Thursday, March 28, 2024

मजदूर अपने जीवन का ‘वह’ सबसे बड़ा पुरस्कार कब पायेंगे? 

मई दिवस। अमेरिका के छब्बीसवें राष्ट्रपति थियोडोर रूजवेल्ट (जो 1906 का शांति का नोबेल जीतकर यह पुरस्कार पाने वाले पहले अमेरिकी भी बने थे) ने 1903 में मजदूर दिवस के अपने बहुचर्चित सम्बोधन में मजदूरों के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण बात कही थी। “मनुष्य के जीवन में अगर कोई सबसे बड़ा पुरस्कार है, तो वह है ऐसा काम करने का मौका, जिससे उसकी जीविका भी चले और महत्ता भी बढ़े”।

अफसोस कि उनके उक्त संबोधन के 120 साल बीत जाने के बाद की दुनिया में भी बड़ी संख्या में मजदूर इस ‘अपने जीवन के सबसे बड़े पुरस्कार’ से वंचित हैं। इतना ही नहीं, वे इस पुरस्कार की अंतहीन तलाश में सिर खपाते रहने को तो मजबूर हैं ही निकट भविष्य में भी इस मजबूरी के अंत की उम्मीद भी नहीं कर पा रहे।

दूसरी ओर कुछ विकसित देशों में उनकी एक छोटी-सी संख्या इस सुखद अहसास के बहुत नजदीक पहुंच गई है कि उसने अच्छे पद, प्रतिष्ठा, वेतन, घर और लग्जरी गाड़ियों समेत अपने सारे सपने पूरे कर लिये हैं। जैसा कि बहुत स्वाभाविक है, पूंजी के लिए सारी सीमाएं तोड़ने और श्रमिकों के लिए नई सीमाएं बनाने के इस दौर में इन देशों की मजदूर विरोधी व्यवस्थाएं मजदूरों की उक्त छोटी-सी संख्या को उनकी एकता खंडित कर ‘मजदूरों की ही मार्फत मजदूरों के शोषण’ के लिए इस्तेमाल कर रही हैं।

अनेक पिछड़े देशों की लोकतांत्रिक ढंग से चुनकर आई और लोकप्रिय होने का दावा करने वाली सरकारें भी आम मजदूरों के प्रति अनुदार होने से परहेज नहीं कर पा रहीं। वे भी आर्थिक सुधारों के नाम पर श्रमिक हितों का बंटाधार कर रहीं और निवेशकों को अंधाधुंध सहूलियतें देकर उनके हित साध रही हैं।

इस काम में उनका सबसे बड़ा बहाना तकनीक का विश्वव्यापी बदलाव है, जिसके फलस्वरूप मजदूरों के काम करने के पुराने प्रायः सारे कौशल बेकार करार दिये गये हैं और उनके जिस छोटे से हिस्से ने जरूरी बताये जा रहे कुछ नये कौशल अर्जित कर लिये हैं, उसके मार्फत कुशलता और अकुशलता की कथित लड़ाई को तेज कर दिया गया है।

इस लड़ाई के माध्यम से कुशल और अकुशल मजदूरों के बीच बड़ी खाई पैदा कर इस हकीकत को झुठलाने की कोशिशें की जा रही हैं कि आम मजदूर अभी भी बेरोजगार रहने, बेहद कम मजदूरी पर काम करने और अपने काम से संतुष्टि या महत्ता न पाने को अभिशप्त हैं।

स्वाभाविक ही इससे पूरी दुनिया में न सिर्फ आय की असमानता बल्कि उसके चलते बढ़ रहे सामाजिक तनाव और असंतोष का भी बोलबाला है। फिर भी मजदूर दिवस की मूल भावना के विपरीत श्रम को व्यक्तिगत उपलब्धियों से जोड़ा जा रहा है और उस सोच को सिरे से खत्म किया जा रहा है, जो समाज के लिए श्रम करने और सामूहिकता की प्रवृत्ति के विकास में सहायक हो।

इस दौरान रोजगार और मजदूरी की संरचना में काफी बदलाव आये हैं और मशीनों व उपकरणों के कारण कई कठिन समझे जाने वाले परम्परागत काम आसान हो गये हैं, लेकिन अविकसित या विकासशील देशों ही नहीं, धनी देशों में भी बेरोजगारी की ऊंची दरें हालात के दूसरे पहलू को बेपर्दा करके रख देती हैं, जिससे साफ होता है कि नई विश्वव्यवस्था और उसके नीति-निर्माता दुनिया में कहीं भी गरीब और कमजोर तबके के हितों का ध्यान नहीं रख रहे हैं।

तभी तो नोबेल पुरस्कार विजेता माइकल स्पेंस का कहना है कि रोजगार नई तकनीकों की वजह से भी कम हो रहे हैं, लेकिन भूमंडलीकरण का वर्चस्व और कल्याणकारी नीतियों का अभाव ही इसका सबसे बड़ा कारण है। यकीनन, भूमंडलीकरण ही उन ढांचागत सुधारों के आड़े आता है, जिनकी मदद से रोजगार के अवसर बढ़ाये जा सकते और शक्तियों व संसाधनों का मजदूर विरोधी संकेन्द्रण रोका जा सकता है।

इन सुधारों की अनुपस्थिति में ऐसे प्रशिक्षण नहीं उपलब्ध कराये जा पा रहे, जिनकी बिना पर मजदूरों की नई पीढ़ियां पुराने कौशलों के बेकार हो जाने की चुनौतियों का सामना कर सकें और अकुशल व कुशल मजदूरों के बीच की खाई पाटी जा सके।

अपने देश की बात करें तो मजदूर विभिन्न श्रेणियों के आधार पर बुरी तरह विभाजित होकर अपनी ही श्रेणी की उपलब्धियों के लिए चिंतित रहने लगे हैं, जिससे सामाजिक या आर्थिक परिवर्तन के हिरावल दस्ते के रूप में उनकी कोई भूमिका ही नहीं बची है। तिस पर उनकी मजदूर पहचान पर कई दूसरी संकीर्ण पहचानें हावी हो गई हैं, जिसके कारण सत्ता प्रतिष्ठान उनका कोई वर्गीय दबाव महसूस नहीं करता।

क्या आश्चर्य कि हमारे देश में, जो ‘अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन’ का संस्थापक सदस्य है, मजदूर दिवस पर सार्वजनिक अवकाश तक नहीं होता और मजदूर चेतना का ऐसा अभाव है कि अनेक मजदूरों को यह तक मालूम नहीं कि 19वीं शताब्दी के नवें दशक तक मजदूर प्रायः सारी दुनिया में अत्यंत कम व अनिश्चित मजदूरी पर सोलह-सोलह घंटे काम करने को अभिशप्त थे।

1810 के आसपास ब्रिटेन में उनके सोशलिस्ट संगठन ‘न्यू लेनार्क’ ने राबर्ट ओवेन की अगुआई में अधिकतम दस घंटे काम की मांग उठायी और उसके छह-सात सालों बाद आठ घंटे काम पर जोर देना शुरू किया, तो नारा था, ‘आठ घंटे काम, आठ घंटे मनोरंजन और आठ घंटे आराम’। उसके संघर्षों के बावजूद 1847 तक मजदूरों की राह सिर्फ इतनी आसान हो पायी थी कि इंग्लैंड के महिला व बाल मजदूरों को अधिकतम दस घंटे काम की स्वीकृति मिल गयी थी।

ऑस्ट्रेलिया में 21 अप्रैल, 1856 को ‘स्टोनमेंशन’ और मेलबर्न के आसपास के बिल्डिंग कर्मचारियों ने आठ घंटे काम की मांग को लेकर हड़ताल और ‘मेलबर्न विश्वविद्यालय’ से ‘पार्लियामेंट हाउस’ तक प्रदर्शन किया, तो 1866 में जेनेवा कन्वेंशन में ‘इंटरनेशनल वर्किंग मेंस एसोसिएशन’ ने भी इस हेतु अपनी आवाज बुलंद की।

लेकिन, निर्णायक घड़ी एक मई, 1886 को आयी, जब पुलिस की गोली से ‘मेकॉर्मिक हार्वेस्टिंग मशीन कंपनी संयंत्र में चार हड़तालियों की मौत के अगले दिन अमेरिका के शिकागो स्थित ‘हेमार्केट स्क्वायर’ में हड़ताली मजदूरों ने विराट प्रदर्शन किया और वहां की पुलिस, नेशनल गार्ड व घुड़सवार दस्ते गोलीबारी समेत ऐसे बर्बर दमन पर उतर आये कि धरती मजदूरों के रक्त से लाल हो गयी।

उस संघर्ष की याद में हर साल एक मई को मजदूर दिवस मनाने का चलन शुरू हुआ तो इस दिन को श्रम को पूंजी की सत्ता से मुक्ति दिलाने, उसकी गरिमा को पुनर्स्थापित करने और शोषण के विरुद्ध संघर्ष की चेतना जगाने का दिन बनते देर नहीं लगी। भारत में यह दिवस सबसे पहले चेन्नई में 1923 में ‘भारतीय मजदूर किसान पार्टी’ के नेता कामरेड सिंगरावेलू चेट्यार की पहल पर मनाया गया।

लेकिन उसके सौ साल बाद 2023 में भी यह सवाल और बड़ा होकर इस जवाब की मांग कर रहा है कि दुनिया के सारे मजदूर बकौल थियोडोर रूजवेल्ट ‘अपने जीवन का सबसे बड़ा पुरस्कार’ कब पायेंगे?

(कृष्ण प्रताप सिंह जनमोर्चा के संपादक हैं। और आजकल फैजाबाद में रहते हैं।)

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