आज सर्वदलीय बैठक में प्रधानमंत्री ने पहली बार वार्ता के संदर्भ में अपनी जुबान खोला हैः किसानों के सामने अब भी हमारा प्रस्ताव पड़ा हुआ है। हमारे कृषि मंत्री महज एक फोन कॉल पर उपलब्ध हैं।
क्या इस बात को दुहराने के पीछे किसानों की वापसी है? तब यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि किसान कहां चले गये थे जहां से वे वापस हुए? इस बात को यूं भी कहा जा सकता है कि सरकार पुलिस और अन्यों के सहयोग से किसानों को उनके धरना स्थलों से खदेड़ देने की पुरजोर कोशिशें की, लेकिन वे असफल रहे। किसान के पांव शहर के हाईवे पर कस कर जमे रहे और उसे कमजोर होता देख भावुक हो उठे।
किसान हाईवे पर किन लोगों के हाथों कमजोर होता हुआ दिखा? क्या उसकी संख्या अचानक कम होने लगी? नहीं। क्या उनके जज्बे कम होने लगे? नहीं। और भी सवाल पूछा जा सकता है और हर जवाब के अंत में नहीं लिखते जाना होगा। एक सवाल जरूर उन्हें कमजोर बना रहा था। वह देशभक्ति का आईना था जिसे मीडिया, जिसमें एनडीटीवी भी भागीदार बना, लेकर दिखाते हुए घूम रही थीः देखो, सभी प्रोटोकॉल तोड़कर लाल किले पर क्या ही गजब कर दिया गया! इसी आईने में बार-बार हिंसा की कुछ तस्वीरों को अनगिनत बार चलाया गया और किसानों को उसमें झांककर देखने के लिए मजबूर किया गयाः तुम हिंसक हो गये हो! जो मध्यवर्ग किसानों के समर्थन वाली कुछ खबरों को देख और पढ़कर खुद को उनका हितैशी बना घूम रहा था और बाहर एक शब्द भी बोलने से कतरा रहा था वह मुखर हो गयाः यह तो ठीक नहीं हुआ। किसान लोगों की ही सारी गलती है! उनकी आह, गर्म बिस्तर की नींद में सुबह होने तक पूरी तरह गुम होने के लिए बढ़ गई।
लेकिन, जो लोग जाग रहे थे वे हाईवे पर बैठे किसान थे। वे राज्य की हिंसा की धमक को सीधे सुन ही नहीं रहे थे, अपने आस-पास देख रहे थे और गिरफ्तारियों की आशंका से बेचैन लोगों को देख रहे थे। इस हाईवे से दूर गांव में बैठे उनके ही परिवार, कुनबा, गांव और समुदाय के लोग इस नजारे को देख रहे थे। अब यह सिर्फ कृषि कानून का ही मसला नहीं, उनके वजूद को चुनौती देने वाला मसला भी सरकार ने पेश कर दिया था। गांव के एक परिवार के सदस्य की गिरफ्तारी उस परिवार के लिए एक नये संकट की पेशगी थी। जबकि पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश से शायद ही कोई गांव हो जहां से लोग इस धरने और प्रदर्शन में हिस्सेदारी करने के लिए नहीं आये हों। इस नयी समस्या के दरपेश होने की स्थिति में खाप और गांव पंचायतों ने रातों-रात ‘भाइयों का खाना और पानी’ देने के लिए निकल पड़े और उन्होंने सीधी चुनौती दीः कौन है जो गिरफ्तारी करेगा!
यहां लड़ाई बाजार के नये तरह के कानूनों के खिलाफ है। सभी लोग जान रहे हैं कि यह कानून जिस वैश्विक बाजार से किसान को जोड़ेगा उसमें किसान तबाह होगा और अपने खेतों से हाथ धो बैठेगा। बहुत सारे अति साम्यवादी बाजार की इस लूट और किसानों की बर्बादी को ‘आज के समय की प्राकृतिक अवस्था’ घोषित करने में लगे हुए हैं और ‘धनी किसानों को खत्म’ होना उनकी नियति बता रहे हैं। लेकिन, क्या ही यह मंजर है जहां किसानों की गोलबंदी पश्चिमी यूपी में खाप पंचायतों के द्वारा हो रही है वहीं पंजाब के किसानों का एक हिस्सा लाल किले पर ‘निशान साहिब’ का परचम लहराकर खुश है। ऐसे में किसान की मोर्चेबंदी में धर्म और जाति की उपस्थिति को देखा जा सकता है। शायद, इसीलिए किसान नेता राजिंदर सिंह ने काफी जोर देकर कहाः हमारा आंदोलन तीन कृषि कानूनों की बिलों की वापसी को लेकर है और हम इस पर डटे रहेंगे।
लेकिन, इस सच्चाई से इंकार करना मुश्किल है कि किसानों की मोर्चेबंदी में आधुनिक मांगों के साथ-साथ पुरानी जमीन काफी पुख्ता तौर पर उपस्थित है। आज डॉ. दर्शन पाल ने जब आरोप लगाते हुए कहा कि पुलिस, भाजपा और आरएसएस साम्प्रदायिक दंगे भड़काने की साजिश कर रही हैं, तो निश्चय ही वे सरकार और उसकी समर्थित पार्टियों, संगठनों द्वारा किसानों के समर्थन में आकर खड़ी इस पुरानी जमीन पर हमला करने का आरोप लगा रहे थे। यहां यह बात समझना जरूरी है कि सरकार भी सामंती संबंधों और संगठनों को उकसाकर किसानों की आर्थिक गोलबंदी को नष्ट करने पर तुली हुई है। ऐसे में किसान आर्थिक गोलबंदी पर जोर देते हुए वे खुद को आर्थिक संबंधों से इतर संगठनों और संबंधों को मजबूत कर डटे रहने की ताकत जुटा रहे हैं।
ऐसे में किसानों की वापसी का सवाल उसकी नये तरह की गोलबंदी से अधिक जुड़ गया है। ऐसे में प्रधानमंत्री मोदी का बातचीत के प्रस्ताव को खुला रखने के पीछे के कारणों को दोनों तरह से पढ़ा जाना चाहिए। प्रथम, किसानों को हम नजरअंदाज नहीं कर रहे हैं, वार्ता आगे बढ़ेगी। दूसरा, राज्य द्वारा किसानों पर लगायी गयी दमनकारी धाराएं अपना काम करती रहेंगी। इस दूसरे हिस्से में अन्य दमनकारी प्रयास अंतर्निहित है जिसकी क्रोनोलाॅजी को अन्य दूसरे आंदोलनों के माध्यम से समझना और पिछले चंद दिनों की घटनाओं की तुलना से इसे समझना इतना कठिन नहीं है। यह तरीके सभ्य से सभ्य पूंजीवादी और सामंतवादी राज्य अपनाते रहे हैं। फर्क इतना ही है यह मानवता और लोकतंत्र के मूल्यों से मेल नहीं खाने से निश्चित ही मध्यवर्ग की मनःस्थिति पर हिंसक असर डालते हैं।
लेकिन, राजनीति या अर्थशास्त्र या इतिहास का प्राथमिक छात्र भी यह बात जानता है किसी भी तरह के मूल्य का, चाहे वह आर्थिक हो या नैतिक हिंसक कार्रवाई ही होती है और इस पर दावेदारी और नियंत्रण एक ऐसे राज्य या समाज का निर्माण ही होता है जो लगातार उन्हीं मूल्यों का कब्जा में करते हुए अन्य को वंचित करता है। मसलन, हिंसा एक मूल्य है और इसका सारा अधिकार राज्य, उसकी समर्थित पार्टी और सामाजिक-राजनीतिक आधार और समुदाय के पास इकट्ठा है। यह जितना ही संकेद्रित हो रहा है वह उतना ही फासीवादी दिख रहा है और इसके बरअक्स एक ‘विशाल’ अन्य है। इस ‘अन्य’ को लगातार दबाव में रखा जा रहा है कि वह किसी भी तरह उस हिंसा को न अपनाये। कई मामलों में हिंसा न होने के बावजूद इसका आरोप लगाकर उसके समाज में बने रहने की नैतिकता को ही चुनौती दी जा रही है।
ऐसे में किसानों के सामने एक बड़ी चुनौती है। इसका दायरा काफी बड़ा है। यह देश की सत्तर प्रतिशत आबादी की सीधे जीविका से जुड़ा हुआ है। यह गोलबंदी आर्थिक मसलों पर निश्चित ही अधिक व्यापक होगी। धर्म, जाति, क्षेत्र आदि के आधार पर गोलबंदी निश्चित ही कमजोर गोलबंदी होगी। लेकिन, जिस तरह से राज्य अपनी समर्थित पार्टी, संगठन और समुदायों के आधार पर गोलबंदी कर रहा है उससे किसानों की यह जो वापसी हुई है, वह भी एक निर्णायक भूमिका की तरफ आगे जा सकती है। ‘वार्ता का मुंह खुला रखने’ के पीछे के कारणों को हम इस तरह से भी समझ सकते हैं।
(जयन्त कुमार का लेख।)