आज से हम एक धार्मिक राज्य जिसे अंग्रेजी में थियोक्रेटिक स्टेट कहा जाता है, के नागरिक हैं। नागरिकता विधेयक पास हो जाने के साथ ही भारतीय गणराज्य के अंत की शुरुआत हो गयी है। इससे भारतीय गणतंत्र की न केवल नींव दरक गयी है बल्कि संविधान में भी यह बड़ा सुराक साबित होने जा रहा है। एशिया कहिए या फिर दुनिया के पैमाने पर सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का जो तमगा हमारे सीने पर लगा था खुद हमने ही उसे अपने हाथों से नोंच कर फेंक दिया है। और अब हम धर्म के आधार पर चलने वाले पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान की जमात में शामिल हो गए हैं। आधुनिक लोकतांत्रिक और संवैधानिक मूल्यों के मामले में आज छोटे पड़ोसी देशों नेपाल और श्रीलंका ने भी हमसे ऊंचा दर्जा हासिल कर लिया है।
यह मसला कुछ धर्मों के सताए लोगों को नागरिकता देने का नहीं है। जैसा कि बीजेपी और गृहमंत्री अमित शाह बार-बार पेश करने की कोशिश कर रहे हैं। जबकि वह खुद इस बात को जानते हैं कि इस बिल को उनके द्वारा किस मंशा से ले आया गया था। भारत पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान या फिर किसी भी मुल्क के सताए लोगों को तो नागरिकता देता ही रहा है। बंटवारे के बाद पाकिस्तान या फिर बांग्लादेश से आए शरणार्थियों को बगैर किसी भेदभाव के न केवल बसाया गया बल्कि उन्हें हर तरह की आर्थिक सहायता देकर सम्मान जनक जीवन जीने के लिए मदद दी गयी।
इस देश के भीतर अगर किसी ने उनका सबसे ज्यादा विरोध किया तो घुसपैठिया करार देकर बीजेपी ने किया। हालांकि वह उन्हें मुस्लिम जमात का बनाकर पेश करती रही। लेकिन असम की घटना ने बिल्कुल साफ कर दिया है कि उनमें सबसे ज्यादा हिंदू शामिल थे। और यही स्वाभाविक बात भी थी। क्योंकि दूसरे मुल्कों में जाने और वहां पनाह लेने वालों की तादाद हमेशा सताए हुए लोगों की ज्यादा होती है। लेकिन क्या बीजेपी अपनी उन गल्तियों के लिए माफी मांगेंगी?
कल संसद के भीतर भी पूर्व वित्तमंत्री चिदंबरम के उठाए सवालों का अमित शाह ने कोई जवाब नहीं दिया। चिदंबरम ने विधेयक की पूरी संवैधानिकता पर ही सवाल खड़ा कर दिया। उन्होंने बताया कि किस तरह से यह विधेयक कानून के सामने समानता के प्रावधान का खुला उल्लंघन करता है। लेकिन इन सवालों का जवाब देने की जगह अमित शाह का पूरा जोर हिंदू-मुस्लिम और भारत-पाकिस्तान करने पर था। दरअसल सरकार की मंशा भी यही है।
वरना देश के तमाम पड़ोसियों और उनके उत्पीड़ित समुदायों को छोड़कर केवल और केवल तीन मुस्लिम मुल्कों पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश पर फोकस करने का भला क्या मतलब है? अगर सचमुच में बीजेपी ईमानदार होती तो पिछले 72 सालों से पाकिस्तान में सताए जा रहे मोहाजिर, हजारा और अहमदिया समुदाय के लोगों जिनकी आवाज खुद वह उठाती रही है, को भी इसमें शामिल करती। लेकिन ऐसा नहीं करना था क्योंकि इससे उसका पूरा सांप्रदायिक मकसद ही नाकाम हो जाता।
इस विधेयक के दो मकसद थे। एक तो हिंदू-मुस्लिम विमर्श को एक दूसरे स्तर पर ले जाना। और दूसरा था संविधान की बुनियाद पर चोट करना। इस विधेयक के जरिये उसमें इतना बड़ा छेद कर दिया गया है कि अब तमाम दूसरी चीजों को भी उसके जरिये आगे बढ़ाना आसान हो जाएगा। और एक बार अगर यह सलिसिला चल निकला तो फिर आगे बढ़ता ही जाएगा।
वरना कोई पूछ ही सकता है कि भला इसकी क्या अर्जेंसी थी। देश में विदेशी नागरिकों को नागरिकता देने का सबसे बड़ा मसला असम में बना हुआ है। और इस ने विधेयक उसको शांत करने की जगह और भड़काने का काम किया है। बावजूद इसके सरकार उसे ले आयी। यह बात बताती है कि उसे देश की सुख, शांति, विकास और समृद्धि से कुछ लेना-देना नहीं है। उसे किसी भी कीमत पर अपना एजेंडा आगे बढ़ाना है। भले ही चाहे उसके लिए पूरा देश नफरत और घृणा की आग में जलकर राख हो जाए। जब अमित शाह पूरे देश में एनआरसी लागू करने की बात कहते हैं तो दरअसल वह इसी आग को उदगारने की बात कह रहे होते हैं।
अगर आप सचमुच में रत्ती भर भी ईमानदार होते तो फिर पड़ोसी मुल्कों के दूसरे उत्पीड़ित नागरिकों को इसमें शामिल करते। भले ही वे हिंदू ही क्यों नहीं होते। आप ने श्रीलंका के तमिलों को इसमें क्यों नहीं शामिल किया? लेकिन आप को तो हिंदू-मुस्लिम नरेटिव तैयार करना है और उस काम में यह बाधा बन जाता।
किसी को दुश्मन बनाना तो कोई आप से सीखे। अफगानिस्तान और बांग्लादेश भारत के सबसे प्रिय पड़ोसी मुल्कों में हुआ करते थे। अफगानिस्तान से अगर भाई का रिश्ता था तो बांग्लादेश को भारत का गोद लिए बच्चे का दर्जा हासिल था। लेकिन इस विधेयक के जरिये सरकार ने उन्हें भी अपने से दूर कर दिया।
अगर सचमुच में यह बीजेपी के लिए गर्व की बात थी और यह मौका ऐतिहासिक था। तो इस पूरी बहस के दौरान पीएम मोदी ने सदन में एक बार अपना चेहरा दिखाना क्यों नहीं जरूरी समझा? मोदी जी इस बात को जानते हैं कि यह विभाजनकारी एजेंडा है। और इसकी गूंज बहुत दूर तक जाएगी। लिहाजा उन्होंने इससे बचने की हरचंद कोशिश की। लेकिन इससे वह कभी नहीं बच सकते। सांप्रदायिक नागरिकता का यह कलंक उनके माथे पर हमेशा हमेशा के लिए चस्पा हो गया है। वरना क्या कोई इस बात को बताएगा कि दुनिया के किस लोकतांत्रिक देश में धर्म के आधार पर नागरिकता तय की गयी है?
(लेखक महेंद्र मिश्र जनचौक के संस्थापक संपादक हैं।)