क्या असम में बनेगा संघ के सपनों का पहला हिटलरी कंसंट्रेशन कैंप?

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नई दिल्ली। असम में जारी एनआरसी की सूची से 19 लाख लोग अलग कर दिए गए हैं। यानी कि सरकार के मुताबिक सूबे में इतने लोग अवैधानिक रूप से रह रहे हैं। लेकिन यह संख्या अभी आखिरी नहीं है। इसमें अभी भी लोगों को अगर लगता है कि उनके साथ अन्याय हुआ है तो वे ट्रिब्यूनल का दरवाजा खटखटा सकते हैं। और ट्रिब्यूनल को इससे जुड़े मामलों पर फैसला सुनाने के लिए 120 दिन का वक्त दिया गया है। उसके बाद आखिरी सूची पर भारत सरकार फैसला लेगी। हालांकि यह बात अभी तक साफ नहीं हो पायी है कि उन लोगों का क्या करेगी। उन्हें डिटेंशन कैंप में डाला जाएगा या फिर बांग्लादेश भेजा जाएगा। हालांकि बांग्लादेश साफ तौर पर उनको लेने से इंकार कर चुका है। इसके अतिरिक्त इन लोगों को ट्रिब्यूनल के फैसले के खिलाफ हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक में अपील करने का आधिकार रहेगा।

दिलचस्प बात यह है कि 19 लाख की इस संख्या में हिंदू और मुस्लिम दोनों शामिल हैं। और एक अनुमान के मुताबिक आधा या फिर कहा जाए उससे भी ज्यादा इसमें हिंदुओं की संख्या हो सकती है। ऐसे में वह भी स्थाई तौर पर परेशान होने के लिए बाध्य हो गए हैं। हालांकि इस मसले पर बीजेपी का कहना है कि वह संसद में इस पर कानून ले आएगी और जो भी दूसरे देशों से हिंदू और बौद्ध आते हैं उनको स्थाई नागरिकता देने का प्रस्ताव पारित कराएगी। लेकिन शायद वह इतना आसान नहीं जितना बीजेपी बता रही है। क्योंकि देश का संविधान धर्म के आधार पर नागरिकता को तय करने का अधिकार नहीं देता है। लिहाजा संसद से कानून अगर पारित भी हो जाए तो उसका कोर्ट में टिक पाना बहुत मुश्किल है। और इन सब प्रक्रियाओं से गुजरने के दौरान लगातार हिंदुओं का यह तबका परेशान रहेगा। जो किसी भी रूप में बीजेपी के लिए कोई शुभ संकेत नहीं होगा।

लेकिन इससे भी बड़ा सवाल संघ और बीजेपी के उस प्रचार पर उठता है जिसमें वह जनता के सामने सालों-साल से यह दुष्प्रचार करती रही है कि देश में घुसपैठियों की संख्या करोड़ों में है। और अब जबकि उसकी निगरानी में ही पूरा डाटा सामने आ गया है। यहां यह बात साफ करनी जरूरी है कि बीजेपी जब घुसपैठिया कहती है तो उसका मतलब शुद्ध रूप से मुस्लिम समुदाय के लोगों से होता है। इस लिहाज से भी अभी कुल संख्या 9 लाख के आस-पास आ रही है। और उसमें भी बहुत सारे लोग ऐसे हैं जो गरीबी के चलते न तो कोई दस्तावेज सुरक्षित रख सकते हैं और न ही उनके पास उसका कोई ज्ञान है। कई मामलों में तो परिवार के भीतर ही एक हिस्से को वैध और दूसरे को अवैध ठहरा दिया गया है। लिहाजा ऐसे मामले ट्रिब्यूनल में भी नहीं टिक पाएंगे। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि यह संख्या अब तक बीजेपी द्वारा पेश की जाने वाली संख्या के मुकाबले बहुत कम है।

ऊपर से अमित शाह से लेकर मनोज तिवारी तक बीजेपी के तमाम नेता इसे देश के दूसरे हिस्सों में लागू करने की बात करते नहीं थकते हैं। लेकिन इन सब की अब जिम्मेदारी बनती है कि सबसे पहले देश को अपने पुराने आंकड़ों के बारे में सफाई दें। और अगर ऐसा नहीं होता है तो उन्हें इसके लिए माफी मांगनी चाहिए। इस पूरी कवायद में जितना पैसा और ऊर्जा खत्म हुई है उसकी जिम्मेदारी कौन लेगा।

असम की समस्या को सुलझाने के बजाय सरकार ने और उलझा दिया है। दरअसल बीजेपी द्वारा बांग्लादेशी हिंदुओं को स्थाई तौर पर रहने की मान्यता दिए जाने के प्रस्ताव का वहां की दूसरी जनजातियां विरोध कर रही हैं। क्योंकि इससे उनके अपने अल्पसंख्यक हो जाने का खतरा है। लिहाजा इससे समस्या हल होने की जगह नई समस्या पैदा होती दिख रही है।

दिलचस्प बात यह है कि जिस गति से बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था में विकास हो रहा है और पूरा देश चीन की मदद से एक दूसरे मुकाम पर खड़ा हो गया है। उससे अब भविष्य में किसी बांग्लादेशी के यहां आने की आशंका बहुत कम है। ऊपर से मौजूदा समय में जो भारत के हालात हैं और पूरी मोदी सरकार जिस तरह से देश को पाकिस्तान के रास्ते पर ले जा रही है। उसमें जरूर भारतीय नागरिकों के सामने नया संकट खड़ा हो सकता है। जिसमें अगर किसी दिन बांग्लादेश या फिर किसी दूसरे पड़ोसी मुल्क में लोगों को जाने के लिए मजबूर होना पड़े तो किसी को अचरज नहीं होना चाहिए।

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