Saturday, April 20, 2024

अगर गुजरात में 2002 था तो यूपी में रामपुर बनेगा बीजेपी की जीत का चुनावी मॉडल!

सात दिसंबर को दिल्ली एमसीडी और आठ दिसंबर को गुजरात और हिमाचल विधानसभा चुनाव सहित पांच राज्यों के उपचुनाव के परिणाम आए। समाचार माध्यमों और टीवी चैनलों के विश्लेषण में गुजरात चुनाव में भाजपा की बड़ी जीत को ऐतिहासिक जीत बताकर भाजपा और मोदी की नीतियों और विकास मॉडल पर जनता के सहमति पत्र के बतौर दिखाया जा रहा है।

तथ्य तो यही है कि भाजपा ने अब तक के गुजरात विधानसभा चुनावों की सबसे बड़ी जीत दर्ज की है। अगर जाति क्षेत्र धर्म और विकास के पैमाने पर  गुजरात चुनाव के परिणाम का विश्लेषण करने की कोशिश की जाएगी तो जीत के पीछे की कहानी और गुजरात के यथार्थ से आंख चुराना होगा। यही नहीं तब हम भारत में लोकतंत्र के भविष्य को लेकर गलत मूल्यांकन कर बैठेंगे।

दिल्ली में एमसीडी और हिमाचल प्रदेश के चुनाव पर विशेष बात करने की जरूरत नहीं है। बस ऐसे तथ्य को रेखांकित करने के सिवा कि हिमाचल में सेब उत्पादक किसानों के बाजार पर अडानी के नियंत्रण ने बड़े फैक्टर के रूप में काम किया।

शेष परिणाम आज के समय में लोकतंत्र की वैधता बनाये रखने के अलावा और किसी बात का संकेत नहीं देते। लेकिन हमें गुजरात विधानसभा के साथ उत्तर प्रदेश के  रामपुर व खतौली के विधानसभा उपचुनाव पर विशेष दृष्टि डालने की जरूरत है। जहां के चुनाव की नई प्रवृत्ति और सबक  को हर तरह से छुपाने की कोशिश मीडिया, चुनाव  विश्लेषक और राजनीतिक पार्टियां कर रही हैं। इसलिए भारत में लोकतंत्र की वास्तविकता को समझने के लिए यह निहायत जरूरी है। आइए गुजरात से बात शुरू करते हैं।

गुजरात विधानसभा चुनावों में भाजपा के जीत की निरंतरता-पिछले 27 वर्षों से बनी हुई है। 2001 के दौर में गुजरात में जितने भी स्थानीय निकायों के चुनाव हुए थे। सब में भाजपा बुरी तरह से हार रही थी। इस पृष्ठभूमि में आडवाणी जी ने अपने सबसे विश्वस्त सिपहसालार को (जो गुजरात के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर लंबे समय से निगाह लगाए थे) गुजरात भेजा। जो विधानसभा चुनाव में जीत की गारंटी के साथ आये थे। 

नरेंद्र मोदी 90 के दशक में आडवाणी की रथ यात्रा के सारथी थे और साये की तरह उनके साथ रहा करते थे। उस समय लालकृष्ण आडवाणी भाजपा में नंबर दो के नेता हुआ करते थे। साथ ही उस समय भारत सरकार में गृह मंत्री थे और भाजपा के पूर्व अध्यक्ष भी रह चुके थे।

नरेंद्र मोदी के गुजरात का मुख्यमंत्री बनने के बाद गुजरात के गोधरा में साबरमती ट्रेन के बोगी नंबर 6 में तथाकथित कारसेवकों की जलाकर हत्या कर दी गई। कारसेवकों की लाश का पोस्टमार्टम गोधरा स्टेशन पर करने के बाद जली हुई लाशों को अहमदाबाद लाया गया। उसके बाद विहिप आगे आई और उसने गुजरात बंद का आह्वान किया।

उत्तेजना पूर्ण वातावरण में बंद के साथ ही गुजरात में मारकाट, नरसंहार, आगजनी और दंगा शुरू हुआ। जिसमें हजारों की तादाद में मुस्लिमों का कत्लेआम हुआ। इस नरसंहार ने गुजरात के सभी सामाजिक राजनीतिक समीकरणों को उलट पलट दिया। 

इसके बाद समय से पहले गुजरात में चुनाव करा लिए गए और मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने भारी विजय दर्ज की। यहां से मोदी की राजनीतिक यात्रा में गुणात्मक परिवर्तन आया। वह गुजरात में खुद को मजबूत करते हुए प्रधानमंत्री कुर्सी पर धड़-धड़ाते हुए आकर बैठ गए।

2002 के बाद साबरमती के पवित्र जल के साथ  खून आग हिंसा, दमन, उत्पीड़न एनकाउंटर षड्यंत्र प्रोपोगंडा न जाने क्या-क्या बहता रहा। इसके साथ गुजरात में भाजपा की ताकत बढ़ती गई। इस बीच कई उतार-चढ़ाव भी आए। मोदी और अमित शाह की बेजोड़ जोड़ी इसी दौर में निर्मित हुई।

मोदी ने गुजरात की कुर्सी पर रहते हुए वर्तमान दुनिया के अदृश्य मालिकों यानी कारपोरेट घरानों को साधने की कला सीख ली। क्रोनी कैप्टलिज्म के भ्रष्ट और क्रूर महाजाल से निकले हुए पूंजी के लैंड लार्डों की लंबी कतार मोदी ने खड़ी की। जो आज भारत ही नहीं विश्व के सबसे बड़े धनकुबेरों में  शुमार किए जा रहे हैं। 

आम तौर पर लोग गुजरात को संघ की प्रयोगशाला कहते हैं। इसका सीधा अर्थ होता है कि हिंदुत्व की सुपरमिस्ट ताकतों का सामाजिक जीवन की सभी संस्थाओं पर एक छत्र नियंत्रण। साथ ही कमजोर वर्गों अल्पसंख्यकों और  लोकतांत्रिक वैज्ञानिक चेतना वाले लोगों का हाशिए पर चले जाना। इसके साथ-साथ लोकतांत्रिक संस्थाओं की अंतर्वस्तु को कुचलते हुए नौकरशाही सहित राज्य की सभी संस्थाओं पर संपूर्ण नियंत्रण। इस की आड़ में लंपट उन्मादी सांप्रदायिक समूहों का समाज पर वर्चस्व कायम हो जाना।

आप देख ही रहे हैं कि चुनाव में कैसे लोकतंत्र की सारी संस्थाएं खास तौर पर गुजरात में निष्प्रभावी हो गई थी। खुलेआम मोदी सहित उनके मंत्रीगण चुनाव आचार संहिता की धज्जियां उड़ाते हुए नफरत और भय के वातावरण का सृजन कर रहे थे।  यहां तक कहा गया कि अगर कोई और जीत के यहां आएगा तो गुजरात की शांति और अमन चैन खत्म हो जाएगा।

गृह मंत्री अमित शाह ने ऐलान किया कि 2002 में नरेंद्र भाई ने जो सबक सिखाया था उससे आज तक गुजरात में शांति और अमन बना हुआ है ।साफ बात है कि लोकतांत्रिक देश में शांति अमन और विकास की अनिवार्य शर्त के रूप में अपने देश के एक तबके के नरसंहार को आवश्यक बता रहे थे। खुला भ्रष्टाचार नौकरशाही पुलिस की तटस्थता का विलोप व जनविरोधी चरित्र तथा खुलेआम सरकार के समक्ष चुनाव के दौर में समर्पण ऐसे कारक हैं जिन्होंने गुजरात की सामाजिक गति को नियंत्रित कर रखा है। 

कॉरपोरेट जगत का खुला समर्थन 93% चुनावी बांड का भाजपा को मिलना आदि। दानदाताओं यानी कारपोरेट घरानों की बहुत बड़ी संख्या गुजरात से आती है। यानी गुजरात के बड़े-बड़े पूंजी घराने सीधे तौर पर बीजेपी के लिए पैसा समर्थन और माहौल बना रहे थे। बड़े उद्योग घरानों का प्रचार तंत्र पर पूर्णतया नियंत्रण है।जो एकतरफा मोदी के महिमामंडन में लगे थे।

नौकरशाही जमीन पर रेंग रही थी और चुनाव आयोग मूकदर्शक बना रहा। लोकतांत्रिक जन गण हासिये पर ठेल दिये गये हैं।। तीस्ता सीतलवाड़, पूर्व डीजीपी बी शिवकुमार, आईपीएस संजीव भट्ट को जेल में डाल कर और 11 सजायाफ्ता बलात्कारी हत्यारों को छोड़कर यह संदेश दे दिया गया था कि गुजरात के चुनाव में भाजपा और मोदी सरकार क्या करने जा रही है।

अगर यह सभी कारक लोकतंत्र में जीत के लिए आवश्यक हैं तो गुजरात चुनाव के परिणामों को आप मोदी की विजय के रूप में ले सकते हैं। लेकिन अगर ऐसा नहीं है तो भारत में लोकतंत्र के भविष्य को लेकर निश्चय ही चिंतित होने की जरूरत है।

रामपुर और खतौली का उपचुनाव- लोकतांत्रिक तानाशाही का रिहर्सल

उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ का रामराज्य चल रहा है ।जहां स्वयं मुख्यमंत्री ढेर करने, ठोक देने और सबक सिखाने की भाषा में बात करते हैं ।उनकी खासियत है कि वह सिर्फ जबानी जमा खर्च नहीं करते। बल्कि जमीन पर उतारने का खुला प्रयत्न करते हैं ।रामपुर  उपचुनाव में ऐसा ही हुआ।

वहां से आने वाली खबरें, वीडियो क्लिपिंग और वोटरों के साथ हुए सलूक सब कुछ दिन के उजाले की तरह साफ हैं। आजम खान की सदस्यता को चुनाव आयोग द्वारा खत्म कराना, लोकसभा के चुनाव के प्रयोग को आगे बढ़ाते हुए इस बार प्रशासन कटिबद्ध था कि भाजपा विरोधी मतदाताओं को बूथ तक न जाने दिया जाए।  हुआ भी ऐसा ही।  बुजुर्ग महिला के फटे हाथ से बहते खून, पुलिस  की गालियां, इंस्पेक्टर का पहचान पत्रों सहित खड़े मतदाताओं को डांट कर भगा देना और एक पूर्व आईआरएस अधिकारी के अनुभव इस बात के संकेत दे रहे हैं कि राम राज्य में लोकतंत्र का मॉडल कैसा होगा? 

आश्चर्य है कि रामपुर के चुनाव पर सभी समाचार पत्र और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया यह हेडलाइन लगा रहे हैं कि रामपुर में “आजम खान का किला ढहा।” डरा और बिका हुआ मीडिया समाज में भय के वातावरण बनाने और सरकार के लोकतंत्र विरोधी कृत्य को वैधता प्रदान करने के अपराध में सहभागी हो जाता है। रामपुर के चुनाव को लेकर यही हो रहा है।वहां के यथार्थ पर सभी मौन हैं। राजनीतिक दल वहां के अनुभवों को साझा करने से बचने की कोशिश कर रहे हैं। यह भारत में लोकतंत्र के भविष्य के लिए एक अनिष्ट कारक संकेत है।

कश्मीर के 1989 और बंगाल में 1972 के विधानसभा चुनाव में हम इस अनुभव से गुजर चुके हैं। 

खतौली का चुनाव संकेत

खतौली वह विधानसभा है जहां 2013 में कवाल टाउन से हुए टकराव ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश को दंगों की आग में झोंक दिया था ।दर्जनों लोग मारे गए थे। पचासों हजार मुस्लिम परिवार घरों से विस्थापित हुए थे। जिसमें अभी भी बहुत से वापस नहीं लौटे हैं। 

मुजफ्फरनगर की घटना ने जाट व गुर्जर सहित अन्य ताकतवर कृषक जातियों को सांप्रदायिक रूप से उन्मादी बना दिया था। अनेक दंगाई नेता भाजपा के मंचों पर उभरे। जिन्होंने 2014 के लोकसभा और 17 के यूपी विधानसभा चुनाव में भाजपा को विजय दिलाई। यही नहीं पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सांप्रदायिक उन्माद ने गंगा-जमुना के द्वाबा में भाजपा को दिल्ली की गद्दी पर पहुंचने के लिए जन आधार तैयार किया था।जिस पर सवार होकर बीजेपी और मोदी दिल्ली की गद्दी पर पहुंचे थे। 

2022 के विधानसभा चुनाव में खतौली में भाजपा ही जीती थी ।लेकिन दिसंबर के चुनाव में उसे भारी शिकस्त खानी पड़ी। खतौली में भी शुरू में रामपुर जैसा प्रयास पुलिस प्रशासन द्वारा करने की कोशिश हुई। ऐसी खबरें आने लगी थीं कि अल्पसंख्यक मतदाताओं और गरीबों को पुलिस डरा धमका रही है ।

खतौली रामपुर नहीं है। रामपुर मुस्लिम बहुल और सरकार की निगाह में सबसे बड़े ‘अपराधी मियां’ आजम खान का चुनाव क्षेत्र है। 90 के दशक से ही आजम खां आरएसएस और भाजपा के सांप्रदायिक अभियान के बड़े टारगेट रहे हैं। इसलिए रामपुर का प्रयोग खतौली में दुहराना संभव नहीं था।  

खतौली में भाजपा को इस लिए पीछे हटना पड़ा क्योंकि आरएलडी का उम्मीदवार गुर्जर था। गुर्जर उम्मीदवार और राष्ट्रीय लोक दल का जाट आधार इन दोनों ने मिलकर भाजपा के सांप्रदायिक उन्माद को पीछे धकेल दिया। इसलिए दमनकारी कदम उठाने से सरकार पीछे हट गई। खतौली का असर 2013 की तरह से पश्चिमी उत्तर प्रदेश की 60 -70 विधानसभाओं पर पड़ सकता था ।

अगर सरकार की तरफ से उसी तरह के कदम उठाए गए होते जैसा कि रामपुर में दिखाई दिया। तो शायद BJP का सबसे बड़ा आधार जाट और गुर्जर उसके हाथ से छिटक जाता। यह दोनों जातियां आर्थिक सामाजिक रूप से ताकतवर जातियां हैं। जो अपने क्षेत्र के सामाजिक राजनीतिक समीकरण को नियंत्रित करती हैं। इसलिए मजबूरी में बीजेपी को खतौली में अपनी हार स्वीकार करनी पड़ी ।

यह एक बड़ा सबक है कि किसान जातियों को राजनीतिक रूप से संगठित किया जाए तो ग्रामीण क्षेत्रों में भाजपा के सांप्रदायिक और विध्वंसक अभियान को शिकस्त दी जा सकती है। इसलिए लोकतांत्रिक जनगण के लिए खतौली उसी तरह का प्रयोग केंद्र बन सकता है जैसा भाजपा संघ परिवार ने 2013 में खतौली को बनाया था। 

इस अनुभव से स्पष्ट है कि फासीवाद विरोधी लड़ाई का रास्ता कृषि में सघन हो रहे अंतर्विरोध को संबोधित करते हुए किसानों के साथ ग्रामीण मजदूरों, दलितों, अल्पसंख्यकों, छात्रों, नौजवानों, संगठित-असंगठित मजदूरों और लोकतांत्रिक जन गण के संघर्षशील मोर्चा के निर्माण के रास्ते से ही निकलेगा।

  (जयप्रकाश नारायण सीपीआई (एमएल) उत्तर प्रदेश की कोर कमेटी के सदस्य हैं।)

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