जिनके घर ही नहीं हैं, लॉक डाउन में वो कहां जाएं मोदी जी?

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नई दिल्ली। 24 मार्च को 8 बजे टीवी पर प्रगट होकर मोदी जी ने रात 12 बजे से लॉक डाउन घोषित करते हुए कहा कि घर से बाहर न निकलें। लेकिन उन्होंने ये नहीं बताया कि जो बेघर हैं वो क्या करें, कहां किसके घर जाएं। 

आँकड़ों में बात करें तो 2011 की जनगणना के अनुसार इस देश में लगभग 17.72 लाख लोग बेघर हैं। देश के 14 प्रतिशत बेघर देश के 5 शहरों में हैं। मुंबई शहर में करीब 1 लाख लोग बेघर हैं। तो कोलकाता में 70 हजार और दिल्ली में 50 हजार  लोग। उत्तर प्रदेश में 3.5 लाख लोग बेघर हैं जहां यूपी पुलिस घर से बाहर झांकने वाले परिवार के पूरे परिवार को समान भाव से मारती है, बिना स्त्री-पुरुष, गर्भवती जवान बूढ़े बच्चे का भेद किए। 

खाना तो मिल रहा है लेकिन सोशल डिस्टेंसिंग की बात मजाक लगती है,

देश भर के शेल्टर होम की ऑडिट और स्टडी तथा बेघरों के लिए काम करने वाली संस्था इंडो-ग्लोबल सोशल सर्विस सोसायटी के सोनू हरि मौजूदा हालात पर प्रतिक्रिया देते हुए कहते हैं, “स्थिति बहुत भयावह है। मुश्किल ही मुश्किल है। शेल्टर होम में बाहर से इतने लोग आ गए हैं कि सोशल डिस्टेंसिंग जैसी ज़रूरी प्रक्रिया का पालन तक नहीं हो सकता। खाना जब आता है तो वो लोग ऐसे टूटते हैं कि सोशल डिस्टेंसिंग जैसी चीज तो भूल ही जाइए। पहले ही बेघरों की संख्या मौजूदा शेल्टर होम की क्षमता से अधिक थी।

शेल्टर होम तो पहले से ही ओवर क्राउडेड हैं। वहां पर एक मीटर का डिस्टेंस बनाकर रहने जैसी बात कहना ही मजाक करना है। तो जिन्हें जगह नहीं मिल पाती वो शेल्टर के बाहर रोड पर रहते थे। लॉक डाउन के बाद पुलिस उन्हें डंडे मारकर भगा रही है। अब वो जाएं तो जाएं कहां। न रोड पर रह पा रहे हैं न शेल्टर में। तो शेल्टर के आस-पास की जगह पर जाकर वो सो रहे हैं। क्योंकि खाना शेल्टर होम के पास ही मिल रहा है। तो जिसको जहां जगह मिल गया वो सो गया। प्रवासी मजदूर के आने से समस्या ज़्यादा बढ़ी है। ऐसे में शेल्टर किसके लिए बना है वो बात ही नहीं रह गई है। 

बता दें कि दिल्ली सरकार द्वारा संभवतः मार्च की 28 या 29 तारीख से खाना दिये जाने की शुरुआत की गई। इसकी जानकारी मनीष सिसोदिया ने अपने ट्विटर हैंडल से दिया था।

लेकिन तब तक लोग भूखे प्यासे ही समय काटने के लिए बाध्य थे। 

https://twitter.com/AAPInNews/status/1244207772452847616?s=19

शुरू में पुलिस ने भी सड़कों पर रह रहे बेघरों को बहुत पीटा

दिल्ली में कूड़ा बीनने वाले समुदाय के लिए काम करने वाले एनजीओ ‘लोकाधिकार’ के संचालक धर्मेंद्र यादव बताते हैं, “घर से हमीं लोगों के निकलने में दिक्कत होती है। हमें ही पुलिस चार जगह रोकती है तो मजदूर को तो और परेशान करती है। उनके लिए खाने के लिए भी सड़क पर निकलना मुश्किल है। शुरू में पुलिस ने बहुत मारा पीटा था। लेकिन अभी कुछ कम है। शायद पुलिस को भी रियलाइज हुआ है।” 

मंडावली इलाके में रह रहा एक प्रवासी मजदूर बताता है कि पहले खाने के लिए सड़क पर निकलता था तो पुलिस मारती थी।

धर्मेंद्र यादव आगे बताते हैं, “असंगठित क्षेत्र के मजदूर सबसे ज़्यादा प्रभावित हो रहे हैं। निर्माण मजदूर, रिक्शा चालक, सब्जी रेहड़ी ठेला वाले लोडिंग-अनलोडिंग का काम करने वाले मजदूर हैं। बड़ी तादाद में असंगठित क्षेत्र के मजदूर अभी भी अपने घरों के नहीं जा पाए हैं। ये तो रहते ही शेल्टर होम में थे। इसमें कूड़ा बीन बेंच कर काम चलाने वाले लोग भी थे। कुछ थे जो बाहर सोते थे। लोग पार्क में सोते थे।

कश्मीरी गेट मेट्रो पुल पर, और बाहर पार्क में लोग अब भी सो रहे हैं। यमुना पुस्ता, मोरी गेट, कश्मीरी गेट समेत पुरानी दिल्ली के इलाकों में यही लोग रहते थे। पहले ये था कि ये दिन में काम पर निकल जाते थे रात में सोने के लिए आते थे। लेकिन काम बंद है तो लोग खा रहे हैं सो रहे हैं। दिल्ली के अधिकांश शेल्टर की क्षमता ढाई सौ है। लेकिन वहां 5 हजार के आस-पास लोग रह रहे हैं। कोरोना महामारी के समय जिस सोशल डिस्टेंसिंग की बात करते हैं वो वहाँ पर नहीं लागू हो पाएगी। कश्मीरी गेट शेल्टर होम मैं गया था।” 

धर्मेंद्र दिल्ली सरकार द्वारा स्कूलों और शेल्टर होम में वितरित करवाए जा रहे खाने पर बात करते हुए बताते हैं, “खाना तीन-चार दिन से बेहतर हो गया है, अब पूड़ी सब्जी मिलने लगी है। पहले एक डेढ़ सप्ताह तक तो स्थिति बद से भी बदतर थी। सुबह-शाम दोनों वक्त खिचड़ी दी गई, वो भी एक करछुल। उसमें किसी का पेट भरना तो दूर की बात है। रोहिणी सेक्टर -1, सेक्टर -3, सेक्टर- 5, के स्कूलों में देखा। दिल्ली सरकार की तरफ से स्कूलों में खाना मिल रहा है। लेकिन उसमें भी खाना लेने के लिए कहीं हजार कहीं आठ सौ लोग लाइन में लगे हैं।”

संगठित क्षेत्रों के प्रवासी मजदूरों के आने से शेल्टर होम में रहने लायक स्थिति नहीं है

अधिकांश कंपनियां और कारखाने प्रवासी मजदूरों के लिए अपनी कंपनी या कारखाने में ही रहने खाने की व्यवस्था करती हैं ताकि उनसे ज्यादा घंटे (रोजाना 10-14) तक काम लिया जा सके। वो मजदूरों को हायर करते हुए ही रहना+ खाना फ्री कहकर हायर करती हैं। लेकिन लॉक डाउन के बाद कई कंपनियों और कारखानों में काम बंदी के चलते मालिक व मैनेजमेंट द्वारा कंपनी या कारखाना परिसर में रहने वाले मजदूरों से कंपनी कारखाना परिसर खाली करने के लिए कह दिया गया जिससे बड़ी तादाद में संगठित क्षेत्र के मजदूरों के सामने रहने खाने की समस्या पैदा हो गयी। तो बड़ी तादाद में मजदूर पैदल ही अपने गांव की ओर कूच कर दिये। लेकिन पुलिस की सख्ती के बाद बहुत से मजदूर नहीं निकल पाए। 

29 मार्च को दिल्ली सरकार की ओर से मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने प्रवासी मजदूरों से दिल्ली में रुकने की अपील की और सरकार द्वारा उनके रहने खाने के इंतजाम की बात कही गई। 

उनकी अपील के बाद भी बहुत से मजदूर गए लेकिन अभी भी दिल्ली में काफी प्रवासी मजदूर बचे हुए हैं। उन लोगों को खाना तो मिल जा रहा है लेकिन शेल्टर होम में उनके जाने से वहां की स्थिति बहुत ही विस्फोटक हो गई। 

धर्मेंद्र बताते हैं कि “कई मजदूर सामूहिक रूप से कमरा लेकर रहते थे। एक कमरे में 5-10 मजदूर। लॉक डाउन के बाद कई मकान मालिकों ने प्रवासी मजदूरों से कमरा खाली करवा लिया तो उनके सामने भी रहने का संकट पैदा हो गया।”

दिल्ली स्कूल में शिक्षक एसके सिंह बताते हैं कि उनके स्कूल में 1000-1500 लोगों को खाना दिया जाता है। खाना पैक होकर आता है कहीं से, स्कूल में नहीं बनता। फिर लाइन में लगाकर बांटा जाता है। सुबह 7-10 बजे और शाम 6-8 बजे के बीच बाँटा जाता है। रहने के लिए जगह नहीं बनाई है। स्कूल के आस पास रहने वाले रिक्शे वाले, रिक्शा बैटरी वाले, दिहाड़ी मजदूर हैं वहीं खाने के लिए आते हैं। दो दिन से अब स्कूलों में राशन भी बँट रहा है। पहले कुछ दिन दिक्कत हुई थी। जब खाना कम पड़ा था। लेकिन अभी संख्या नियत हो गई है तो खाना बराबर अट जाता है।

कितने स्कूलों में रहने की व्यवस्था है सिसोदिया जी

शिक्षक मुन्ना ख़ान बताते हैं, “बरेथुआ डेरी के एक स्कूल में रहने की व्यवस्था है। 7-8 स्कूलों में रहने की व्यवस्था है। खाने की व्यवस्था लगभग हर स्कूल में है। मिड डे मील प्रोवाइड करने वाले ठेकेदार अपने मुताबिक देते हैं खाने में। कभी राजमा चावल, कभी पूड़ी सब्जी, कभी खिचड़ी। कंस्ट्रक्शन वर्कर जहाँ रह रहे थे वो वहीं रुके हैं।” 

पटपड़गंज के एक स्कूल के एक कमरे का वीडियो जिसे इंडिया टुडे आज तक ने शूट किया है वहां रहने की व्यवस्था है। इसके अलावा गाजीपुर और आनंद विहार के दो स्कूलों में रहने की व्यवस्था की जानकारी मनीष सिसोदिया ने अपने ट्विटर हैंडल से दी है। 

बता दें कि आनंद विहार और कौशांम्बी बस अड्डे पर बहुत से प्रवासी मजदूर 27-28 को बस पकड़ने के लिए इकट्ठा हुए थे।

दिल्ली के स्कूलों से दूर रह रहे लोगों के लिए खाना अभी भी जस का तस है 

जो दिल्ली की अरविंद केजरीवाल सरकार लगातार दावा करती आ रही है कि वो दिल्ली के सभी स्कूलों में दोनों जून खाना उपलब्ध करवाकर 20 लाख दिल्ली वासियों का पेट भर रही है। लेकिन हकीकत दावों के उलट नज़र आते हैं। सरकार द्वारा उपलब्ध करवाया जा रहा कथित खाना ज़रूरतमंदों तक पहुँच ही नहीं रहा। इसके दो कारण हैं। पहला ये कि सरकार की कोशिश रिहायशी इलाके में स्थित स्कूलों के इर्द-गिर्द तक ही सिमट कर रह जा रही है। ऐसे में कूड़ा बीनने वाले वर्ग जो बेहद इंटीरियर इलाके में रहता है जहाँ स्कूल नहीं वहां तक खाना पहुँच ही नहीं पाता है। इसी तरह सरकार द्वारा उपलब्ध करवाया जा रहा खाना मंडी हाउस जैसे गैर रिहाइशी इलाकों में भी नहीं पहुँच पा रहा है। 

धर्मेंद्र यादव बताते हैं कि, “जहांगीर पुरी, सुल्तानपुरी मंगोलपुरी, सीमापुरी के स्लम बस्तियों में पहुँच रही हैं। लेकिन बवाना से भी अंदर जो लोग गांव में रह रहे हैं, उन घरों तक नहीं पहुंच रहा है। कूड़ा बीनने वाला समुदाय बहुत इंटीरियर इलाकों में रहता है उनके लिए खाना नहीं पहुँच पा रहा है। सरकारी सुविधाएं उनको मिलना मुश्किल है। कई ऐसे प्रवासी हैं जिनके पास दिल्ली का कोई प्रूफ ही नहीं है। वो तो बस कमाने खाने वाले लोग हैं वो सरकारी सुविधाओं से वंचित ही रहेंगे। लॉक डाउन बढ़ने की स्थिति में असंगठित क्षेत्रों के मजदूरों के सामने स्थिति बहुत ज़्यादा खराब होने वाली है।”

वहीं मंडी हाउस जैसे गैर रिहाइशी इलाके में भी खाने की सुविधा सरकार नहीं मुहैया करवा रही है। निर्माण क्षेत्र में काम करने वाले करीब 20 मजदूर (स्त्रियां, बच्चों समेत) मंडी हाउस में भूखे प्यासे फँसे हुए हैं। स्त्रियों के गोद में बैठी छोटी छोटी बच्चियों के भूख से पपड़ाये होठों और निराश आँखों में झाँकने के बाद कलेजा मुँह को आ जाता है। ये लोग मधेपुरा (बिहार) क्षेत्र से जदयू के लोकसभा सांसद दिनेश चंद्र यादव की कोठी के पिछले हिस्से में रहते हैं। 

मुंबई की स्लम बस्ती के लोगों, भिखारियों और प्रवासियों के सामने जीवन का संकट 

मुंबई में करीब एक लाख बेघर लोग रहते हैं लेकिन सरकार की ओर से महज 262 रिलीफ कैम्प बनवाए गए हैं। लॉकडाउन की वजह से मजदूर, बेघर और भिखारियों की परेशानी देखकर महाराष्ट्र सरकार ने 262 रिलीफ कैम्प बनाने और उनमें 70 हजार से भी ज्यादा लोगों के शरण लेने का दावा किया है। सोशल डिस्टेंसिंग को ध्यान में रखते हुए एक रिलीफ कैम्प में कितने लोगों के रहने की क्षमता है जो सरकार ये दावा कर रही है। 

एक लाख बेघर लोगों के अलावा लॉक डाउन के बाद फंसे प्रवासी मजदूर भी इन्हीं कैम्पों में रहते होंगे। ऐसे में ये कल्पना करके ही डर लगता है कि सोशल डिस्टेंसिंग जैसे शब्द कहां शरण पाते होंगे इन रिलीफ कैम्पों में।

बृहन्मुंबई म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन (BMC) का दावा है कि वो सभी बेघरों का ख्याल कर रही है लेकिन मुंबई के कई इलाकों में ऐसे बेघर बच्चे हैं, जो खाने की तलाश में इधर-उधर भटक रहे हैं। ठाकरे परिवार के मशहूर निवास ‘मातोश्री’ से महज एक किलोमीटर की दूरी पर अम्बेडकर गार्डन के पास कई बेघर बच्चे एक किराना स्टोर के बाहर सो रहे हैं। ये भीख मांगकर गुजारा करने वाले बच्चें हैं जो हाल फिलहाल लॉकडाउन के चलते दाने दाने को मोहताज हैं।

एक बेघर महिला बताती है, “हम कई जगह खाना मांगने के लिए गए लेकिन उन्होंने आधार कार्ड मांगा, हमारे पास आधार कार्ड नहीं है। भीख मांगने और प्रार्थना के सिवा और कोई चारा नहीं है।”

मुंबई के अंधेरी स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स में बने बीएमसी (BMC) के एक रिलीफ कैम्प में करीब 75 बेघर लोग हैं जिन्हें अंधेरी के ही स्थानीय युवक भोजन और पानी मुहैया करवा रहे हैं। 

हर्ष मंदर और अंजलि भारद्वाज ने प्रवासी मज़दूरों से सम्बंधित इंतज़ामात को लेकर हफ़्ते भर पहले सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर की थी। उस पर केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को जो जवाब भेजा है, उसमें बताया गया है कि इस लॉकडाउन के दौरान देश भर में प्रवासी मज़दूरों के लिए कितने राहत शिविर बने हैं। उन आंकड़ों के अनुसार, पूरे देश में ‘ऐक्टिव शेल्टर्स एंड रिलीफ कैम्प्स’ का 65% केरल सरकार द्वारा संचालित है।

वहाँ राज्य सरकार 15,541 ऐसे शिविर चला रही है। दूसरे नंबर पर महाराष्ट्र सरकार है जो महज़ 1,135 शिविर चला रही है। वहां चलने वाले अन्य 3,397 शिविर ग़ैर-सरकारी संगठन चला रहे हैं। और सभी राज्य बहुत पीछे हैं। भाजपा-शासित राज्यों का हाल प्रवासी मज़दूरों की देख-रेख के मामले में सबसे बुरा है।

(जनचौक के विशेष संवाददाता सुशील मानव की रिपोर्ट।)

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