केंद्र का फरमान- लॉकडाउन के दौरान काम न करने वाले कर्मचारियों-मजदूरों को नहीं मिलेगा वेतन

Estimated read time 1 min read

लखनऊ। मोदी सरकार का मेहनतकश विरोधी क्रूर और अमानवीय चेहरा अब और साफ़ होता जा रहा है। इसका सबसे ज्यादा शिकार मेहनतकश तबका हुआ है। वास्तव में सरकार ने मजदूरों को बिल्कुल बेसहारा छोड़ दिया है और अपनी जिम्मेदारी से भाग खड़ी हुई है। ताजा मामला बेहद गंभीर है और इसी तबके से जुड़ा हुआ है। केन्द्र सरकार ने चौथे चरण के लॉकडाउन की घोषणा के साथ यह फ़रमान जारी किया है कि काम न करने की स्थिति में मजदूरों और कर्मचारियों को वेतन नहीं मिलेगा।

दरअसल, सुप्रीम कोर्ट में फाइकस पैक्स प्राइवेट लिमिटेड़ की तरफ से लॉकडाउन अवधि का वेतन न देने के लिए एक याचिका डाली गयी थी। जिस पर 15 मई को सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई की। इस सुनवाई के बाद तमाम समाचार पत्रों और न्यूज चैनलों द्वारा यह समाचार प्रकाशित किया गया कि माननीय उच्चतम न्यायालय ने लॉकडाउन अवधि में मजदूरों के वेतन भुगतान पर रोक लगा दी है। जबकि सच्चाई यह थी कि 15 मई को हुई सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने मात्र नोटिस जारी किया है और वेतन पर रोक लगाने का कोई आदेश नहीं दिया है।         

29 मार्च 2020 की भारत सरकार के गृह मंत्रालय की ओर से जारी अधिसूचना जिसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गयी है, में स्पष्ट कहा गया था कि कारखाना, दुकान अथवा वाणिज्यिक प्रतिष्ठान के प्रबंधक या स्वामी द्वारा लॉकडाउन अवधि में श्रमिकों का वेतन भुगतान नहीं किया जाता तो महामारी अधिनियम की धारा 3 में प्रदत्त शक्तियों का उपयोग करके भारतीय दण्ड़ संहिता की धारा 188 के तहत एफआईआर दर्ज की जाए। इसी आधार पर उत्तर प्रदेश समेत अन्य राज्यों ने भी आदेश दिए थे। हालांकि यह भी सच है कि इसका अनुपालन बेहद कम ही हुआ और अपने स्वभाव के अनुरूप आरएसएस-भाजपा की सरकारों ने इस आदेश का अनुपालन नहीं करने का संदेश श्रम विभाग को दिया था।

अब 17 मई को भारत सरकार के गृह मंत्रालय की ओर से जारी अधिसूचना में इस आदेश को खत्म कर दिया गया है। सरकार अभी कह रही है कि लॉकडाउन के दौरान विशेषकर बैंक, बीमा, केन्द्रीय व राज्य कर्मचारियों की मात्र 33 प्रतिशत ही उपस्थिति कार्यालयों में करायी जाए, उद्योगों में दो तिहाई मजदूरों को ही बुलाया जाए और सोशल दूरी का कड़ाई से अनुपालन हो। आदेश में यह भी कहा गया है कि जो प्रतिष्ठान इसका अनुपालन नहीं करेंगे उनके मालिक व अधिकारी के विरूद्ध आपदा अधिनियम 1897 की धारा 3 के तहत कड़ी कार्रवाई की जायेगी। सवाल उठता है कि सरकार के इन आदेशों के कारण जो कर्मचारी या मजदूर किसी दिन काम पर मौजूद नहीं होगा उसके वेतन का क्या होगा। सरकार के आदेश के सिलसिले में विधिवेत्ताओं का कहना है कि ऐसे कर्मचारियों व मजदूरों को वेतन का भुगतान नहीं होगा। वर्कर्स फ्रंट ने इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में हस्तक्षेप करने का फैसला किया है। 

वर्कर्स फ़्रंट के यूपी अध्यक्ष दिनकर कपूर ने सरकार से कहा है कि छोटे-मझोले उद्योगों के सामने आए संकट के मद्देनजर सरकार कर्मचारी भविष्य निधि (ईएसआई) से मजदूरों के वेतन का भुगतान कर दे। मजदूरों के वेतन भुगतान का काम दुनिया के कई देशों की सरकारों ने किया भी है।

दूसरा मामला कल उत्तर प्रदेश सरकार के अपर मुख्य सचिव वित्त विभाग संजीव मित्तल के आदेश का है। कोविड़-19 के कारण प्रदेश में लॉकडाउन घोषित होने के बाद उत्पन्न विशेष परिस्थिति में व्यय प्रबंधन एवं मितव्ययिता के लिए दिशा-निर्देश विषयक इस शासनादेश में कहा गया है कि राज्य सरकार के राजस्व में अप्रत्याशित कमी आयी है इसलिए वित्तीय वर्ष 2020-21 के लिए कुछ निर्णय लिए गए हैं। आदेश के पहले बिंदु में कहा गया है कि केन्द्र की वित्तीय मदद से चलने वाली योजनाओं में केन्द्र से धन प्राप्त होने पर ही धनराशि आवश्यकतानुसार चरणों में उपलब्ध करायी जायेगी। इसका सबसे बुरा असर मनरेगा पर पड़ेगा। क्योंकि यह योजना पूर्णतया केन्द्र सरकार द्वारा संचालित है। पूरे देश ने अभी देखा है कि 20 लाख करोड़ के पैकेज में वित्त मंत्री ने मनरेगा में महज 40 हजार करोड़ रुपये का आवंटन किया है।

याद दिला दें कि अपने बजट में इन्हीं वित्त मंत्री ने मनरेगा मद में पिछले वर्ष 72 हजार करोड़ में 11 हजार करोड़ की कटौती करके महज 61 हजार करोड़ रूपए ही आवंटित किए थे। खुद सरकार की वेबसाइट के अनुसार इस बजट में मात्र 9 दिन ही औसत काम एक मजदूर को मिल सका था। अब जब मजदूरी 202 रूपए कर दी गयी है तो स्वभाविक है कि मनरेगा में काम का आवंटन और भी कम हो जायेगा। वर्कर्स फ़्रंट नेता के मुताबिक़ सोनभद्र, मिर्जापुर व चंदौली के प्रधानों, जनप्रतिनिधियों व ग्रामीणों द्वारा लगातार बताया जा रहा है कि सरकार के आदेश के बाद उन लोगों ने काम तो शुरू करा दिया है लेकिन एक माह बीत जाने के बावजूद अभी तक मजदूरी का भुगतान नहीं हो पाया है। इस तरह से 2 करोड से ज्यादा रोजगार देने की वित्त मंत्री और 22 लाख रोजगार देने की उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री की घोषणा महज लफ्फाजी साबित हो रही है। यह सीधे-सीधे जनता की आंख में धूल झोंकने सरीखा है।

वित्त विभाग द्वारा जारी इस आदेश के बिंदु संख्या दो और तीन में कहा गया है कि सभी विभागों द्वारा उन्हीं योजनाओं को क्रियान्वित किया जाए जो अपरिहार्य हों। साथ ही बिंदु संख्या तीन में तो किसी नई निर्माण परियोजना के शुरू करने पर रोक लगाते हुए कहा गया है कि जो कार्य प्रारम्भ किए जा चुके हैं वही कार्य कराए जाएं। आदेश का बिंदु संख्या चार कहता है कि कार्य प्रणाली में परिवर्तन, सूचना प्रौद्योगिकी के अनुप्रयोग आदि के कारणों से अनेक पद सरकारी विभागों में अप्रासंगिक हो गए हैं। इसलिए इन पदों को चिन्हित कर इन्हें समाप्त किया जाये और जो कर्मचारी इन पर कार्यरत हों उन्हें अन्य विभागों में रिक्त पदों पर समायोजित किया जाए। बिंदु संख्या पांच में नई नियुक्तियों पर पूर्णतया रोक लगाते हुए कहा गया कि आवश्यक कार्यों को आउटसोर्सिंग से कराया जाए।

यही नहीं कल निदेशक बाल विकास एवं पुष्टाहार विभाग द्वारा प्रदेश में कार्यरत तीन लाख से ज्यादा आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं व सहायिकाओं की सूची मांगी गयी है जिनकी उम्र 62 साल से ज्यादा है उनकी छटंनी की तैयारी सरकार ने कर ली है। प्रदेश सरकार ने काम के घंटे बारह करके 33 प्रतिशत श्रमिकों व कर्मचारियों की छंटनी का फैसला किया था जिस पर वर्कर्स फ़्रंट के हाईकोर्ट में हस्तक्षेप के बाद सरकार को बैकफुट पर आकर आदेश वापस लेना पड़ा। अभी भी सरकार 38 में से 35 श्रम कानूनों को तीन साल तक स्थगित करने की कोशिश में लगी है लेकिन आज तक वह इस सम्बंध में अध्यादेश नहीं ला पायी है। बहरहाल इन हालातों में यह आसानी समझा जा सकता है कि प्रदेश में आ रहे लाखों-लाख प्रवासी मजदूरों के आजीविका व रोजगार की व्यवस्था करने और प्रदेश में सबको रोजगार देने की योगी की लगातार जारी बड़ी-बड़ी घोषणाओं की हकीकत क्या है।

(वर्कर्स फ़्रंट की विज्ञप्ति पर आधारित।)

+ There are no comments

Add yours

You May Also Like

More From Author