Tuesday, March 28, 2023

दलित लिटरेचर फेस्टिवल: दलित साहित्य पढ़े बिना आप मनुष्य नहीं बन सकते

डॉ. सिद्धार्थ
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नई दिल्ली। दिल्ली विश्वविद्यालय के साउथ कैंपस के आर्यभट्ट कॉलेज में दो दिनों तक देश भर से आए दलित साहित्यकारों, चिंतकों, फिल्मकारों और लोक कलाकारों ने दलित साहित्य-संस्कृति पर चिंतन मनन किया। 3-4 फरवरी को आयोजित इस कार्यक्रम के कारण कॉलेज परिसर में भारी चहल-पहल रही। कॉलेज के मुख्य द्वार से प्रवेश करते ही इस फेस्टिवल में आपका स्वागत करते बैनर-पोस्टर दिखाई दिए। पूरे कैंपस को मनमोहक तरीके से फूल-पत्तियों, कलात्मक पोस्टरों और कलाकृतियों से सजाया गया है।

भारत की तीन हजार साल के श्रमण-बहुजन परंपरा के नायकों की तस्वीरें करीने से लगाई गईं हैं और जगह-जगह उनके महत्वपूर्ण उद्धरण लिखे गए हैं। प्रवेश करते ही श्रमण-बहुजन परंपरा के आदि प्रवर्तक बुद्ध मुस्कराते हुए आपका स्वागत करते हैं। डॉ. आंबेडकर की तेजस्विता आने वालों को ऊर्जा से भर देती है। सावित्री बाई फुले का चेहरा संघर्ष के लिए प्रेरित करता हुआ दिखाई देता है। ई. वी. रामासामी पेरियार एक दार्शनिक के रूप आपके सामने प्रकट होते हैं।

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दलित लिटरेचर फेस्टिवल में लोकगायक

बिरसा मुंडा अन्याय के खिलाफ युद्ध के लिए प्रेरित करते हुए दिखाई देते हैं और आदिवासियों के हजारों वर्षों के संघर्ष को मूर्तिमान कर देते हैं। नारायण गुरु और आय्यंकली केरल के बहुजनों के संघर्ष की कहानी कहते हुए से लगते हैं। थोड़े देर के लिए ऐसा लगता है कि सारे बहुजन नायक एक साथ आप से कुछ कह रहे हों, आपको कुछ सलाह दे रहे हों, आपको प्यार और दुलार दे रहे हों।

“भारतीय समाज को कैसा होना चाहिए और कैसा नहीं होना चाहिए, भारतीय आदमी का कौन सा रूप घृणास्पद है और कौन सा रूप प्यारा है, यदि आप यह जानना चाहते हैं और मनुष्य बनना चाहते हैं, तो आपको दलित साहित्य पढ़ना ही पड़ेगा।” यह बात दलित लिटरेचर फेस्टिवल ( 3-4 फरवरी, दिल्ली) में उपस्थित रमेश भंगी ने कही।

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दलित लिटरेचर फेस्टिवल में बोलते प्रो चौथीराम यादव

यह पूछने पर कि मनुष्य बनने के लिए दलित साहित्य पढ़ना क्यों जरूरी है? इसका जबाव देते हुए वे कहते हैं “जातिवादी आदमी मनुष्य नहीं हो सकता है। वह ब्राह्मण होता है, ठाकुर होता, लाला होता है, यादव होता है, कुर्मी होता है या कुछ और, मनुष्य बनने के लिए जरूरी है कि आदमी जाति की बीमारी से मुक्त हो। बाबा साहेब ने कहा था कि जाति ने भारतीयों को बीमार बना दिया है और जाति के विनाश के बिना भारतीय आदमी स्वस्थ इंसान नहीं बन सकता है। समता, स्वतंत्रता और बंधुता की भावना के साथ नहीं जी सकता है। दलित साहित्य समता, स्वतंत्रता और बंधुता का साहित्य है, जो हमें मनुष्य होना सिखाता है, जाति से मुक्त होना सिखाता है।”

थोड़ा आगे बढ़ते ही एक लोक गायक झूम-झूम कर डॉ. आंबेकर की जीवन-गाथा सुना रहे थे। जिसके बोल थे-
भीम ने हमें उबारा
दिया अधिकार हमारा

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दलित लिटरेचर फेस्टिवल में सिनेमा पर चर्चा

इस आयोजन में अलग-अलग नाक-नक्श के लोगों से, अलग-अलग राज्यों के और अलग भाषाओं बोलने वालों से मुलाकात होती है। कोई केरल से आया है, तो कोई तमिलनाडु से, तो कोई महाराष्ट्र से। हिंदी पट्टी के करीब सभी राज्यों के लोग यहां उपस्थित थे। दलित, आदिवासी, महिलाएं और ट्रांसजेंडर। युवा-युवतियों की संख्या सबसे अधिक थी, सब उत्साह, जोश और उम्मीद से भरे हुए।

अलग-अलग जगहों पर अलग कार्यक्रम चल रहे थे। कहीं दलित साहित्य, पसमांदा साहित्य और ट्रांसजेंडर साहित्य पर बात हो रही है, तो कहीं वंचित तबकों के सिनेमा और कलाओं पर। एक तरफ सावित्रीबाई फुले और फातिमा शेख ऑडिटोरियम में क्रार्यक्रम हो रहा है, तो दूसरी तरफ मार्टिन लूथर ऑडिटोरियम में। दलित साहित्य अपना रिश्ता देश के अन्य वंचित तबकों से तो कायम कर ही रहा है, दुनिया के वंचित तबकों से भी अपना रिश्ता जोड़ रहा है। इस कार्यक्रम में मार्टिन लूथर ऑडिटोरियम की उपस्थिति अमेरिका के अश्वेतों की संघर्षों के प्रतिनिधि के रूप में है।

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दलित लिटरेचर फेस्टिवल में सावित्रीबाई फुले का पोस्टर

यह सब देखते-सुनते अचानक इस आयोजन के मुख्य कर्ताधर्ता कहानीकार सूरज बड़जात्या से मुलाकात हो जाती है। यह पूछने पर कि इस आयोजन का मुख्य उद्देश्य क्या है, वे कहते हैं “ देश के अभिजन समुदाय ने जयपुर साहित्य उत्सव जैसे आयोजनों के माध्यम से साहित्य को आम लोगों से काट दिया है, उसे सुविधाभोगी लोगों की वस्तु बना दिया है, उसे बाजार के लिए एक उत्पाद में तब्दील कर दिया है। ऐसे आयोजन में मुश्किल से वंचित समुदायों को जगह मिल पाती है। असल में जयपुर साहित्य उत्सव के केंद्र में ब्राह्मणवादी साहित्य है। वहां दलित साहित्य, आदिवासी साहित्य और पसमांदा साहित्य के लिए कोई जगह नहीं है। वंचितों के साहित्य को सामने लाने, उनके लेखकों को मंच उपलब्ध कराने और उनके साहित्य से देश-दुनिया को परिचित कराने के लिए हम दलित लिटरेचर फेस्टिवल करते हैं।”

वे आगे कहते हैं, “भले ही इस आयोजन का नाम दलित लिटरेचर फेस्टिवल हो, लेकिन इसमें आदिवासियों के साहित्य, घुमंतू जनजातियों के साहित्य, पसमांदा का साहित्य, ट्रांसजेंडर और एलजीबीटी समुदायों के साहित्य को समान जगह दी गई है। असल में हम इसे सभी वंचितों का मंच बनाना चाहते हैं। हम इसमें मेहनतकश किसानों-मजदूरों का साहित्य भी शामिल करना चाहते हैं। हम भारत के वंचितों के साहित्य को दुनिया भर के वंचितों के साहित्य के साथ भी जोड़ना चाहते हैं।”

इस कार्यक्रम की जरूरत और सफलता के संदर्भ में पूछने पर बहुचर्चित साहित्यकार जयप्रकाश कर्दम कहते हैं “यह कार्यक्रम दलित साहित्य, संस्कृति, सिनेमा और लोक कलाओं को सामने लाने का मंच है। इसमें यदि दलित साहित्यकार हिस्सेदारी करते हैं, तो वंचित तबकों के लोक कलाकार भी शामिल होते हैं। इस कार्यक्रम में हम दलित साहित्य और संस्कृति की वर्तमान स्थिति, इसकी ताकत और कमजोरियों पर भी बात करते हैं और भविष्य की संभावनाओं पर भी विचार करते हैं। यह आयोजन परस्पर संवाद करने और अपने विचारों को साझा करने का अवसर भी उपलब्ध कराता है।”

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दलित लिटरेचर फेस्टिवल में पेरियार का पोस्टर

हिंदी के जाने-माने आलोचक प्रोफेसर चौथीराम यादव भी इस आयोजन में मौजूद थे। यह पूछने पर कि इस आयोजन का कौन सा आकर्षण बनारस से आपको यहां खींच लाता है, इसका जवाब देते हुए वे कहते हैं “यह वंचित तबकों का उत्सव है, जहां आने पर मैं तरोताजा महसूस करता हूं, देश के अलग-अलग हिस्सों में क्या लिखा जा रहा है, वंचित तबकों से आए बुद्धिजीवी-लेखक क्या सोच-विचार कर रहे हैं, यह सब जानने-समझने का अवसर मिलता है। युवाओं-युवतियों और छात्र-छात्राओं से मिलकर लगता है कि वे बंधुता पर आधारित समता मूलक भारत रचने के लिए किस कदर उत्सुक और तत्पर हैं। मुझे इनसे मिलकर लगता है कि ये फुले, पेरियार और आंबेडकर के आधुनिक भारत के स्वप्न को जरूर साकार करेंगे।”

वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश इस कार्यक्रम में अपनी उपस्थिति के संदर्भ में बताते हैं “मुझे इस आयोजन में जाकर बहुत सुखद अहसास हुआ। वहां उपस्थित युवक-युवतियों और छात्र-छात्राओं की उत्सुकता, जिज्ञासा और आत्मीयता भीतर से भर देने वाली थी। उनके भीतर जानने-समझने की बेचैनी देखने लायक थी। जो सबसे अच्छी बात लगी, वह यह कि बड़ी संख्या में लड़कियां और महिलाएं उपस्थित थीं। वक्ता के रूप में भी और श्रोता के रूप में भी।”

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दलित लिटरेचर फेस्टिवल में ज्योतीराव फुले का पोस्टर

इस कार्यक्रम में दुनिया के स्तर पर चर्चित किताब ‘कास्ट मैंटर्स’ के लेखक सूरज एंगडे भी उपस्थित थे। यह पूछने पर कि यहां आकर आपको कैसा लग रहा है, उन्होंने कहा “मुझे यहां आकर ऐसा सुकून मिल रहा है, जैसे अपने घर पहुंचने पर होता है। यहां मौजूद लोग मेरे अपने लोग हैं, मेरे भाई-बंधु और मेरे रिश्तेदार हैं, मेरे आत्मीय हैं। यहां आने पर किताबों का खजाना मिला। यहां हमारे नायक और नायिकाएं हैं, फुले, पेरियार, बिरसा मुंडा, सावित्रीबाई फुले और डॉ. आंबेडकर मौजूद हैं। अन्य साहित्य उत्सवों में मैं बुलाने पर जाता हूं। यहां मैं अपने आप आया हूं, क्योंकि अपने घर आने के लिए, अपने लोगों के बीच आने के लिए बुलाने की कोई जरूरत नहीं पड़ती।”

दलित-बहुजन साहित्य की महत्वपूर्ण चेहरा मुन्नी भारती से भी यहां मुलाकात होती है। वे इस आयोजन के बारे में कहती हैं “दलित-बहुजन साहित्य महिलाओं की मुक्ति का साहित्य है। बुद्ध ने सबसे पहले महिलाओं को समता का हक दिया था। सभी बहुजन नायक जीवन के सभी क्षेत्रों में महिलाओं की समानता और समान हिस्सेदारी के पक्षधर रहे हैं। हिंदू कोड बिल इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं। देखिए इस आयोजन में भी महिलाओं की करीब-करीब पुरुषों के बराबर हिस्सेदारी है। हम समता और बंधुता की विचारधारा में विश्वास रखते हैं।”

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दलित लिटरेचर फेस्टिवल में गौतम बुद्ध का पोस्टर

इस आयोजन की जरूरत के संदर्भ में पेरियार ललई सिंह ग्रंथावली के संपादक धर्मवीर यादव ‘गगन’ कहते हैं “भारत का बहुसंख्य बहुजन-श्रमण समाज वर्चस्व के विभिन्न रूपों के खिलाफ संघर्ष कर रहा है, जिसमें अभिजनों के साहित्यिक वर्चस्व के खिलाफ संघर्ष भी शामिल है। यह आयोजन वंचितों की सांस्कृतिक दावेदारी को प्रस्तुत करता है, उनके प्रगतिशील विरासत को सामने लाता है, जिसके आधार पर आधुनिक भारत का निर्माण किया जा सकता है। यहां आधुनिक भारत का स्वप्न फल-फूल रहा है।”

छत्तीसगढ़ से आए संजीत बर्मन कहते है “मैं यहां सघर्ष के हथियार (किताबें) खरीदने आया हूं। जो अक्सर बड़ी-बड़ी दुकानों, यहां तक विश्वविद्यालयों की लाइब्रेरियों तक में नहीं मिलतीं। मैं यहां अतीत और वर्तमान और भविष्य के नायकों से भेंट-मुलाकात करने आया हूं।”

यह तीसरा दलित लिटरेचर फेस्टिवल था। सबसे पहली बार यह आयोजन 3-4 फरवरी 2019 को हुआ था। उसके बाद 15-16 फरवरी 2020 को हुआ। कोविड के चलते बीच के वर्षों में नहीं हो पाया था।

(डॉ. सिद्धार्थ की रिपोर्ट।)

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Dr.N.Singh
Dr.N.Singh
1 month ago

बहुत ही सार्थक रिपोर्ट । डॉ.सिद्धार्थ जी को बधाई।आयोजकों को भी बधाई

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