Friday, April 19, 2024

छत्तीसगढ़: 3 साल से एक ही मामले में बगैर ट्रायल के 120 आदिवासी जेल में कैद

नई दिल्ली। सुकमा के घने जंगलों के बिल्कुल भीतर स्थित सुरक्षा बलों के एक कैंप से महज 200 मीटर की दूरी पर एक छोटा गांव स्थित है। नाम है बुरकापाल। यहां जाने पर गांव में या तो महिलाएं मिलती हैं या फिर कुछ बच्चे गुलेल के साथ खेलते मिल जाएंगे।

हालांकि अपवाद स्वरूप कुछ पुरुष भी दिख जाते हैं लेकिन वह डर के नाते किसी भी बाहरी से बात नहीं करते। तीन साल पहले जब गांव के 37 आदिवासियों को काले कानून यूएपीए के तहत गिरफ्तार किया गया तब से इस गांव की स्थिति कभी सामान्य नहीं हो पायी।

अप्रैल, 2017 की यह घटना है। जब बुरकापाल गांव से महज 100 मीटर की दूरी पर स्थित सीआरपीएफ की 74वीं बटालियन कैंप को माओवादियों ने उड़ा दिया था इस घटना में इंस्पेक्टर रैंक के एक अफसर समेत 25 जवानों की मौत हो गयी थी।

2010 में 76 सीआरपीएफ जवानों की वीभत्स हत्या के बाद बुरकापाल हमला बस्तर इलाके का पिछले दशक में सबसे बड़ा और घातक हमला था। जब माओवादियों ने हमला किया तब यहां तैनात सुरक्षा बलों के जवान बुरकापाल गांव से सटे डोरनापाल-जागरगोंडा सड़क के निर्माण की गार्डिंग कर रहे थे।

अगले कुछ दिनों में छत्तीसगढ़ पुलिस ने चिंतागुफा पुलिस स्टेशन में छह गांवों- बुरकापाल, गोंडापल्ली, चिंतागुफा, तालमेल्टा, कोराइगुंडम और टोंगुडा- के 120 आदिवासियों को यूएपीए के तहत गिरफ्तार कर लिया।

गांव के नवनिर्वाचित 30 वर्षीय सरपंच मुचाकी हांडा जिनके बड़े भाई भी कथित तौर पर हमले में शामिल होने के आरोप में जेल में बंद हैं, ने बताया कि “हमले के कुछ ही दिनों बाद हमारे गांव के 37 लोगों को यूएपीए समेत दूसरी धाराओं के तहत गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया।”

घटना में मारे गए सीआरपीएफ के जवानों का स्मारक स्थल।

सरपंच का कहना है कि उस दिन गांव में मौजूद हर पुरुष के खिलाफ मामला बनाया गया।

सरपंच ने बताया कि “प्रत्येक पुरुष और यहां तक कि कुछ किशोर बच्चे भी जो उस समय गांव में थे सभी के खिलाफ यूएपीए और दूसरी धाराओं के तहत मुकदमा दर्ज कर दिया गया। केवल शहरों में काम करने वाले लोग ही छूटे। डिजाइन की जगह यह केवल एक महज संयोग था। मैं उस समय आंध्र प्रदेश की एक ग्रोसरी स्टोर में काम कर रहा था इसलिए मेरा नाम नहीं दर्ज किया गया। लेकिन मेरे भाई का नाम डाल दिया गया। कोई एक शख्स भी इस हमले में शामिल नहीं था लेकिन पुलिस उन सभी पर माओवादी होने का आरोप लगा कर सभी को गिरफ्तार कर ली थी।”

तीन साल से ज्यादा बीत गए हैं लेकिन इन मुकदमों में अभी ट्रायल शुरू नहीं हो पाया है। और यूएपीए के तहत दर्ज इन मुकदमों में किसी एक को भी जमानत नहीं मिली है। पुलिस रिकॉर्ड के मुताबिक बुरकापाल के 37 लोगों के साथ तीन गांवों के कुल 120 लोगों को यूएपीए के तहत गिरफ्तार किया गया है। और इन सभी पर उस हमले में शामिल होने का आरोप है। 

सरपंच ने बताया कि “हमारे गांव के सात नाबालिग बच्चों को भी उठाया गया था। और उन पर आईपीसी की विभिन्न धाराओं के तहत मुकदमा दर्ज हुआ था। दंतेवाड़ा जेल में 18 महीने बिताने के बाद उन्हें रिहा कर दिया गया।”

“घटना उस समय घटी जब मैं अपने कुछ दोस्तों के साथ गांव के बाहर खेल रहा था। हमने गोलियों की आवाज सुनी और अपने घरों की ओर भागे। हमले के कुछ दिन बाद मेरे पिता को उठा लिया गया और बाद में एक दिन दोपहर में जब मैं अपने घर में सो रहा था तो सुरक्षा बलों के जवान मुझे भी उठाकर पुलिस स्टेशन लेते गए।” भीमा सोडी ने यह बात उस तरफ अंगुली उठाकर दिखाते हुए कही जहां वह खेल रहा था।

सोडी के पिता जेल में हैं और उन्हें यूएपीए के तहत बंद किया गया है।

हमले में नामजद की गयी मानवाधिकार कार्यकर्ता और वकील बेला भाटिया ने बताया कि इस केस में एक्ट के तहत बुरकापाल गांव के आस-पास के 120 मासूम लोगों को गिरफ्तार किया गया है।

भाटिया ने कहा कि अभी तक इसका ट्रायल नहीं शुरू हुआ है। और उसमें केवल इस बात के चलते देरी हो रही है क्योंकि आरोपियों की संख्या बहुत ज्यादा है और पुलिस का कहना है कि इतने लोगों को एक साथ किसी कोर्ट के सामने नियमित तौर पर पेश करने की व्यवस्था नहीं की जा सकती है। पुलिस का कहना है कि उसके पास पर्याप्त कांस्टेबल नहीं हैं। और कोर्ट उनकी टुकड़ियों में सुनवाई करने के लिए तैयार नहीं है।

भाटिया ने बताया कि लॉकडाउन के दौरान उन्हें जमानत दे दी जानी चाहिए थी और उसके बाद उन्हें नियमित तौर पर कोर्ट में पेश किया जाना चाहिए था।

उन्होंने बताया कि पुलिस ने निर्दोष लोगों को यूएपीए और दूसरी धाराओं के तहत बंद किया है। ट्रायल अभी भी अपने शुरुआती चरण है जिसमें आरोपों को तैयार किया जाता है। अब यह तीन साल हो गया है जब 120 आरोपी जगदलपुर जेल में बंद हैं। उन्होंने कहा कि इस तरह के कैदियों को राजनीतिक कैदी के तौर पर श्रेणीबद्ध किया जाना चाहिए। उन्हें लाकडाउन के दौरान जमानत दे दी जानी चाहिए थी। और उसी के साथ फास्टट्रैक कोर्ट में उनकी ट्रायल भी शुरू हो जानी चाहिए थी।

बस्तर पुलिस इन आरोपों को सिरे से खारिज कर देती है।

बस्तर के आईजी सुंदराज पी ने उनके आरोपों को बकवास करार देते हुए कहा कि “कोविड-19 महामारी और लाकडाउन के चलते केस के ट्रायल में बाधा खड़ी हो गयी। बस्तर पुलिस केस में तेजी से ट्रायल को सुनिश्चित करने के लिए प्रतिबद्ध है।”

उन्होंने बताया कि “अप्रैल, 2017 में हम लोगों ने माओवादियों के सुरक्षा बलों पर क्रूरतम हमले में सीआरपीएफ के 25 जवानों को खो दिया जो बाहर रोड कांस्ट्रक्शन के काम को सुविधाजनक बनाने के लिए तैनात थे। जांच के दौरान हम लोगों ने 120 से ज्यादा माओवादी कैडरों और उनके समर्थकों को गिरफ्तार किया। इस कड़ी कार्रवाई ने न केवल इलाके में माओवादियों के नेटवर्क को तोड़ दिया है बल्कि  2017-18 में संपन्न हुए ‘आपरेशन प्रखर’ के दौरान सुरक्षा बलों को टैक्टिकल लाभ भी मुहैया कराया। जहां तक केस की कोर्ट में सुनवाई का मसला है तो बस्तर पुलिस इसमें पूरी गंभीरता से सहयोग करेगी।”

एक्टिविस्टों का कहना है कि जगदलपुर में यूएपीए के मामलों की सुनवाई के लिए केवल एक कोर्ट का होना भी ट्रायल शुरू होने में देरी का प्रमुख कारण है।

भाटिया ने बताया कि “मेरे विचार में इन मामलों की सुनवाई दूसरी सेशन अदालतों में भी होनी चाहिए जिससे इस तरह के केस विभिन्न अदालतों में बंट जाएं और ट्रायल की गति तेज हो जाए।”

एक दूसरे वकील संजय जायसवाल जो बुरकापाल केस में ज्यादातर आरोपियों के वकील हैं, ने कहा कि इस सच्चाई से बिल्कुल इंकार नहीं किया जा सकता है कि जरूरत से ज्यादा देरी कोर्ट की मंथर प्रक्रिया के चलते है।

जायसवाल ने कहा कि सभी के खिलाफ चार्जशीट तैयार हो जाने के बाद ही ट्रायल शुरू हो पाएगा।

आदिवासियों की गिरफ्तारी के खिलाफ आवाज उठाने वाली सोनी-सोरी का कहना है कि सरकार निर्दोष आदिवासियों की नाराजगी नहीं सुन रही है।

सोरी ने कहा कि “गांव में कोई भी पुरुष नहीं छूटा है। हमले के बाद बगैर किसी सबूत को बुरकापाल समेत दूसरे गांवों के आदिवासियों को सुरक्षा बलों ने जेल में डाल दिया। मैंने गांव का दो बार दौरा किया। इस बात में कोई अचरज नहीं है कि पुलिस उत्पीड़न के डर से महिलाएं और बाकी आदिवासी आंध्र प्रदेश भाग गए थे या फिर जंगल में चले गए थे। उसके बाद सुरक्षा बलों ने भोली महिलाओं को यह भरोसा दिलाया कि वो जानते हैं कि बुरकापाल गांव के लोग आरोपी नहीं हैं और इस तरह से पुरुष लौट आए। फिर सुरक्षा बलों ने नया मोड़ दे दिया। उसने गांव को चारों तरफ से घेर लिया और उन्हें बगैर किसी सबूत के गिरफ्तार कर लिया। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि उनकी गिरफ्तारी के साढ़े तीन साल बीत जाने के बाद भी ट्रायल नहीं शुरू हो पाया? क्या यही न्याय है? सरकार क्यों नहीं हस्तक्षेप कर रही है?”

छत्तीसगढ़ के डीजीपी डीएम अवस्थी ने बताया कि आरोपियों को कोर्ट में साफ-सुथरे ट्रायल का पूरा हक है और वह इस सिलसिले में पुलिस को निर्देश देंगे।

अवस्थी ने बताया कि “मुझे ट्रायल में देरी के बारे में नहीं बताया गया और किसी ने इसके बारे में मुझसे शिकायत भी नहीं की। मैं मामले की जांच करूंगा। और जरूरी निर्देश भी दूंगा जिससे ट्रायल शुरू हो सके। हर किसी को कोर्ट में फेयर तरीके से ट्रायल का अधिकार है।”

जगदलपुर में सरकारी वकील सुजाता जसवल ने बताया कि बुरकापाल केस में चलान मई और जून में ही कोर्ट में पेश कर दी गयी थी।

जसवल ने बताया कि “लाकडाउन के चलते ट्रायल नहीं शुरू हो सका। हाईकोर्ट के निर्देशों के मुताबिक कोर्ट में केवल जरूरी मामलों की ही सुनवाई हो रही है। रूटीन वर्क के बारे में कोर्ट के आगे निर्देशों के बाद ही केस का ट्रायल शुरू होगा।”

इस बीच, बुरकापाल गांव में जोगी सोडी (25) जिसका पति जेल में है, चिंतित है और सरपंच से केस के बारे में पूछती है।

उसने हांडा से पूछा कि “मैंने पिछले तीन सालों से अपने पति को नहीं देखा…..वह इस साल आएगा या फिर और ज्यादा दिनों तक हमें इंतजार करना होगा…..”  हांडा जवाब में अपना सिर हिलाते हैं और उसे सांत्वना देना शुरू कर देते हैं।

(हिंदुस्तान टाइम्स में मूलत: अंग्रेजी में प्रकाशित रिपोर्ट का हिंदी अनुवाद। रिपोर्ट रितेश मिश्रा की है।)

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