अपने दूसरे कार्यकाल में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प कुछ ऐसा व्यवहार करते नजर आ रहे हैं, मानो उनकी ट्रेन छूट रही है। 20 जनवरी, जबसे उन्होंने राष्ट्रपति पद की शपथ ली है, पूरी दुनिया में उनके एग्जीक्यूटिव ऑर्डर्स से उथल-पुथल मची हुई है।
अमेरिकी थिंक-टैंक भी अब मानने लगे हैं कि ट्रम्प की यह आक्रामक शैली के पीछे अब डीप स्टेट के तौर पर मिलिट्री इंडस्ट्रियल कॉम्प्लेक्स की जगह बिग टेक कॉर्पोरेट ने ले ली है। वैसे भी विश्व के सबसे अमीर एलन मस्क प्रत्यक्ष तौर पर ट्रम्प टीम के सबसे आक्रामक और मजबूत पक्ष के रूप में उभरे हैं।
भारत जो पिछले तीन दशकों से अधिकाधिक अमेरिकी पूंजी और बाजार की ओर झुकता गया है, के लिए ट्रम्प प्रशासन से दो मोर्चों पर निपटने की तात्कालिक चुनौती सामने है। एक है भारत-अमेरिका के बीच व्यापार असुंतलन पर ट्रम्प की टेढ़ी नजर और दूसरा है 7.25 लाख से अधिक अमेरिका में रह रहे अवैध भारतीयों को निष्कासित किये जाने का खतरा।
ये वे दो चुनौतियाँ हैं, जिन्हें फिलहाल ट्रम्प खुलेआम पूरी दुनिया के देशों पर लाद रहे हैं, लेकिन भारत के साथ भूराजनीतिक मसले के अलावा भी कई मुद्दे हैं, जिनका जिक्र वार्ता की मेज पर खुलकर नहीं किया जाना है।
फिर डोनाल्ड ट्रम्प का जीवन तो वैसे भी राजनीति से अधिक रियल एस्टेट कारोबारी के रूप में रहा है, इसलिए उनके हर कदम के साथ उनकी सौदेबाजी को ध्यान में रखना आवश्यक हो जाता है। आमतौर पर उनका व्यवहार कई बार देखने में लग सकता है कि यह किसी राजनेता की भाषा नहीं हो सकती, लेकिन अगले ही बयान में आप उनको अपने पिछले बयान से मुकरते हुए पा सकते हैं। लेकिन इसके बीच में उन्हें उनका अभीष्ट हासिल हो चुका होता है।
भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इस यात्रा को भी कुछ इसी तरह की डील के तौर पर देखा जा रहा है। इससे पहले ट्रम्प पड़ोसी देशों, कनाडा, मेक्सिको, चीन और कोलंबिया के खिलाफ आयात शुल्क में 10% से लेकर 25% तक की बढ़ोत्तरी की घोषणा कर चुके हैं। भारत के खिलाफ ट्रम्प ने आर्थिक प्रतिबंधों की घोषणा तो नहीं की, लेकिन कई बार इस बात को दुहरा चुके हैं कि भारत ने अमेरिका से आयात में सबसे अधिक इम्पोर्ट ड्यूटी लगा रखी है।
इसे ही प्रेशर बिल्डिंग कहते हैं, जिसका असर भारतीय शेयर बाजार से लेकर विदेशी संस्थागत निवेशकों के पलायन, डॉलर के मुकाबले रूपये की कमजोरी और भारत सरकार के माथे पर पड़ते बल में देखा जा रहा था। यह भी कहा जा रहा है कि ट्रम्प-मोदी की यह मुलाक़ात भारत की ओर से किये गये प्रयासों का नतीजा है। इसमें ट्रम्प को भी क्या समस्या हो सकती है, जब बकरा खुद ही हलाल होने के बेकरार हो।
भारत की यह दयनीयता इसलिए भी नजर आती है, क्योंकि सर्विस सेक्टर की आईटी कंपनियां बड़े पैमाने पर अमेरिका पर निर्भर हैं। लेकिन इसके अलावा भी बाइडेन प्रशासन के कार्यकाल में दो ऐसे मामले सामने आये थे, जिनका सीधा असर मोदी सरकार की देश के भीतर लोकप्रियता और विश्वसनीयता से जुड़ा हुआ है।
एक है, खालिस्तानी अलगाववादी गुरुपतवंत सिंह पन्नू मर्डर योजना में भारतीय ख़ुफ़िया एजेंसी के अधिकारी से जुड़ा मामला, जिसके तार कहीं न कहीं उन जगहों से जुड़ते हैं, जो मोदी सरकार के लिए भारी शर्मिंदगी और राजनीतिक हाराकिरी की वजह बन सकते हैं। इस मामले में एफबीआई के हाथ में पुख्ता सुबूत हैं और मामला अभी अदालत में विचाराधीन है।
लेकिन उससे भी महत्वपूर्ण, नरेंद्र मोदी के सबसे नजदीकी कॉर्पोरेट गौतम अडानी के खिलाफ अमेरिकी अदालत में विदेशी भ्रष्ट व्यवहार अधिनियम (FCPA) के तहत जारी वारंट सबसे बड़ी मुसीबत बना हुआ था। अमेरिकी अदालत ने भारतीय कॉर्पोरेट गौतम अडानी और उनके भतीजे सागर अडानी सहित अन्य के खिलाफ भारत में सौर ऊर्जा अनुबंध हासिल करने से संबंधित कथित रिश्वतखोरी के मामले में उन्हें दोषी पाया था। लेकिन अपने नवीनतम कार्यकारी आदेश में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने FCPA कानून को छह महीने के लिए स्थगित कर दिया है।
ट्रम्प की ओर से लिए गये इस कदम के बाद से अडानी समूह के शेयरों में तेज़ी देखी गई है। कुछ कानूनी विशेषज्ञों और राजनीतिक हस्तियों की ओर से इस कदम पर चिंता भी जताई गई है। अमेरिका में एक पक्ष का मत है कि एफसीपीए प्रवर्तन को स्थगित करने से वैश्विक स्तर पर भ्रष्टचार को बढ़ावा मिल सकता है, जबकि कुछ अन्य का मानना है कि इससे अमेरिकी व्यवसायों के लिए समान अवसर उपलब्ध हो सकते हैं।
जहां ट्रम्प की ओर से पीएम मोदी की अगवानी में एडवांस में यह तोहफा भेंट किया गया है, तो वहीं भारत में भी मणिपुर में एन. बीरेन सिंह से मुख्यमंत्री का पद छीन लिया गया है। कई लोगों को लग सकता है कि इसमें ट्रम्प-मोदी वार्ता का क्या एंगल है? कांग्रेस नेता राहुल गांधी भी इस इस्तीफे के पीछे अपनी पार्टी के संघर्ष को क्रेडिट दे रहे हैं, लेकिन सोचने वाली बात यह है कि दो वर्षों तक हिंसा और आगजनी की चपेट में आज भी पूरी तरह से अशांत मणिपुर के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार भाजपाई मुख्यमंत्री को केंद्र की मोदी सरकार ने अभी तक क्यों बनाये रखा था?
डोनाल्ड ट्रम्प को कौन सी चीज बुरी लग सकती है और क्या अच्छी, इसे समझकर आगे की चाल चलने की इसे कवायद कहा जा सकता है। ट्रम्प और उनके समर्थकों में श्वेत वर्चस्ववादियों की सोच में दुनियाभर के ईसाई भी शामिल हो सकते हैं। अभी पिछले दिनों दक्षिण अफ्रीकी सरकार ने अपने देश में भूमि सुधार की घोषणा की है, जिसके तहत वहां पर मौजूद अल्पसंख्यक श्वेत आबादी के पास प्रचुर मात्रा में मौजूद भूमि से पुनर्वितरण की योजना है। जानते हैं ट्रम्प ने क्या किया? उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में रह रहे श्वेत लोगों को अमेरिका में बसने और नागरिक बनने की अपील कर दी।
बता दें कि मणिपुर में बहुसंख्यक मैतेई, जिनमें से अधिकांश खुद को हिंदू मानते हैं, का संघर्ष कुकी (ईसाई) समुदाय के साथ जारी है। इस संघर्ष में अभी तक 221 लोगों को अपनी जान तो गंवानी ही पड़ी है, लेकिन इसके साथ ही 380 चर्च और गिरिजाघरों को भी जलाकर खाक किया जा चुका है। जिस बीरेन सिंह को भारत का बौद्धिक वर्ग, विपक्ष और मणिपुर के सांसद और विधायकगण अपदस्थ करने के लिए मजबूर न कर सके, उसे कैसे एक झटके में रास्ते से हटा दिया गया, यह गौरतलब है।
अवैध अप्रवासी भारतीयों की दुर्दशा
यह वह मसला है जिस पर अमेरिका और मोदी प्रशासन दोनों की राय में पूर्ण साम्यता है। ऐसा जान पड़ता है कि भारतीय विदेश मंत्रालय पहले से माने बैठा था कि ट्रम्प प्रशासन अपने देश में घुस आये अवैध अप्रवासियों से सख्ती से निपटेगा तो हम झट से उसे स्वीकार कर लेंगे।
पड़ोसी देशों मेक्सिको, अल-साल्वाडोर और कोलंबिया के अप्रवासियों को ट्रम्प प्रशासन ने सबसे पहले अपने देश से निकाला, और इसके लिए उसने अपने सैन्य विमानों का इस्तेमाल किया। कोलंबिया जैसे छोटे से देश ने इसका कड़ा प्रतिवाद किया और अपनी भूमि पर अमेरिकी सेना के विमान को उतरने की इजाजत नहीं दी। वहां के राष्ट्रपति ने अपने देश की सेना के जहाज को अमेरिका भेज अपने लोगों की सम्मान के साथ वतन वापसी को सुनिश्चित कराया।
भारत के 144 करोड़ लोग भी अपनी सरकार से यही अपेक्षा रख रहे थे। उन्हें लगा कि ईराक युद्ध या हाल ही में रूस-यूक्रेन संघर्ष के दौरान जिस प्रकार से सरकार ने भारतीय नागरिकों और छात्रों की सकुशल वापसी को अपने टॉप एजेंडे में रखा था, कुछ वैसा ही इस मामले में भी नजर आएगा। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ।
मौजूदा निज़ाम के पास जिनके हितों की रक्षा करने का दायित्व है, उसे वह बखूबी निभा रही है। गुजरात, पंजाब, हरियाणा या उत्तर प्रदेश से 40-80 लाख रुपये खर्च कर अमेरिकी सपने देखने वाले आम आदमी की चिंता करने का यह समय नहीं है। उल्टा, अभी तो यही देखना है कि भारतीय कॉर्पोरेट के अमेरिकी व्यापार में हितों को चोट न पहुंचे। भले ही ट्रम्प के मेक अमेरिका ग्रेट अगेन के सपने को साकार करने के लिए रुसी, खाड़ी के सस्ते तेल, गैस को कम से कम करना पड़े। अभी तो अमेरिकी कोयले के आयात पर चीनी प्रतिबंध को भी भारत में खपाना है। इन सबकी मार भी तो आम भारतीय मध्य वर्ग, कृषक आबादी और श्रमिक वर्ग के ही कंधों पर पड़ना है, क्योंकि अंतिम उपभोक्ताओं के रुप में वही तो हैं, मोदी के विश्वगुरु और ट्रम्प के मागा को सफल बनाने के लिए।
अंत में, 90 के दशक में सोवियत संघ के पतन के साथ ‘इतिहास के अंत’ की घोषणा करने वाले फ्रांसिस फुकुयामा की हालिया टिप्पणी के साथ ट्रम्प के दूसरे कार्यकाल को समझना उचित होगा, जिसे वे नव साम्राज्यवादी अमेरिका नाम दे रहे हैं।
अपने एक लेख के अंत में फुकुयामा लिखते हैं, “वामपंथियों ने देश के भीतर और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर, कई दशकों तक अमेरिकी साम्राज्यवाद पर हमला किया। उस साम्राज्यवाद ने अभी तक सौम्य रूप धारण किया हुआ था, जैसे कि संयुक्त राज्य अमेरिका ने अपने सहयोगी देशों के साथ सुरक्षा गठबंधन बनाये थे, या अमेरिका द्वारा नवउदारवादी आर्थिक व्यवस्था को आगे बढाया था। लेकिन आज उन्हें जो मिल रहा है, वह असली चीज़ है: एक ऐसा अमेरिका जो अपने क्षेत्र का विस्तार करना चाहता है, और इसे पाने के लिए वह बल प्रयोग की धमकी देने को तैयार है। उन्नीसवीं सदी में वापसी का स्वागत है।”
(रविंद्र पटवााल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं)
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