अब बड़ा सवाल यही है कि कांग्रेस सुधरेगी या टूटेगी?

पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को मिली करारी हार से उसके सामने अब अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है। ये चुनाव नतीजे उसके लिए 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद सबसे बड़ा झटका है। ऐसा झटका जो न सिर्फ भाजपा के खिलाफ विपक्षी एकता में उसकी नेतृत्वकारी भूमिका के दावे को कमजोर करेगा, साथ ही सोनिया, राहुल और प्रियंका गांधी की त्रिकोणीय नेतृत्व क्षमता पर उठ रहे सवालों के स्वर भी अब ज्यादा तेज होंगे। कोई ताज्जुब नहीं कि इस समय अपने इतिहास के सबसे चुनौती और संकट भरे दौर से गुजर रही देश की यह सबसे पुरानी पार्टी एक बार फिर बड़े पैमाने पर विभाजित हो जाए।

पांच राज्यों के चुनाव में कांग्रेस बड़ी उम्मीदों के साथ उतरी थी। हालांकि उत्तर प्रदेश में तो पार्टी को कुछ मिलना नहीं था लेकिन बाकी चार राज्यों से उसे बहुत उम्मीद थी। उसे लग रहा था कि वह पंजाब के साथ ही उत्तराखंड, मणिपुर और गोवा में भी अपनी सरकार बना लेगी। पंजाब में तो उसकी सरकार थी ही, उत्तराखंड, मणिपुर और गोवा के लिए भी उसने बड़ी तैयारी की थी।

पिछली बार से सबक लेकर इस बार पार्टी नेतृत्व ने चुनाव नतीजे आने से पहले ही अपने बड़े नेताओं को इन राज्यों में तैनात कर दिया था। त्रिशंकु विधानसभा बनने की स्थिति में कांग्रेस के विधायकों को कैसे एकजुट रखना है और स्थानीय स्तर की दूसरी पार्टियों से बातचीत करके सरकार बनाने के लिए कैसे समर्थन जुटाना है, इस बारे में भी शीर्ष स्तर पर विचार विमर्श हुआ था। पार्टी के कुछ नेता मणिपुर और गोवा की छोटी पार्टियों के संपर्क में थे। इन राज्यों में अपने नव-निर्वाचित विधायकों को कांग्रेस शासित राज्यों छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भेजे जाने की तैयारी की गई थी, ताकि पार्टी नेतृत्व के अलावा कोई उन तक पहुंच न सके। लेकिन उसकी सारी तैयारियां धरी रह गईं।

पंजाब में पिछली विधानसभा में कांग्रेस की 77 सीटें थीं लेकिन अब उसके पास महज 16 सीटें रह गई हैं। जिस चेहरे पर पार्टी पंजाब में चुनाव लड़ी थी वह चेहरा यानी मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी दोनों सीटों से चुनाव हार गये। अपने को मुख्यमंत्री पद का नैसर्गिक दावेदार मानने वाले प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू को भी बेहद शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा।

उत्तराखंड में चुनाव जीतने की उम्मीद कर रही कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री और वर्तमान चुनाव में अघोषित चेहरा हरीश रावत भी चुनाव हार गए। कांटे का मुकाबला और सरकार बनाने की तैयारी तक के बीच परिणाम ऐसे आए कि कांग्रेस भाजपा की आधी भी नहीं रह गयी, जबकि उत्तराखंड में पांच साल तक चली भाजपा की सरकार के खाते में नाकामियां ही नाकामियां दर्ज थीं, जिनके चलते पार्टी को पांच साल में तीन मुख्यमंत्री देने पड़े थे। गोवा के चुनाव नतीजे भी कांग्रेस के लिए उत्तराखंड जैसे ही रहे। वहां भी भाजपा के मुकाबले सीटों का अंतर बड़ा हो गया। मणिपुर की तो बात करने का कोई मतलब ही नहीं, क्योंकि जब उन राज्यों में निराशा हाथ लग रही हो जहां उम्मीदें थीं तो मणिपुर में निराशाजनक नतीजे कतई चौंकाते नहीं हैं।

भाजपा से सीधे मुकाबले में हारना तो कांग्रेस का स्वभाव बन ही चुका है। मगर, आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस से दिल्ली छीन लेने के 10 साल के भीतर पंजाब छीन कर यह जता दिया है कि कांग्रेस के लिए अस्तित्व का संकट या यूं कहें कि राजनीति में खुद को बचाए या बनाए रखने का संकट बड़ा हो चुका है। आम आदमी पार्टी के सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल ने चुनाव नतीजे आने के बाद देश में ऐसे बदलाव की इच्छा जताई है कि युवाओं को पढ़ने के लिए यूक्रेन न जाना पड़े। केजरीवाल के बयान की भाषा बताती है कि उनकी महत्वाकांक्षा अब अखिल भारतीय आकार लेने यानी भाजपा का विकल्प बनने की है।

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस पिछले चुनाव में मिले 6.25 फीसदी वोटों के मुकाबले इस बार महज 2.4 फीसदी वोट ही पा सकी। यानी वोट ढाई गुना से भी कम हो गए। पिछले चुनाव में कांग्रेस ने 7 सीटें जीती थी, इस बार उसे महज दो ही सीटें हाथ लगीं। जाहिर है इन नतीजों ने प्रियंका गांधी की साख को नुकसान पहुंचाया है। हालांकि प्रियंका गांधी ने उत्तर प्रदेश में बड़ी मेहनत की और संगठन को खड़ा भी किया है, लेकिन परिणाम नहीं मिल सका। उनकी मेहनत का पूरा फायदा दो ध्रुवीय हो चुके चुनाव में समाजवादी पार्टी को मिला। यह बहुत कुछ ऐसा है जैसे अन्ना आंदोलन के बाद आम आदमी पार्टी ने देशभर में अपने प्रत्याशियों की जमानतें ज़ब्त कराने का रिकॉर्ड बनाया था लेकिन उसका फायदा भाजपा को हुआ।

तो सवाल है कि उत्तर प्रदेश में दरकिनार हो चुकी कांग्रेस क्या अब राष्ट्रीय स्तर पर भी किसी गैर भाजपा पार्टी के हाथों दरकिनार कर दी जाएगी? इस सवाल पर विचार करना कांग्रेस के लिए जरूरी हो गया है।

राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के खिलाफ वैकल्पिक गठबंधन की धुरी बनने और अन्य विपक्षी दलों के बीच अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए कांग्रेस के लिए जरूरी था कि वह पांच राज्यों के चुनाव में अच्छा प्रदर्शन करे। खासकर इसलिए कि ममता बनर्जी या तेलंगाना के मुख्यमंत्री के.चंद्रशेखर राव विपक्षी एकता की जो कोशिशें कर रहे हैं, उनमें कांग्रेस को अलग-थलग रखने के इरादों की झलक साफ दिखाई देती है। अब ऐसी कोशिशें और तेज होंगी और कांग्रेस के लिए मोल-तोल करने की क्षमता में भारी गिरावट आएगी।

अभी कुछ क्षेत्रीय पार्टियां ऐसी हैं, जो कांग्रेस को भाजपा के खिलाफ बनने वाले गठबंधन के लिए अनिवार्य मान रही हैं। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे तो कह भी चुके हैं कि कांग्रेस के बगैर कोई विपक्षी गठबंधन नहीं बन सकता है। लेकिन अब ऐसी पार्टियां और नेता या तो चुप हो सकते हैं या वे भी कांग्रेस के बगैर गठबंधन बनाने के अभियान को समर्थन दे सकते हैं।

विपक्षी दलों के बीच अपनी स्वीकार्यता के संकट से ज्यादा बड़ा संकट कांग्रेस का अपना अंदरूनी संकट है। पांच राज्यों में बुरी तरह पिट जाने के बाद कांग्रेस आलाकमान को अब जी-23 को झेलना और मुश्किल हो जाएगा। कांग्रेस के नाराज नेताओं का यह समूह कुछ समय पहले बिखर सा गया था, लेकिन उसके नेता सही समय का इंतजार कर रहे हैं। उनके लिए यह सही समय अब लगता है आ चुका है। पांच राज्यों में पार्टी के शर्मनाक प्रदर्शन को मुद्दा बना कर ये नाराज नेता अब गांधी परिवार के नेतृत्व पर निर्णायक हमला कर सकते हैं। इसमें उन्हें कुछ बाहरी ताकतों यानी शरद पवार, ममता बनर्जी जैसे नेताओं की मदद मिल सकती है। इसके बावजूद अगर वे मकसद में कामयाब नहीं होते हैं तो फिर पार्टी टूट भी सकती है और असली कांग्रेस के लिए राजनीतिक व कानूनी लड़ाई भी छिड़ सकती है।

अगर ऐसा होता है तो भाजपा के लिए 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले होने वाले सभी विधानसभा चुनाव जीतना भी काफी आसान हो जाएगा। गौरतलब है कि 2024 के पहले नौ राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने हैं और उनमें से ज्यादातर राज्यों में कांग्रेस का सीधा मुकाबला भाजपा से होगा। इसी साल के आखिरी में गुजरात और हिमाचल प्रदेश में विधानसभा का चुनाव होना है। उसके बाद अगले साल की शुरुआत पूर्वोत्तर के तीन राज्यों- त्रिपुरा, मिजोरम और नगालैंड के विधानसभा चुनावों के साथ होगी। उसके बाद मई में कर्नाटक और फिर साल के अंत में मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में विधानसभा के चुनाव होंगे।

इन नौ राज्यों में से पूर्वोत्तर के तीनों राज्यों को छोड़ कर बाकी सभी छह बड़े राज्यों में कांग्रेस की या तो सरकार है या वह मुख्य विपक्षी पार्टी है। पूर्वोत्तर के तीनों राज्यों में से भी वह 40 सीटों वाली मिजोरम विधानसभा में पांच विधायकों के साथ-साथ वह तीसरी सबसे बड़ी पार्टी है। भाजपा की त्रिपुरा में सरकार है और नगालैंड में वह सत्तारूढ़ गठबंधन का हिस्सा है। इन तीनों में राज्यों में बहुकोणीय मुकाबला होगा, जहां कांग्रेस और भाजपा के अलावा हर राज्य की क्षेत्रीय पार्टी के साथ-साथ सीपीएम यानी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) और तृणमूल कांग्रेस भी मैदान में उतरेंगी।

बड़े राज्यों में गुजरात और हिमाचल प्रदेश में भाजपा की सरकार है और कांग्रेस मुख्य विपक्षी पार्टी है। इन दोनों राज्यों में इन्हीं दोनों पार्टियों का आमने-सामने का मुकाबला होगा। पिछले चुनाव में भी कांग्रेस ने गुजरात में भाजपा को कड़ी टक्कर दी थी और बराबरी का मुकाबला बना दिया था। कर्नाटक में भी भाजपा की सरकार है और कांग्रेस ही मुख्य विपक्षी दल है। वहां जनता दल सेक्युलर (जेडीएस) भी जरूर एक ताकत है लेकिन उसका असर राज्य के एक सीमित क्षेत्र में ही है, इसलिए मुकाबला कांग्रेस बनाम भाजपा ही होगा।

राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार है, जबकि मध्य प्रदेश में उससे छीन कर बनाई गई भाजपा की सरकार है। इन तीनों राज्यों में कोई असरदार क्षेत्रीय पार्टी नहीं है। इसलिए मुकाबला कांग्रेस और भाजपा के बीच ही होना है।

इस समय कांग्रेस का नेतृत्व जिस तरह अनिर्णय और दुविधाग्रस्त मानसिकता का शिकार है, अगर वह जल्दी ही उससे मुक्त होकर अपनी आंतरिक समस्याओं को नहीं सुलझाता है तो वह एक तरह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ के सपने को साकार करने में सबसे बड़ा मददगार माना जाएगा।

(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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