, उत्पादन के तरीकों में, ऊपरी रूप से ‘परसेप्शन बेस्ड’ सामाजिक बदलाव से गुजरें हैं। परन्तु बड़ा सवाल यह है कि क्या शोषण समाप्त हुआ है, क्या आधारभूत शोषक तत्व नष्ट हो चुके है, क्या संबंधों में बदलाव को मूर्त रूप दिया जा पाया है, क्या समाज सच में एक ‘समावेशी'(inclusive) विकास की तरफ बढ़ा है? साधारणतः मैं समावेशी शब्द का प्रयोग नहीं करता हूँ क्योंकि यह एक भ्रष्ट गैर-बराबरी के समाज को जस्टिफाई करने के लिए एक नायब शब्द है। मेरे लिए भी क्रांति और सुधर के मध्य वही अंतर है जो मार्क्स के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धांत में था। जिसे माओ मात्रात्मक परिवर्तन से गुणात्मक परिवर्तन की यात्रा कहते हैं।

1905 की क्रांति के बाद रूस में जारशाही द्वारा श्रमिक वर्ग को बड़ी बेरहमी से कुचला गया। ट्रेड यूनियन पर पाबंदियां लगायी जाने लगीं, श्रमिकों के वेतन में 15 -20 % की गिरावट कर दी गयी थी। किसी भी प्रकार के सांगठनिक कार्य को सैनिकों और जार के गुंडों द्वारा भीषण दमन का सामना करना पड़ रहा था। इन्हीं कठिन परिस्थितियों के बीच USSR के अंदर के कम्युनिस्ट आंदोलन में भी कई संघर्ष चल रहे थे। जहाँ बोल्शेविक और मेंशेविक दो धड़े अलग ही तरीके से देश को जारशाही से स्वतंत्र करने की योजना में थे। मेंशेविकों का यह मानना था कि सभी प्रकार के भूमिगत (underground) कार्य रोक दिए जाएँ व केवल जारशाही के आज्ञा से केवल ऊपर के कार्य ही किये जाएं जिसमें ट्रेड यूनियन के कार्यशीलता को बढ़ाया जाए।

इसके विपरीत बोल्शेविक क्रन्तिकारी पार्टी की योजना परिस्थिति के मूल्यांकन के साथ बदल रही थी। जहाँ भीषण दमन के कारण भूमिगत कार्यों के साथ अन्य क़ानूनी संगठनों को कवर संगठनों के तौर पर इस्तेमाल करने की बात की गयी जिससे पार्टी जनता के सम्बन्ध बनाने में कामयाब रहे। इसके अलावा बोल्शेविक पार्टी ने चुनावों में भी जाने का फैसला किया। लेनिन अपने संकलन में लिखते हैं कि ड्यूमा में जाने का हमारा मकसद न केवल जार को जनता के सामने बेनकाब करना है अपितु लिबरल पार्टियों को भी उनके अवसरवादी नीतियों और क्रांतिविरोधी कार्यों के लिए बेनकाब करना है। अर्थात, चुनाव में जाए हुए भी बोल्शेविक पार्टी ने अपना क्रन्तिकारी कार्यक्रम नहीं छोड़ा, जिसका नतीजा यह हुआ की एक मात्र क्रान्तिकारी पार्टी के रूप में रूस के क्रांति के अगुआ दस्ता का प्रतिनिधित्व किया।

हालांकि बोल्शेविक सीधे तौर पर सड़कों पर जनता के संघर्ष का नेतृत्व कर रहे थे, समझौता करने वाली पार्टियों, मेंशेविक और सोशलिस्ट-रिवोल्यूशनरी (जो एक छोटे बुर्जुआ वर्ग की पार्टी थी और पहले के नारोडनिक आंदोलन की उत्तराधिकारी थी) ने सोवियतों में सीटें हथिया लीं और वहां बहुमत बना लिया। इस प्रकार, उन्होंने पेत्रोग्राद, मॉस्को और कई अन्य शहरों में सोवियतों का नेतृत्व किया। इसी बीच, ड्यूमा के उदार बुर्जुआ सदस्यों ने मेंशेविकों और सोशलिस्ट-रिवोल्यूशनरीज़ के साथ एक गुप्त समझौता किया और एक अस्थायी सरकार का गठन किया। इसका परिणाम दो संस्थाओं के निर्माण के रूप में हुआ, जो दो अलग-अलग तानाशाहियों का प्रतिनिधित्व करती थीं: बुर्जुआ वर्ग की तानाशाही, जिसे अस्थायी सरकार द्वारा दर्शाया गया था, और सर्वहारा और किसानों की तानाशाही, जिसे मजदूरों और सैनिकों के डिप्टी सोवियतों द्वारा दर्शाया गया।

परन्तु जनवरी 1917 आते-आते परिस्थितियों ने एक अलग मोड़ ले लिया था। देश के विभिन्न इलाकों में कामगारों द्वारा प्रतिरोध प्रदर्शन किया जाने लगा था जिसका एक बहुत बड़ा कारण युद्ध में होने वाला भारी नुकसान जिसे रूस की आम जनता ने उठाया था। देश के विभिन्न औद्योगिक इलाकों में महिलाओं ने संगठित होकर लड़ते हुए सैनिकों से आवाहन किया कि वह देश के व्यापक शोषित जनता के साथ खड़े हों न की शोषक जार के साथ। और आख़िरकार वही हुआ, एक भारी संख्या में संघर्षरत श्रमिकों के साथ सैनिकों ने क्रान्तिकारी गुट का साथ देते हुए एक सशस्त्र क्रांति की शुरुआत कर दी जिसकी अगुवाई बोल्शेविक पार्टी कर रही थी।

परन्तु वास्तविक रूप से जो क्रांति फ़रवरी में हुई वह एक बुर्जुआ क्रांति से ज्यादा कुछ नहीं कही जा सकती है। हालांकि बोल्शेविक सीधे तौर पर सड़कों पर जनता के संघर्ष का नेतृत्व कर रहे थे, समझौता करने वाली पार्टियों, मेंशेविक और सोशलिस्ट-रिवोल्यूशनरी (जो एक छोटे बुर्जुआ वर्ग की पार्टी थी और पहले के नारोडनिक आंदोलन की उत्तराधिकारी थी) ने सोवियतों में सीटें हथिया लीं और वहां बहुमत बना लिया। इस प्रकार, उन्होंने पेत्रोग्राद, मॉस्को और कई अन्य शहरों में सोवियतों का नेतृत्व किया।

इसी बीच, ड्यूमा के उदार बुर्जुआ सदस्यों ने मेंशेविकों और सोशलिस्ट-रिवोल्यूशनरीज़ के साथ एक गुप्त समझौता किया और एक अस्थायी सरकार का गठन किया। इसका परिणाम दो संस्थाओं के निर्माण के रूप में हुआ, जो दो अलग-अलग तानाशाहियों का प्रतिनिधित्व करती थीं: बुर्जुआ वर्ग की तानाशाही, जिसे अस्थायी सरकार द्वारा दर्शाया गया था, और सर्वहारा और किसानों की तानाशाही, जिसे मजदूरों और सैनिकों के डिप्टी सोवियतों द्वारा दर्शाया गया।

अगस्त 1917 में रूसी कम्युनिस्ट पार्टी का कांफ्रेंस हुआ जिसमें लेनिन द्वारा लिखा गया अप्रैल थीसिस पास किया गया। अप्रैल थीसिस में इस नारे को मजबूत किया गया कि देश की सारी शक्ति सोवियतों के हाथ में होनी चाहिए। कांफ्रेंस के तुरंत बाद ही उदारवादी लोकतान्त्रिक क्रांति की असलियत लोगों के सामने आ गयी जब सरकार ने बोल्शेविकों और कम्यून को समाप्त करने के लिए सैनिकों को आदेश दिए। परन्तु एक बहुत बड़ी संख्या में सैनिकों ने इस आदेश को मानने से इंकार कर दिया क्योंकि वह बोल्शेविकों के नीति से संतुष्ट थे। मेंशेविकों से यह उम्मीद की जा सकती थी और इतिहास से सीख लेते हुए रूस के कम्युनिस्टों ने वह कर दिखाया जिसे आज के समय में भी यूटोपिया कहा जाता है। हाँ ये सच है कि वह सारे लोग आज भी इस समाज में मौजूद है जो घोर निराशावाद के अंदर खुद के वर्गीय सुख को छुपाते हुए ‘क्रांति-असंभव’ की संकल्पना पर काम करते हैं।

रूसी क्रांति ने यूटोपियन इमेज को तोड़ दिया था। इसके बाद जैसे पूरी दुनिया में साम्यवादी विचारधारा के आधार पर कई पार्टियों की स्थापना की गयी और एक नयी सदी की शुरुआत हुई जिसमें लोगों के पास एक वैकल्पिक व्यवस्था, अर्थनीति, राजनीति, सामाजिकतंत्र उपलब्ध हो गया। “एन्ड ऑफ़ द वर्ल्ड” की संकल्पना आज भी उतनी ही खोखली और डर से भरी हुई है जैसे मेंशेविक डरे हुए थे अपने सामंती-उदारवादी सुख के ख़तम हो जाने से।

(निशांत आनंद दिल्ली विश्वविद्यालय में कानून के छात्र हैं)

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