Saturday, April 20, 2024

विपक्षी एकता की गतिविधियों में तेजी की वजह क्या है?

विपक्षी एकता की चौतरफा कोशिश आजकल अखबारों-चैनलों की सुर्खियां बनी हुई है। हर दिन राष्ट्रीय या क्षेत्रीय स्तर पर इस एकता के प्रयास दिखाई दे रहे हैं। विपक्षी एकता की चर्चा के बीच, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने आज (22 मई) राहुल गांधी की उपस्थिति में दिल्ली में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे से मुलाकात की। कल नीतीश कुमार और तेजस्वी केजरीवाल से मिले। नीतीश कुमार और केजरीवाल ने संविधान और संघीय ढांचे को बचाने के लिए पूरे विपक्ष के एकजुट होने पर जोर दिया। 

इसके पहले नीतीश कुमार ने कर्नाटक में कांग्रेस सरकार के शपथ ग्रहण समारोह में कई विपक्षी नेताओं से विपक्षी एकता के सवाल पर विचार-विमर्श किया। अपनी इस दिल्ली यात्रा के दौरान वे विपक्षी एकता के संदर्भ में विपक्षी दलों की बैठक की तारीख भी तय करेंगे। विपक्ष दलों की यह बैठक पटना में होगी। कुमार ने अतीत में कई मौकों पर कांग्रेस सहित सभी विपक्षी दलों को 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को हराने के लिए हाथ मिलाने की सलाह दी थी। इससे पहले फरवरी में, उन्होंने जोर देकर कहा था कि अगर कांग्रेस सहित सभी विपक्षी दल 2024 के लोकसभा चुनाव में एकजुट होकर लड़ते हैं तो भाजपा 100 सीटों से कम हो जाएगी।

नीतीश कुमार विपक्षी एकता के संदर्भ में विपक्ष के उन नेताओं से मिल चुके हैं, जो कांग्रेस के साथ सीधे बात करने में सहज नहीं महसूस करते हैं। इसमें ममता बनर्जी, के चंद्रशेखर राव, अखिलेश यादव, उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल शामिल हैं। नीतीश कुमार विपक्ष के इन नेताओं और कांग्रेस के बीच कड़ी बन रहे हैं। इसके साथ ही नीतीश कुमार ने उद्धव ठाकरे, शरद पवार, झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन, सीपीएम के नेता सीताराम येचुरी और सीपीआई के नेता डी राजा से भी विपक्षी एकता के बारे में बात कर चुके हैं। आज (22 मई) मल्लिकार्जुन खड़गे और राहुल गांधी के साथ मुलाकात के दौरान उन्होंने इस बारे में भी दोनों नेताओं को अवगत कराया और पटना में विपक्षी नेताओं की बैठक के समय के बारे में चर्चा की।

कांग्रेस भी अपने स्तर पर विपक्षी एकता के लिए प्रयास कर रही है। खड़गे ने भी हाल ही में भाजपा का मुकाबला करने के लिए समान विचारधारा वाले दलों के बीच एकता बनाने के प्रयास में कई विपक्षी नेताओं से बात की है। बीआरएस के नेता के चंद्रशेखर राव भले ही कांग्रेस से दूरी बनाकर रखना चाहते हों, लेकिन वे लगातार विपक्षी एकता की बात करे रहे हैं। इस संदर्भ में उन्होंने पिछले दिनों कई विपक्षी नेताओं से मुलाकात की। इसमें नीतीश और उद्धव ठाकरे शामिल हैं।

ममता बनर्जी पर कुछ एक शर्तों के साथ 2024 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को समर्थन देने के लिए तैयार हो गई हैं। भाजपा और कांग्रेस से समान दूरी बनाने की बात करने वाले अखिलेश यादव के तेवर भी बदले हुए लग रहे हैं। वे अब कांग्रेस से कह रहे हैं कि जहां विपक्षी दल मजबूत हैं, वहां कांग्रेस को उनको समर्थन देना चाहिए। जहां कांग्रेस मजबूत है, वहां विपक्षी दलों को उसका समर्थन करना चाहिए। 

जहां राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी एकता की कोशिश हो रही है। बिहार, महाराष्ट्र और झारखंड में पहले से विपक्षी पार्टियां एकुजट हैं। विपक्षी एकता का प्रश्न सबसे ज्यादा उत्तर प्रदेश में उलझा हुआ है। जहां लोकसभा की सबसे ज्यादा सीटें हैं। यहां सपा, बसपा और कांग्रेस के अलावा कई अन्य छोटे दावेदार भी हैं।

बाधाओं और उतार-चढ़ावों के बीच विपक्षी एकता की प्रक्रिया बहुत तेज और सही दिशा में आगे बढ़ रही है। कुछ एक महीने पहले विपक्षी एकता को दूर की कौड़ी माना जा रहा था। कहा जा रहा था कि तृणमूल कांग्रेस, आम आदमी पार्टी और बीआरएस कभी कांग्रेस से हाथ नहीं मिला सकते हैं। इनके बीच एका बनने की कोई संभावना नहीं है। केजरीवाल, ममता बनर्जी और बीआरएस प्रमुख के चंद्रशेखर राव कांग्रेस को किनारे लगाने और उसके जनाधार पर कब्जा करने की सारी कोशिश कर रहे थे।

इसी प्रक्रिया में तृणमूल कांग्रेस ने पूर्वोत्तर के राज्यों के विधानसभा चुनावों और गोवा में कांग्रेस को तोड़ने की हर कोशिश की और हर सीट पर अपना उम्मीदवार खड़ा किया। ममता बनर्जी कांग्रेस की जमीन पर खुद को खड़ा करना चाहती थीं। यही कोशिश अरविंद केजरीवाल भी कर रहे थे। आम आदमी पार्टी ने पंजाब में कांग्रेस का सफाया कर दिया और गुजरात में उसके वोट बैंक एक बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया। सपा भी भाजपा और कांग्रेस से समान दूरी की बात कर रही थी। 

लेकिन अब स्थितियां बिल्कुल बदल चुकी हैं। दो मजबूत क्षेत्रीय पार्टियों जगनमोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस पार्टी और नवीन पटनायक के नेतृत्व वाली बीजू जनता दल को छोड़कर पूरा विपक्ष एक स्वर से 2024 के लोकसभा चुनावों में विपक्षी एकता कायम करन के लिए सक्रिय प्रयास कर रहा है। आज कोई भी एकला चलो का राग नहीं अलाप रहा है।

प्रश्न यह है कि आखिर विपक्षी एकता को अधिकांश दल आज की सबसे बड़ी जरूरत क्यों मान रहे हैं, जो कल तक ना-नुकुर कर रहे थे, वे भी ऊंचे स्वर में विपक्षी एकता की बात क्यों कर रहे हैं?

इसका सबसे पहला कारण यह है कि विपक्षी पार्टियों और उनके शीर्ष नेताओं पर अपने अस्तित्व का खतरा साफ दिखाई दे रहा है। सीबीआई, ईडी और अब तो न्यायपालिका का भी इस्तेमाल करके भाजपा विपक्षी पार्टियों और उनके शीर्ष नेताओं का निशाना बनाया जा रहा है। न्यायपालिका का इस्तेमाल करके राहुल गांधी जैसे शीर्ष नेता को संसद से बाहर कर दिया गया और वे भविष्य में चुनाव लड़ पाएंगे या नहीं इस पर संशय बना हुआ है। इस तरह उनके राजनीतिक कैरियर को तबाह करने की पूरी कोशिश की जा रही है। इसके पहले कर्नाटक के वर्तमान उपमुख्यमंत्री डी. के. शिवकुमार और पी. चिदंबरम जैसे नेताओं को ईडी जेल भेज चुकी है।

सीबीआई और ईडी का इस्तेमाल करके आम आदमी पार्टी के दो बड़े नेताओं (सत्येंद्र जैन और मनीष सिसोदिया) को जेल भेज दिया गया है। अरविंद केजरीवाल को फंसाने की भी हर संभव कोशिश की जा रही है। तृणमूल कांग्रेस के दूसरे बड़े नेता अभिषेक बनर्जी पर गिरफ्तारी की तलवार लटक रही है। सीबीआई और ईडी उनके पीछे पड़े हुए हैं। बिहार में राजद को खत्म करने के लिए आए दिन राबड़ी देवी, तेजस्वी यादव और उनके सगे-संबंधियों के घरों पर सीबाईआई-ईडी के छापे पड़े रहे हैं। शिवसेना (उद्धव ठाकरे) के संजय राऊत तीन महीने जेल काटकर जमानत पर बाहर आए हैं। एनसीपी के अनिल देशमुख (महाराष्ट्र सरकार में पूर्व गृहमंत्री) अभी जेल में हैं। एनसीपी नेता और महाराष्ट् सरकार में पूर्व कैबिनेट मंत्री नवाब मलिक भी अभी जेल में हैं। ईडी ने उनके ऊपर मनी लॉड्रिंग का केस दर्ज कर जेल भेजा था।

एनसीपी नेता अजीत पवार पहले से ही सीबीआई-ईडी के निशाने पर हैं। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार के खिलाफ लगातार सीबीआई और ईडी के छापे पर छापे पड़ रहे हैं। कांग्रेस महाधिवेशेन के पहले बड़े पैमाने पर कांग्रेस नेताओं और उनके सहयोगियों के यहां छापेमारी हुई थी। तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव की बेटी और विधान परिषद सदस्य कविता ईडी-सीबीआई के निशाने पर हैं। पुलवामा कांड का भंडाफोड़ करने और मोदी को निशाने पर लेने के चलते सत्यपाल मलिक और उनके सगे-संबंधियों के खिलाफ जांच एजेंसियां आक्रामक हो गई हैं। विपक्षी राजनीतिक दलों और उनके शीर्ष नेताओं को और सहयोगियों-नौकरशाहों को भी जांच एजेंसियां निशाना बना रही हैं।

न केवल जांच एजेंसियां राजनीतिक पार्टियों और नेताओं को निशाने पर ले रही हैं, न्यायपालिका भी सरकार के इशारों पर विपक्षी पार्टियों और उनके नेताओं को फंसाने में शामिल हो रही हैं। राहुल गांधी के मामले में गुजरात की अदालतों और तृणमूल कांग्रेस के मामले में पश्चिम बंगाल के उच्च न्यायालय, विशेषकर उसके मुख्य न्यायाधीश का रूप इसी तरह का रहा है। पश्चिम बंगाल के मुख्य न्यायाधीश को मीडिया में बयान देने से बचने के लिए सुप्रीमकोर्ट को निर्देश देना पड़ा। संविधान और कानून की धज्जियां उड़ाकर कर मैतेई लोगों को एसटी का दर्जा देने का निर्देश मणिपुर की भाजपा सरकार से प्रभावित निर्णय में दिखता है।

निर्वाचन आयोग चुनावों के दौरान जिस तरीके से भाजपा की जीत के लिए अनुकूल माहौल बनाने की हर कोशिश करता है और विपक्ष के लिए परिस्थितियां कठिन बनाता है, वह विपक्षी पार्टियों के लिए गंभीर चिंता का विषय बन गया है। चुनाव की तारीखें तक अब भाजपा की जरूरतों के हिसाब से तय की जाती हैं। चुनाव आयुक्त भाजपा के कार्यकर्ता की तरह काम करते दिखते हैं। हाल में सुप्रीमकोर्ट को चुनाव की निष्पक्षता और पारदर्शिता को बनाए रखने के लिए चुनाव आयुक्त की नियुक्ति की प्रक्रिया में हस्तक्षेप करना पड़ा। चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में सुप्रीकोर्ट और विपक्ष के नेता की भूमिका तय करनी पड़ी।

चुनाव एक खर्चीली प्रक्रिया है। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा विपक्षी पार्टियों के आर्थिक संसाधनों को नियंत्रित करने और उसे सीमित करने की हर संभव कोशिश कर रही है। नोटबंदी का एक लक्ष्य विपक्षी पार्टियों की आर्थिक रीढ़ तोड़ देना भी था। विपक्षी पार्टियों को आर्थिक मदद देने वाले व्यापारी-कारोबारी सरकारी एजेंसियों के निशाने पर आ जाते हैं। उनके यहां ईडी-सीबीआई के छापे पड़ने लगते हैं। नरेंद्र मोदी आर्थिक तौर पर विपक्ष को पंगु बना देना चाहते हैं। सरकारी जांच एजेंसियों का इस्तेमाल करके विपक्ष के नेताओं, विधायकों और सांसदों को डरा-धमका कर भाजपा में शामिल किया जाता है या उन्हें पैसे से खरीद लिया जाता है।

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा यहीं नहीं रुकती है। इस सब के बावजूद भी यही विपक्षी पार्टियां विधानसभा का चुनाव जीत जाती हैं, तो उन्हें सबसे पहले साम, दाम, दंड, भेद का इस्तेमाल करके सरकार बनाने से रोका जाता है। इसके लिए राज्यपाल का भी इस्तेमाल किया जाता है। यह सब गोवा और मणिपुर और कुछ अन्य राज्यों में दिखाई दिया। पूर्वात्तर के राज्य तो इस खेल के मैदान ही बन गए हैं। इस सब के बाद भी यदि सरकार बन जाती है, तो उसे गिराने के लिए आपरेशन लोट्स चलता है। इसमें पद, पैसा, ईडी-सीबीआई और राज्यपाल का खुलकर इस्तेमाल किया जाता है। इसी तरीके से मध्यप्रदेश की कांग्रेस सरकार को गिराया गया। राजस्थान की सरकार गिराने की कोशिश हुई और अभी शिवसेना, कांग्रेस और एनसीपी के गठजोड़ वाली सरकार को गिराया गया।

विपक्षी पार्टियों, उसके शीर्ष नेताओं और उनकी सरकारों के खिलाफ यदि सब कुछ भी कारगर नहीं होता है और प्रदेशों में उनकी सरकार बन जाती है, तो उसके बाद उन्हें काम करने नहीं दिया जाता है। सबसे पहले इसके लिए राज्यपाल केंद्र सरकार के राजनीतिक एजेंट के रूप में नियुक्त किया जाता है। राज्यपाल संघीय ढांचे का उल्लंघन कर समानान्तर सरकार चलाने की कोशिश करते हैं। तमिलनाडु, केरल, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल में यह खेल खूब खेला गया और अभी खेला जा रहा है। दिल्ली में उपराज्यपाल ने तो सारे नियमों की धज्जियां ही उड़ा दीं। उन्हें सुप्रीमकोर्ट को कड़ी फटकार लगानी पड़ी।

जिन प्रदेशों में विपक्ष की सरकारें हैं, उन्हें केंद्र की आर्थिक मदद के मामले में भी सौतेले व्यवहार का समाना करना पड़ रहा है। मदद कौन कहे उनके ड्यू भी उन्हें नहीं मिल रहे हैं। जीएसटी के तहत प्रदेशों का जो हिस्सा होता है, वह भी उन्हें समय पर और पूरा नहीं मिलता है। प्रदेशों के आर्थिक स्रोतों को केंद्र सरकार तरह-तरह से सीमित करने की कोशिश कर रही है। बार-बार संविधान प्रदत्त संघीय ढांचे में राज्यों के अधिकारों को सीमित करने की कोशिश हो रही है। राज्यों की सलाह के बिना नरेंद्र मोदी ने तीन कृषि कानून लागू कर दिए थे। ऐसा ही विभिन्न परीक्षाओं (नीट आदि) के मामले में किया जा रहा है।

इस सबसे भी काम नहीं बनता है तो राज्यों के संविधान प्रदत्त अधिकारों को छीन लिया जाता है। इसका हालिया उदाहरण जनता द्वारा चुनी गई दिल्ली की सरकार के अधिकारों को छीनने के लिए केंद्र सरकार द्वारा अध्यादेश लाना है। यह अध्यादेश सुप्रीमकोर्ट द्वारा दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार के अधिकारों का दायरा तय करने के बाद आया है।

लोकसभा में अपने बहुमत और लोकसभा अध्यक्ष का इस्तेमाल करके विपक्षी पार्टियों के नेताओं को बोलने नहीं दिया जाता है, उनका स्पीकर ऑफ कर दिया जाता है। उनके कहे को संसद की प्रक्रिया से निकाल दिया जाता है। धनखड़ के उपराष्ट्रपति बनने के बाद राज्य सभा में भी सांसदों की आवाज को दबाने की पूरी कोशिश हो रही है। इन सारी स्थितियों में विपक्ष को साफ दिख रहा है कि यदि समय रहते 2024 के लोकसभा चुनावों में मोदी को सत्ता से बाहर नहीं किया गया तो संविधान, लोकतंत्र और लोकतांत्रिक प्रक्रिया पूरी तरह खतरे में पड़ जाएगी। विपक्षी पार्टियों और उनके नेताओं के लिए राजनीति करना, चुनाव लड़ना, जीतना, सरकार बनाना और चलाना मुश्किल हो जाएगा। ये परिस्थितियां उन्हें एकजुट होने के लिए बाध्य कर रही हैं।

इन सब चीजों के साथ विपक्ष को एकजुट होने के लिए जो चीज सबसे अधिक बाध्य कर रही है, वह जनता की मनोकांक्षा। यह सच है कि मतदाओं का एक हिस्सा, विशेष कर हिंदी पट्टी में भाजपा के साथ मजबूती से खड़ा है। यह हिस्सा करीब एक तिहाई के आसपास है। बचे दो तिहाई मतदाताओं का बड़ा हिस्सा भाजपा की सभी कोशिशों के बाद उसके साथ खड़ा होने को तैयार नहीं। ये मतदाता किसी भी तरीके से भाजपा को सत्ता से बाहर देखना चाहते हैं। दिल्ली, पश्चिम बंगाल, बिहार, हिमाचल प्रदेश और हाल में कर्नाटक के चुनाव साफ तौर पर इसका प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। सच यह है कि भारतीय मतदाताओं में तेजी से ध्रुवीकरण हो रहा है। यह ध्रुवीकरण भाजपा के समर्थन या विरोध में है। जहां करीब 30 प्रतिशत मतदाता आज भी मजबूती के साथ भाजपा के साथ खड़े हैं, तो शेष 60 प्रतिशत का बड़ा हिस्सा किसी सूरत में भाजपा को हराना चाहता है।

इसका हालिया प्रमाण पश्चिम बंगाल, दिल्ली और कर्नाटक के चुनावों में मिला। जहां भाजपा के मतदाता मजबूती से उसके साथ रहे, लेकिन शेष मतदाताओं ने उस पार्टी को वोट दिया जो भाजपा को हरा सकती हो। पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और वामपंथी पार्टियों परंपरागत मतदाताओं ने अपनी-अपनी पार्टियों का साथ छोड़कर तृणमूल कांग्रेस को वोट दिया, जिसके चलते वोट प्रतिशत बढ़ने के बाद भी भाजपा हार गई। यही स्थिति कमोबेश दिल्ली में घटित हुई थी। कर्नाटक चुनावों में वोट प्रतिशत करीब स्थिर बना रहा है, लेकिन भाजपा विरोधी मतदाताओं ने एकजुट होकर भाजपा को हरा दिया। उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में भी यह स्थति देखने को मिली थी। मतदाताओं के बड़े हिस्से ने अपनी-अपनी पार्टियों के प्रति वफादारी छोड़कर सपा को वोट दिया। जिससे सपा का वोट प्रतिशत बढ़ गया।

पूरे देश में भाजपा विरोधी मतदाता एकजुट हो रहे हैं। वे भाजपा को हराना चाहते हैं। वे अपनी परंपरागत पार्टियों को बाध्य कर रहे हैं कि वे एकजुट होकर भाजपा को हराएं। तृणमूल कांग्रेस और सपा का बदलता रूख सिर्फ पार्टी विशेष या नेता विशेष का रुख नहीं है। इन पार्टियों का एक बड़ा जनाधार भाजपा को हराना चाहता है। वह चाहता है कि ये पार्टियां उन पार्टियों के साथ साझा मोर्चा बनाएं जो भाजपा को हरा सकती हैं। विपक्षी एकता के लिए सभी पार्टियों की सक्रियता का यह एक बड़ी वजह है।

आज की सच्चाई यह है कि विपक्षी राजनीतिक पार्टियां एकजुट हुए बिना न अपना अस्तित्व बचा सकती हैं, न ही चुनावी राजनीति में ज्यादा दिनों तक बनी और टिकी रह सकती हैं। संवैधानिक दायरे और लोकतांत्रिक ढांचे के बीच वे काम करती हैं, उसका भी अस्तित्व खतरे में है। अधिकांश विपक्षी पार्टियों के मतदाता आज की तारीख में भाजपा के खिलाफ हैं, उनकी मनोकांक्षा है कि वे एकजुट हों। जो कोई विपक्षी पार्टी किसी भी तरीके प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में भाजपा की मदद करती हुई दिखेगी या विपक्षी एकता को कमजोर करेगी, भाजपा विरोधी मतदाता उसे माफ करने के लिए तैयार नहीं हैं। विपक्षी एकता की प्रक्रिया तेज होने और करीब-करीब सभी भाजपा विरोधी पार्टियों का एकजुट होने की तरफ बढ़ना भारतीय लोकतंत्र के लिए एक सकारात्मक संकेत है। 

(सिद्धार्थ जनचौक के संपादक हैं।)

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