ग्राउंड से महाराष्ट्र चुनाव: विदर्भ में कपास क्यों बन गया है किसानों के लिए कहर?

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नागपुर। महाराष्ट्र का विदर्भ क्षेत्र प्राकृतिक संसाधनों और खेती-किसानी के तौर पर सूबे के सबसे समृद्ध इलाकों में से एक है। यहां कैशक्राप के रूप में कपास, सोयाबीन और तूर जैसी फसलों की खेती होती है। जिनकी देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में मांग है।

खनिज के मामले में भी यह इलाका बेहद समृद्ध है। नागपुर समेत विदर्भ के अलग-अलग इलाकों में 10 से ज्यादा कोयले की फैक्टरियां हैं। इसके अलावा यहां भारी मात्रा में संतरा पैदा होता है। लेकिन विडंबना देखिये इन तमाम चीजों के बावजूद सूबे का यही इलाका है जिसकी सबसे पिछड़े इलाके में गिनती होती है। 

वैसे तो नागपुर केवल नाम का नहीं बल्कि भौगोलिक तौर पर देश का हृदय स्थल है। इसे जीरो माइल कहा जाता है। यानि देश में दूरियों को नापने के लिए इसे मानक के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है।

इतना ही नहीं वैचारिक और राजनीतिक तौर पर भी इस इलाके ने देश की हर तरीके से अगुआई की है। अंग्रेजों के दौर में जब भौगोलिक रूप से सेंट्रल प्राविंस हुआ करता था तो नागपुर उसकी राजधानी होती थी। 

और यह आजादी हासिल करने के बाद तक बनी हुई थी। अब जबकि विदर्भ इलाका महाराष्ट्र के हिस्से में आया तो इसे सूबे के शीतकालीन राजधानी का दर्जा मिला और जाड़े में विधानसभा का सत्र भी यहां चलता है।

यहां बाकायदा विधान भवन की एक बिल्डिंग स्थित है। उससे समझा जा सकता है कि नागपुर की अपनी क्या हैसियत है। बांबे हाईकोर्ट की तीन बेंचों में से एक बेंच नागपुर में ही स्थित है। मुख्य तो मुंबई में है और तीसरी औरंगाबाद में है।

राजनैतिक और वैचारिक रुझानों की बात करें तो चार विचारधाराओं का यह केंद्र रहा है और कुछ का तो यह उद्गम स्थल ही कहा जा सकता है। आजादी की लड़ाई का यह बड़ा केंद्र था।

स्वतंत्रता संग्राम की अगुआई करने वाले महात्मा गांधी 1936 से लेकर 1948 तक इसी के सेवाग्राम इलाके में रहे और उन्होंने यहीं से आंदोलन की अगुआई की। इस रूप में यह बेहद पवित्र धरती है।

वर्धा और सेवाग्राम में उनकी विरासत आज भी जिंदा है। और देश और दुनिया के लोगों के लिए किसी तीर्थस्थल से कम नहीं है।

देश में सत्तारूढ़ पार्टी बीजेपी का वैचारिक संगठन और पितृ-पुरुष के तौर पर जाने-जाने वाले आरएसएस का हेडक्वार्टर यहीं स्थित है। तो ब्राह्मणवाद के खिलाफ समझौताविहीन संघर्ष चलाने वाले बाबा साहेब भीम राव अंबेडकर और अंत में जब उनके लिए हिंदू धर्म छोड़कर बौद्ध धर्म चुनने का समय आया तो उन्होंने इसी धरती को चुना।

उनकी दीक्षा भूमि जहां उन्होंने अपने 4 लाख अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म स्वीकार किया था, वह आज भी अपने पूरे वजूद के साथ मौजूद है। और देश और दुनिया के तमाम दलितों और अंबेडकर के अनुयायियों के लिए पवित्र भूमि बनी हुई है। 

कम्युनिस्टों का भी यह इलाका गढ़ रहा है। मजदूर आंदोलन हो या कि आदिवासियों के हक और हुकूक की लड़ाई कम्युनिस्ट यहां उनकी अगुआई करते रहे हैं। इसी धरती ने एबी बर्धन जैसे कम्युनिस्ट नेता को पैदा किया जो बाद में देश की सबसे पुरानी कम्युनिस्ट पार्टी सीपीआई के महासचिव बने।

गढ़चिरौली से लेकर विदर्भ के तमाम आदिवासी इलाकों में सत्ता और सामंतों की बंदूकें जब आदिवासियों पर जुल्म ढाती हैं, तो उनको रोकने के लिए समाज के सबसे आखिरी पायदान की इस जमात को लाल झंडे का ही सहारा लेना होता है।

जंगलों की कटाई हो या फिर उनके संसाधनों की लूट का मसला ये कतारें इंच-इंच पर उसके विरोध में खड़ी रहती हैं। यह अलग बात है कि इस समय सत्ता का वहां दमन चल रहा है और आम आदिवासी उसके शिकार हो रहे हैं। विरोध करने को कौन कहे बाहर के लोग उनकी लाशें गिनने में व्यस्त हैं।

नागपुर के 12 और विदर्भ इलाके की 62 विधानसभा सीटों के लिए चुनाव में जनता का एजेंडा फिर से गायब है। शहर में रहने वाले बीजेपी के दो बड़े नेताओं नितिन गडकरी और सूबे के उप मुख्यमंत्री देवेंद्र फडनवीस यूपी के सीएम योगी द्वारा दिए गए ‘बंटोगे तो कटोगे’ के नारे का समर्थन कर रहे हैं।

उनकी कोशिश है कि इसी नारे और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के आधार पर चुनाव जीत लिया जाए। लेकिन किसानों से लेकर मजदूरों और आम लोगों की समस्याएं यहां मुंह बाए खड़ी हैं और अपने तरीके से चुनाव में हाजिरी भी दर्ज करा रही हैं।

उन समस्याओं और उनसे जुड़े लोगों का हाल जानने के लिए जनचौक की टीम ने शहर से 40 किमी दूर स्थित उमरेड इलाके का दौरा किया।

उमरेड नागपुर का एक कस्बा है और यहां कोयले की एक खदान भी स्थित है। बावजूद इसके किसान और युवा यहां बेहाल हैं। उमरेड के रास्ते से लगे खेतों में सफेद फूल चांदनी की तरह चमक रहे थे। 

पूछने पर पता चला कि यह कपास के खेत हैं और सफेद दिखने वाली चीज कुछ और नहीं बल्कि रूई है, जिससे हमारे आपके कपड़े तैयार होते हैं। खेती और फसल का जायजा लेने के लिए इन पंक्तियों के लेखक ने उमरेड से पांच किमी दूर स्थित एक गांव धुरखेड़ा का दौरा किया।

गांव की आबादी तकरीबन 1100 है। गांव में कपास, सोयाबीन, तूर, सब्जियों आदि की खेती होती है। 

इसके अलावा चना समेत दूसरी फसलें भी ली जाती हैं। लेकिन ज्यादातर किसान कपास और सोयाबीन की खेती करते हैं। यहां शाम के वक्त अपने खेत की देखभाल करते 55 वर्षीय रवि भाऊराव गायकवाड़ से मुलाकात हो गयी।

उनके पास दो एकड़ खेती है यानि चार बीघा जमीन। उन्होंने दोनों एकड़ में कपास की खेती कर रखी है। शाम का वक्त था। और सूरज अपने उतार पर था। ढलते दिन की तरह गायकवाड़ का चेहरा भी उतरा हुआ था।

पूरी दुनिया के लोगों का तन ढकने का काम करने वाले गायकवाड़ के खुद की शर्ट का कॉलर फटा हुआ था। तकरीबन 55 वर्षीय गायकवाड़ ने बताया कि कपास घाटे की खेती हो गयी है और अब वह किसानों पर बोझ साबित हो रही है।

यह पूछे जाने पर कि कैसे, तो उन्होंने बताया कि कपास की खेती में लगने वाली लागत के बराबर भी दाम नहीं मिल पाता है। उन्होंने बताया कि उनके दो एकड़ कपास की खेती में कुल एक लाख रुपये की लागत आयी है। जबकि बाजार में एमएसपी के बराबर भी कीमत नहीं मिल पाती। 

उन्होंने बताया कि मौजूदा समय में तकरीबन 6000 रुपये प्रति क्विंटल कपास का दाम है। जो शुरुआत में इसी सीजन में 7000 था। यह रेट कम क्यों हुआ इसके बारे में उनको भी जानकारी नहीं थी। इसके पहले अधिकतम रेट 8000 से लेकर 9000 तक गया था। लेकिन ऐसा एकाध बार ही हुआ था।

कई बार कपास की गुणवत्ता के चलते दाम में कमी रहती है। लेकिन मौजूदा समय में खेती अच्छी होने के बाद भी 6000 रुपये से ज्यादा रेट नहीं मिल पा रहा है। गायकवाड़ का कहना था कि अगर छह हजार प्रति क्विंटल दाम रहा तो उनको दो एकड़ में एक से डेढ़ लाख रुपये मिलना भी मुश्किल है।

यह पूछे जाने पर कि जब फायदा नहीं हो रहा है तो फिर कपास की खेती क्यों?

किसान गायकवाड़।

इसका जवाब उनके पास खड़े दूसरे किसान यशवंत कोली कावड़े ने दिया। कावड़े के पास कुल छह एकड़ खेत हुआ करता था। लेकिन इन्हीं परेशानियों के चलते उन्होंने अपना सारा खेत बेच दिया और उसका पैसा जमाकर वह उसके ब्याज से अपना जीवन यापन कर रहे हैं।

इसके अलावा उनके बेटे मजदूरी या फिर कोई दूसरा काम कर कुछ आय हासिल कर लेते हैं। उन्होंने बताया कि किसान मजबूरी में ही अब कपास की खेती कर रहे हैं क्योंकि उनके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है। और फिर इस आस में कि इस साल नहीं तो दूसरी साल हालात सुधर जाएंगे और दूसरी नहीं तो उसके बाद ऐसा हो जाएगा।

उम्मीद का यह सिलसिला बढ़ता ही जा रहा है। और किसान किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पा रहे हैं। उन्होंने कहा कि कुछ तो करना ही है इसलिए किसान खेती कर रहे हैं। कावड़े का कहना था कि अगर 10 हजार रुपये प्रति क्विंटल के हिसाब से दाम मिल जाए तो किसानों को कुछ राहत हो सकती है।

उन्होंने बताया कि एक बार 9000 रुपये का रेट मिला था। कावड़े का कहना था कि विदर्भ में किसानों के बीच एकता नहीं है जबकि अमरावती इलाके के किसान एकजुट होकर सरकार पर दबाव बनाने में सफल हो जाते हैं।

उन्होंने बताया कि सोयाबीन की खेती तो बिल्कुल बर्बाद ही हो गयी। किसानों को मजदूरी और लागत ऊपर से देनी पड़ी। उनका कहना था कि ऐसा ज्यादा बरसात के चलते हुआ। पानी के लगने से पूरी खेती चौपट हो गयी और फसल बिल्कुल बर्बाद हो गयी।

ऊपर से फसल में एक रोग भी लग गया था, जिससे रही-सही संभावनाएं भी समाप्त हो गयीं। एक एकड़ में एक क्विंटल फसल हुई और इसकी कीमत 2 से लेकर 2.50 हजार रुपये मिल सकते थे।

फसलों से कीमत न मिलने का नतीजा है कि किसानों को अब मजदूरी करनी पड़ रही है। गायकवाड़ के बेटे पास में स्थित टाटा की एक कंपनी में मजदूरी करते हैं और उन्हें वहां रोजाना 500 रुपये मिलते हैं। जिसमें उनके यातायात समेत बाहर के रहने के दौर के खर्चे भी शामिल हैं।

दोनों किसानों का कहना था कि अगर ऐसी स्थिति बनी रही तो किसानों को मजबूरी में अपनी जमीन बेचनी पड़ेगी। गायकवाड़ का कहना था कि खेती तो करनी ही पड़ेगी। उसके अलावा उनके पास विकल्प क्या है? गायकवाड़ अब खेती में सब्जी उगाने के बारे में सोच रहे हैं और उनको उम्मीद है कि इस रास्ते से एक नया विकल्प तैयार किया जा सकता है।

बाद में जनचौक की टीम का उमरेड चौराहे की एक चाय की दुकान पर बैठे नौजवानों से सामना हुआ। उसमें एक सज्जन ने बीएससी कर रखी थी और रोजगार न मिलने से अब वह पास में स्थित एक कंपनी में मजदूरी कर रहे हैं।

यहां मौजूद सारे लोग बेरोजगारी और महंगाई को सबसे बड़ी समस्या के तौर पर चिन्हित कर रहे थे और किसानों समेत इन सारी समस्याओं के लिए मौजूदा सरकार को जिम्मेदार ठहरा रहे थे।

हालांकि चुनावों को लेकर भी इस दौरान इस इलाके में कई लोगों से बात हुई। टैक्सी से यात्रा करते वक्त ड्राइवर ताहिर तो सरकार की आलोचना नहीं कर रहे थे लेकिन फिर भी उनका कहना था कि सरकार बदल रही है।

एक चाय की दुकान पर बैठे दो सज्जन इस बात को मान रहे थे कि पलड़ा विपक्ष यानि महाविकास अघाड़ी का भारी है बावजूद इसके सरकार बीजेपी के नेतृत्व वाली महायुति की ही बनेगी। 

वरिष्ठ पत्रकार और एक्टिविस्ट तुषार कांति का कहना था कि विपक्ष और सत्ता पक्ष के बीच फासला 55 और 45 फीसदी का है। ऐसे में विपक्ष एज लिए हुए है लेकिन सरकार को लेकर कोई दावा नहीं किया जा सकता है।

दरअसल हरियाणा के परिणाम के बाद विश्लेषकों का भरोसा डगमगा गया है। और लोग कुछ भी निश्चित कहने की स्थिति में नहीं हैं। इसलिए किसी भी नतीजे के लिए लोगों को तैयार रहने के लिए कहते हैं। 

पत्रकार और एक्टिविस्ट तुषार कांति।

इस बात में कोई शक नहीं कि किसानों के बीच सरकार के खिलाफ जबर्दस्त नाराजगी है। और बेरोजगारी तथा महंगाई एक बड़ा मुद्दा बना हुआ है। हालांकि अंतिम समय में लड़की-बहिन योजना के जरिये महिलाओं को 1500 रुपये देने के फैसले को सरकार से जुड़े नेता गेमचेंजर करार दे रहे हैं।

लेकिन इसके बारे में भी लोगों का कहना है कि यह केवल चुनाव तक ही सीमित है और सरकार बनते ही इसे खत्म कर दिया जाएगा। लिहाजा इस पर भरोसा नहीं किया जा सकता है। 

महाराष्ट्र का 55 फीसदी इलाका ग्रामीण क्षेत्र में आता है। इस तरह से 288 में से 158 विधानसभा क्षेत्र ग्रामीण इलाकों में आते हैं। विदर्भ की 62 में से 34 सीटें ग्रामीण इलाकों से जुड़ती हैं। पहले तो पूरा इलाका कांग्रेस का गढ़ हुआ करता था। लेकिन 2014 से इस इलाके में बीजेपी ने अपनी पैठ बनानी शुरू कर दी।

2014 में उसे यहां की 44 सीटों पर विजय हासिल हुई थी। जबकि 2019 में यह संख्या कम हो गयी थी और उसे केवल 29 सीटों से संतोष करना पड़ा था। सूबे में 76 विधानसभा सीटों पर बीजेपी और कांग्रेस आमने-सामने मुकाबले में हैं। उसमें 36 सीटें विदर्भ की हैं।

बीजेपी यहां की 47 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। नाना पटोले यहां कांग्रेस के प्रमुख नेताओं में एक हैं। उन्होंने गांवों में किसानों की समस्याओं पर अपने चुनाव प्रचार अभियान को केंद्रित किया हुआ है। जबकि बीजेपी ‘विदर्भ विजन’ के साथ इसके शहरी इलाकों पर जोर दे रही है। 

हालांकि बीजेपी को अपनी ‘लड़की बहिन’ योजना समेत तमाम कल्याणकारी योजनाओं से लाभ की उम्मीद है। लेकिन किसानों का कहना है कि हमें मुफ्त भोजन, मुफ्त बिजली और नगद की जरूरत नहीं है। सरकार केवल हमारी फसलों की कीमतें बढ़ा दे। 

इस बात में कोई शक नहीं कि विधानसभा चुनाव के बाद लोकसभा चुनाव में विदर्भ की तस्वीर बिल्कुल बदल गयी है। इलाके में एक बार फिर से कांग्रेस का पलड़ा भारी हो गया है। यह चुनाव में कितना बरकरार रहता है यह देखने की बात होगी। 

(रितिक कुमार के साथ महेंद्र मिश्र की रिपोर्ट।)

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