Thursday, April 25, 2024

US कर्ज संकट: मेहनतकशों को निचोड़ने और दुनिया को लूटने के लिए डेमोक्रेट और रिपब्लिकन हुए एक

अमेरिकी कर्ज सीमा को एक बार फिर से बढ़ा दिया गया है। इसके साथ ही अमेरिकी रक्षा बजट में कटौती करने के बजाय उसे और बढ़ा दिया गया है। इसका असर न सिर्फ अमेरिका में महंगाई पर पड़ेगा बल्कि डॉलर के वैश्विक रिजर्व करेंसी होने के कारण यह महंगाई दुनियाभर में फैलेगी। 

2008 से 2022 के बीच में फेडेरल रिज़र्व 8 ट्रिलियन डॉलर मूल्य के नोट छाप चुका है। इसके चलते बाजार में डॉलर की उपलब्धता और ब्याज दरों में भारी कटौती ने धनाड्य वर्ग को अधिकाधिक अमीर बनाया है। 

वहीं दूसरी तरफ तीसरी दुनिया के देशों के डॉलर पर निर्भरता ने उनके देशों में भारी मुद्रास्फीति एवं दक्षिणपंथी सैन्य तानाशाही की ओर उन्मुख करने का काम किया है।

डॉलर की  प्रभुता ने दुनियाभर में हो रहे उत्पादन को अमेरिका की पहुंच के भीतर ला देता है। आज किसी भी देश को विदेशी व्यापार के लिए अमेरिकी डॉलर को अपने पास रखना पड़ता है। इसके चलते अमेरिका के ट्रेजरी वेल्थ में चीन, भारत सहित अनेकों देशों की रकम जमा है। इसी पर बल पर अमेरिका कर्ज पर घी पी रहा है।

ब्लूमबर्ग अखबार ने इस पाखंड की सटीक व्याख्या करते हुए लिखा है, “बाइडेन प्रशासन की ओर से जब कर्ज सीमा बढ़ाने की कवायद की जा रही थी तो विपक्षी रिपब्लिकन पार्टी घाटे को कम करने के लिए निरंतर दबाव बनाये हुए थी। जैसे ही जब रक्षा खर्च की बात आई तो उसकी ओर से इसके पक्ष में कई तर्क दिए गए। उसका कहना था कि सरकार को इस पर खर्च कम करने के बजाय बढ़ाना चाहिए। अगले वित्त-वर्ष के लिए जहां अन्य मदों में कटौती की गई है, वहीं रक्षा क्षेत्र में 3.3% वृद्धि को मंजूरी मिलने में कोई अड़चन नहीं आई।”

2030 तक अमेरिका का रक्षा बजट 1 ट्रिलियन डॉलर होने की उम्मीद है। इतना ही नहीं रक्षा बजट के कुछ मदों को गैर-रक्षा खर्चों में जोड़कर इसे कम करके दिखाया जाता है, इसमें 131 अरब डॉलर रक्षा क्षेत्र से सेवानिवृत्त लोगों का डाल दिया गया है। यदि सिर्फ इस खर्चे को ही जोड़ दें तो रक्षा पर होने वाला खर्च 931 बिलियन डॉलर तक पहुंच जाता है।   

यदि वैश्विक पैमाने पर अमेरिकी रक्षा बजट की तुलना करें तो तस्वीर पूरी तरह से स्पष्ट हो जाती है। रक्षा पर दुनिया में होने वाले कुल खर्च का अकेले 39% हिस्सा अमेरिका के खाते में जाता है। चीन की आबादी अमेरिका से चार गुना अधिक है, लेकिन रक्षा बजट अमेरिका का एक तिहाई है। वास्तव में देखें तो अमेरिकी रक्षा खर्च शेष 10 शीर्ष देशों के कुल जमा खर्च से भी अधिक है। अमेरिका के द्वारा रक्षा खर्च चीन (292 बिलियन डॉलर), रूस (86), भारत(81), सऊदी अरब(75), ब्रिटेन(68), जर्मनी(56), फ़्रांस(54), दक्षिण कोरिया(46), जापान(46) और यूक्रेन(44 बिलियन डॉलर) जैसे रक्षा पर सबसे अधिक खर्च करने वाले 10 देशों की संयुक्त रक्षा खर्च से भी अधिक है।  

यह पूरी तरह से साफ़ है कि संयुक्त राज्य अमेरिका की ये दोनों कॉर्पोरेट पार्टियां (रिपब्लिकन एवं डेमोक्रेटिक) राष्ट्रीय कर्ज को लेकर कभी भी चिंतित नहीं रही हैं। दोनों के लिए डिक चैनी का यह वाक्य सूत्र वाक्य बना हुआ है कि “रीगन ने साबित कर दिखाया था कि बजट घाटा कोई समस्या नहीं है।”

लेकिन गरीबों के लिए वाशिंगटन के पास क्या है?

बजट में जहां सैन्य-बजट में बढ़ोत्तरी की गई है, वहीं इसी के साथ बाइडेन-मैकार्थी डील ने अमेरिका में गरीबों के लिए फ़ूड स्टाम्प और उनकी बेहतरी को हासिल करना मुश्किल बना डाला है। इस समझौते के तहत अब 54 वर्ष या इससे कम आयु के लोगों को फ़ूड स्टाम्प हासिल करने के लिए एक माह में कम से कम 80 घंटे काम करना होगा। इस एक कदम से अमेरिका में मौजूद लाखों लोगों के लिए सरकार द्वारा मुहैया कराई जाने वाले मुफ्त भोजन एवं कल्याण से हाथ धोना पड़ सकता है। पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन और डोनाल्ड ट्रम्प के दौर में भी ऐसी कोशिश देखी गई थीं। 

2020 में ब्रूकिंग्स संस्थान की रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका में 16% परिवार के पास पर्याप्त भोजन नहीं होता। हर छह में से एक बच्चे को पर्याप्त भोजन नहीं मयस्सर हो पाता है। कृषि विभाग के आंकड़े बताते हैं कि 81% अमेरिकी परिवार जिन्हें एसएनएपी कार्यक्रम के तहत भोजन प्राप्त होता था, उसमें या तो बच्चे, वृद्ध या विकलांगता से ग्रस्त व्यक्ति होते हैं। फरवरी 2023 तक अमेरिका में 4.25 करोड़ लोग फ़ूड स्टाम्प का लाभ उठा रहे थे, जो कि कुल आबादी के 13% हिस्से का प्रतिनधित्व करते हैं। 

अमेरिका में गरीबी आज भी एक महत्वपूर्ण चुनौती बनी हुई है, और ऐसे में फ़ूड स्टाम्प एक महत्वपूर्ण सामाजिक कार्यक्रम था। प्रमुख शहरों में बढ़ते बेघरबार लोगों की संख्या एक दुखद तस्वीर पेश करती है। इसी के साथ असमानता दिनोंदिन बढ़ती जा रही है, और जो करोड़पति हैं वे और अमीर होते जा रहे हैं, जबकि गरीब और गरीबी के दलदल में धंसता जा रहा है। 

2019 के एक अध्ययन से पता चलता है कि डोनाल्ड ट्रम्प के राष्ट्रपतित्व काल में कॉर्पोरेट कर में 1.5 ट्रिलियन डॉलर की कटौती की गई थी, जिसके चलते आधी अमेरिकी आबादी की तुलना में अरबपतियों को कम टैक्स चुकाना पड़ा। गार्डियन की रिपोर्ट के अनुसार, “2018 में अमेरिका के 400 सबसे धनी परिवारों को प्रभावी रूप से मात्र 23% टैक्स चुकाना पड़ा, जबकि आर्थिक रूप से निम्न आधे अमेरिकी परिवारों ने 24.2% की दर से टैक्स चुकता किया।”

दशकों से धनाड्यों के लिए टैक्स में कटौती जारी है। 1960 में जहां 400 सबसे धनी परिवारों ने 56% टैक्स में चुकाए थे, 80 के दशक तक यह गिरकर 40% हो चुका था। 2016 के अपने राष्ट्रपति पद की दौड़ में ट्रम्प ने दावा किया था कि वे अगले आठ वर्षों के भीतर अमेरिकी राष्ट्रीय कर्ज को चुकता कर देंगे। लेकिन उनके चार वर्ष के कार्यकाल में राष्ट्रीय कर्ज में करीब 7.8 ट्रिलियन डॉलर की बढ़ोत्तरी हो गई।  

अमेरिका में इतने विशाल पैमाने पर राष्ट्रीय कर्ज में वृद्धि की वजह को देखें तो इसके लिए कुछ चीजें स्पष्ट रूप से जिम्मेदार हैं:

  1. अमीरों को कम से कम टैक्स चुकाना पड़ रहा है, जबकि असल में टैक्स का बोझ लगातार गरीब और कामकाजी लोगों पर लादा जा रहा है।
  2. अमेरिकी सरकार दुनियाभर में युद्ध छेड़े हुए हैं,और इसके लिए खरबों डालर खर्च किये जा रहे हैं।  
  3. अमेरिकी संसदीय शोध सेवा से प्राप्त आंकड़े के अनुसार, अमेरिका ने दुनियाभर में 800 के करीब सैन्य आधार क्षेत्र स्थापित किये हुए हैं, और 1991 के बाद से 251 विदेशी सैन्य हस्तक्षेप को अंजाम दिया है। 
  4. इसके साथ ही एक दशक से भी अधिक समय से अमेरिकी फेडेरल रिजर्व ने अमीरों के लिए एक निःशुल्क धन कमाने की स्कीम चला रखी है, जिसमें करीब 8 ट्रिलियन डॉलर छापकर अब तक के मानव इतिहास में सबसे बड़ा एसेट बबल बनाकर स्टॉक, बांड और रियल एस्टेट की कीमतों को आसमान पर पहुंचाने में मदद की है। 

धनाड्य लोगों के हाथ में इस बबल इकॉनमी की बागडोर रही, गरीबों के लिए इसमें कोई जगह नहीं थी। अमेरिका सहित विश्व के अन्य हिस्सों के धनाड्य लोगों के हाथ में खरबों डॉलर चले गये। धनिक वर्ग के कल्याण के लिए मानव इतिहास का यह सबसे विशाल कार्यक्रम था। भारी मात्रा में कौड़ियों के भाव में डॉलर न्यूनतम ब्याज दर पर स्टॉक की खरीदारी के लिए उपलब्ध कराया गया। इसका सारा फायदा धनिक तन्त्र के उत्याया क्योंकि अमेरिका में 10% सबसे धनी लोगों के पास करीब 90% स्टॉक का मालिकाना था। लेकिन वहीं दूसरी तरफ वाशिंगटन गरीबों के लिए जो थोड़ी-बहुत कल्याणकारी योजनायें थीं, उनमें लगातार कटौती करता जा रहा था।

यह सब संभव हो पा रहा है क्योंकि डॉलर की बादशाहत आज भी पूरी दुनिया में कायम है। अमेरिका के लिए सिर्फ डॉलर छापकर अपनी घरेलू जरूरतों की पूर्ति करना बायें हाथ का काम है। इसके लिए उसे विकासशील देशों की तरह यूरोबांड जारी नहीं करना पड़ता। वैश्विक दक्षिण के देशों जैसे कि घाना, जाम्बिया, पाकिस्तान, श्रीलंका, भारत या अर्जेंटीना को अमेरिकी डॉलर में यूरोबांड जारी करने की मजबूरी है, और डॉलर हासिल करने के लिए उन्हें अपनी अर्थव्यस्था में मूल्य का उत्पादन करना पड़ता है। जब कभी भी उन्हें तेल, गैस, कैपिटल गुड्स और मशीनरी जैसी महत्वपूर्ण वस्तुओं के आयात की जरूरत पडती है, उन्हें इसके लिए डॉलर की दरकार होती है, चाहे इसके लिए अपनी मुद्रा का अवमूल्यन ही क्यों न करना पड़े। जबकि अमेरिकी अर्थव्यस्था को विदेशी वस्तुओं की खरीद के लिए सिर्फ डॉलर छापने की जहमत उठाने की जरूरत होती है। यही वह वजह है जिसके चलते अमेरिका में रिकॉर्ड राष्ट्रीय कर्ज का बोझ है। इस धरती पर कोई भी अन्य देश नहीं है जो निरंतर निर्यात की तुलना में आयात आधारित अर्थव्यस्था होते हुए भी मजे से जी रहा है। 

अमेरिका की तुलना में यदि अर्जेन्टीना को देखें तो उसे अपने आयात-निर्यात के लिए जी-तोड़ प्रयास करने पड़ते हैं। इसके लिए अर्जेन्टीना को अपनी मुद्रा में भारी अवमूल्यन तक करना पड़ा है। इसके चलते अर्जेंटीनी श्रमिकों को तीन अंकों वाली मुद्रास्फीति का सामना करना पड़ रहा है और उनकी जमा पूंजी एवं जीवन स्तर में भारी गिरावट आ गई है। अमेरिका का बजट घाटा अर्जेंटीना की तुलना में बेहद विशाल है। लेकिन वाशिंगटन का कर्ज डॉलर में है, जिसे वह कभी भी छाप सकता है, लेकिन अर्जेंटीना का कर्ज भी डॉलर में मापा जाता है, जिसे वह प्रिंट नहीं कर सकता। ब्लैकरॉक एवं अमेरिकी प्रभुत्व वाले अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसे वल्चर फंड्स के बदौलत अर्जेंटीना अपने भारी कर्ज की अदायगी में विफल है, जिसे उसने डॉलर में लिया है। इसके परिणामस्वरूप उसके पास विदेशी मुद्रा भंडार लगातार खत्म होता जा रहा है, नतीजतन उसकी मुद्रा पेसो लगातार गिर रही है। अमेरिका और अर्जेंटीना के बीच में यह एक बुनियादी फर्क है। यही फर्क अमेरिका एवं तीसरी दुनिया के देशों में हैं। 

उदाहरण के लिए अमेरिकी अर्थव्यस्था को अपने श्रमिक के श्रम की बदौलत 100 डॉलर मूल्य के उत्पाद की खरीद के लिए 100 डॉलर का श्रम एवं उत्पाद में निवेश की जरूरत नहीं पड़ती। अमेरिका उतने पैसे को प्रिंट कर सकता है। इसलिए भुगतान असुंतलन और आयात की स्थिति में अमेरिका का ट्रेजरी अपनी करेंसी में बांड की बिक्री कर इस धन को जुटा लेने में सक्षम है। वहीं दूसरी तरफ वैश्विक दक्षिण के देशों के श्रमिकों को लगातार अपने अतिरिक्त श्रम को झोंकने की जरूरत होती है। 100 डॉलर के लिए उन्हें 100 डॉलर मूल्य के उत्पाद बनाने में हाड़तोड़ मेहनत कर इसकी कीमत चुकानी पड़ती है। इसका एक बड़ा हिस्सा फौरन देश से बाहर कर्ज के ब्याज की अदायगी में चला जाता है, जिसका मालिकाना वाल स्ट्रीट के वल्चर फंड्स से लेकर ब्लैकरॉक जैसे असेट मैनेजमेंट फर्म के मालिकान होते हैं। इनका काम धनाड्य अमीरजादों की पूंजी को दुनियाभर की संपत्तियों में निवेश कर उन्हें और अमीर बनाना है।  

लेकिन दुनिया के अधिकांश देश ऐसा नहीं कर सकते। कुछ मुट्ठीभर देश हैं जहां की अर्थव्यस्था अपेक्षाकृत स्थिर है, किंतु उनके पास भी भारी राष्ट्रीय कर्ज है, लेकिन उनके यहां चालू खाते में घाटे की जगह विदेशी मुद्रा का अधिक्य है। जापान इसका उदहारण है, जहां जीडीपी के मुकाबले कर्ज 260% के स्तर पर है, जो अमेरिका के जीडीपी के कर्ज 130% की तुलना में दोगुना है। लेकिन उत्पादन के मामले एक बड़ा खिलाड़ी होने के कारण इसके पास चालू खाते में सरप्लस बना रहता है। इसके अलावा, अमेरिका की तरह जापान का कर्ज भी अधिकांशतः इसकी अपनी मुद्रा येन में है, जिसे वह प्रिंट कर सकता है। 2021 के अंत तक जापान का 90% से अधिक कर्ज घरेलू था, और सिर्फ 8% विदेशियों के हाथ में है। 

इसके अलावा जापान अमेरिकी साम्राज्यवादी व्यवस्था का भी एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यही वजह है जो जापान को आर्थिक एवं राजनीतिक स्थिरता प्रदान करता है और अपने बांड्स को येन में बनाये रखने में सहायक है, जो बहुत से देशों के लिए संभव नहीं है। 

दक्षिणी गोलार्ध के अन्य देशों के लिए यह सुविधा उपलब्ध नहीं है, जिन्हें संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा शासन में बदलाव के लिए लक्षित किया जाता रहा है। उनके खिलाफ युद्ध, प्रतिबन्ध और आर्थिक प्रतिबंधों की एक श्रृंखला खड़ी कर दी जाती है। इन देशों के लिए वित्तीय मदद तक पहुंच बना पाने की स्थितियां बड़े पैमाने पर प्रतिबंधित हैं, जिसे उनकी अर्थव्यस्था के विकास एवं इन्फ्रास्ट्रक्चर को तैयार करने की सख्त जरूरत है।  

अमेरिकी प्रतिबंधों के तहत इन देशों के कर्ज को खरीदने के लिए शायद ही कोई निवेशक राजी होता है। बाहरी ताकतों द्वारा अस्थिरता और युद्ध का सामना करने वाले इन देशों से उनके निवेश पर रिटर्न की संभावना लगभग शून्य हो जाती है।  

संक्षेप में कहा जाए तो अमेरिकी राष्ट्रीय कर्ज की तुलनात्मक रूप से “गैर-जरुरी” बात, जैसा कि डिक चेनी और कई अन्य सिद्धांतकारों ने स्वीकार किया है, वह प्रमुख रूप से साम्राज्यवादी वैश्विक-व्यवस्था के केंद्र में अमेरिका के अवस्थित होने का नतीजा है। यदि आप एक गरीब देश हैं और वैश्विक दक्षिण में हैं, तो आपके पास सामाजिक कार्यक्रम चलाने के लिए अपनी मुद्रा में अधिक से अधिक नोट छापने की छूट है, लेकिन यदि यह आपकी आर्थिक गतिविधि एवं विकास से मेल नहीं खाती और आयात के लिए आपकी मुद्रा की अन्य देशों में कोई मांग नहीं है, और यदि आपका देश वस्तुओं एवं कैपिटल गुड्स के आयात पर निर्भर है तो यह आपके देश में भयानक मुद्रास्फीति को जन्म दे सकता है जो आपकी अर्थव्यस्था को तबाह कर देगा।  

अंतिम पहलू अमेरिकी सेना की विशालकाय शक्ति और करीब एक ट्रिलियन डॉलर की वार्षिक बजट के साथ 800 विदेशी आधार क्षेत्र का पहलू पूरे परिदृश्य को बदल देता है। 

अगर वाशिंगटन किसी दिन अपने आप को दिवालिया घोषित कर दे और अपने विदेशी कर्ज की अदायगी करने से मना कर दे तो दुनिया की कोई ताकत अमेरिका पर आक्रमण करने की नहीं सोच सकता। यही बात ज्यादातर अन्य देशों के संदर्भ में नहीं कहीं जा सकती है, विशेषकर छोटे देशों के लिए जिनके पास बेहद कम संसाधन होने के साथ-साथ वे साम्राज्यवादी विश्व व्यवस्था के बाहरी घेरे में मौजूद हैं।

( रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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