Thursday, April 25, 2024

चीनी कब्जे से रिहा हुए सैनिकों की आड़ में ‘झूठ की खिचड़ी’ क्यों परोस रही है सरकार!

ये शब्द कड़वे भले लगें लेकिन हैं बिल्कुल सच्चे कि भारत सरकार, इसकी सेना और इसका विदेश मंत्रालय, देश को ग़ुमराह कर रहा है। वर्ना, 15 जून को लद्दाख की गलवान घाटी में चीनी सैनिकों के साथ हुई बर्बर झड़प के तीन दिन बाद भारतीय सेना के दो मेज़र समेत दस जवानों की युद्धबन्दियों की तरह रिहाई कैसे हो गयी, वो भी तब जबकि सेना और विदेश मंत्रालय ने एक दिन पहले ही दावा किया था कि 20 सैनिकों की जान गँवाने और क़रीब 80 जाँबाजों के ज़ख्मी होने के बावजूद हमारा कोई जवान ‘लापता’ नहीं है। साफ़ है कि सेना पर भी अब ऐसा छद्म राष्ट्रवाद हावी है, जो सरकार के इशारे पर अपने ही देशवासियों से, अपने ही जवानों की सच्चाई को, ‘कूटनीति’ की आड़ में झूठा बनाकर परोस रही है। इसे ‘झूठ की खिचड़ी’ भी कह सकते हैं।

सारे घटनाक्रम को सरकार की सरासर मक्कारी या पतित व्यवहार या भ्रष्ट आचरण नहीं कहें तो फिर भला क्या कहें? क्योंकि अब जो सच सामने है उसके मुताबिक़, 18 जून की देर शाम को चीन ने दस भारतीय सैनिकों को रिहा किया। इसी रोज़ दिन के वक़्त सेना बता चुकी थी कि उसका कोई सैनिक ग़ायब नहीं है। शायद इसीलिए शाम 5 बजे, विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने भी यही दोहरा दिया। अब बरगलाया जा रहा है कि बन्दी बनाये गये सैनिकों की सुरक्षा को देखते हुए सच को छिपाया गया। यदि ये मान भी लिया जाए कि ऐसे सच को छिपाना भी एक सैन्य रणनीति है तो फिर इनकी रिहाई को भी हमेशा के लिए छिपाकर ही क्यों नहीं रखा गया? जब कोई सैनिक ग़ायब नहीं था तो बेचारे पत्रकार भी भला कैसे पूछते कि चीन ने कितने सैनिकों को बन्दी बना रखा है?

शब्दार्थ और भावार्थ का खेल 

अब जब तीन दिनों तक युद्धबन्दी रहकर, चीनी सेना की यातनाएँ झेलने वाले दस सैनिकों की रिहाई हो गयी है तो भारतीय सेना पूरे मामले को ऐसे पेश कर रही है, जैसे उसने कोई मोर्चा जीत लिया हो। साफ़ है कि सेना पर भी सरकार की तरह नाहक ढोल पीटने के संस्कार हावी हो चुके हैं। अब ‘लापता’ या ‘ग़ायब’ या ‘Missing’ शब्द के भावार्थ से खेला जा रहा है। ये झूठ फैलाया जा रहा है कि इन शब्दों का मतलब ही होता है, ‘जिसका पता-ठिकाना नहीं हो’। ज़ाहिर है कि सेना को अच्छी तरह से मालूम था कि उसके दस सैनिक जो बर्बर झड़प के बाद अपने शिविरों में नहीं लौटे, उनका पता-ठिकाना क्या है? तभी तो वो लापता नहीं थे और इनकी रिहाई के लिए दो दिनों तक मेज़र जनरल स्तर की बातचीत के तीन दौर चले।

याद कीजिए कि क्या इसी बातचीत को सरकारी तंत्र और उसका पिछलग्गू मेनस्ट्रीम मीडिया, ऐसे पेश नहीं कर रहा था, मानों चीनी सेना को नये सिरे से वापस अपनी अप्रैल वाली ‘पोज़िशन्स’ पर लौटने के लिए मनाया जा रहा हो? अरे! देश भूला नहीं है कि आख़िरी बार चीनी सेना ने भारतीय सैनिकों को 1962 में युद्धबन्दी बनाया था। वो बाक़ायदा युद्ध था, लेकिन अभी तो किसी ने युद्ध की घोषणा नहीं की। फिर झूठी छवि क्यों बनायी गयी? यदि इसका सम्बन्ध सेना के हौसले पर पड़ने का ज़ोखिम था, तो क्या अब रिहाई की ख़बर से सैनिकों का हौसला सातवें आसपान पर पहुँच गया होगा? क्या हमारे सैनिक नहीं जानते हैं कि 1975 के बाद, 45 साल बाद, उनके 20 निहत्थे साथी बर्बर झड़प में शहीद हुए हैं?

बताइए किसे मिलेगी चूड़ियाँ!

वीर-रस से ओतप्रोत भाषण और बयान देने वाले हमारे सियासी हुक़्मरानों की सच्चाई 130 करोड़ भारतवासियों के सामने है। हमने बीते छह सालों में सेना के आला जनरलों और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के भी सियासी बयान ख़ूब देखे हैं। इसीलिए, ऐसे व्यंग्य भी हमारे सामने है कि “गलवान घाटी की बर्बर झड़प की जौहर-गाथा सुनकर केन्द्र सरकार की एक महिला कैबिनेट मंत्री का ख़ून इतना खौलने लगा कि वो ढेर सारी चूड़ियाँ ख़रीदने निकल पड़ीं! पूछा जा रहा है कि बताइए वो किसे चूड़ियाँ देने जाएँगी? आपके ऑप्शन्स हैं – 1। प्रधानमंत्री, 2। रक्षा मंत्री, 3। विदेश मंत्री, 4। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (NSA), 5। तीनों सेना के प्रमुख (CDS)।” व्यंग्य भी बात को कहने की एक विधा है।

बात बड़ी सीधी सी है कि डेढ़ महीने से ज़्यादा बीत गये लद्दाख में कई जगहों पर चीन ने भारतीय सेना को वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) पर पीछे धकेल रखा है। सैकड़ों वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र पर चीनी सेना आगे बढ़कर जमी हुई है। जिन इलाकों को लेकर दोनों देशों के बीच कभी कोई सीमा विवाद नहीं रहा, वहाँ भी भारतीय इलाके को अचानक वो अब अपना बता रहे हैं। गलवान घाटी और पैंगोंग झील की फिंगर्स भी ऐसी ही जगहें हैं। साफ़ दिख रहा है कि इतिहास की अनदेखी करके जिन्होंने सपोलों के प्रति प्यार दिखाया, सपोलों ने परिपक्व साँप बनने के बाद उन्हें ही डसकर दिखाया है।

चीनी सेनाएँ भटकीं नहीं हैं

भारत के सियासी और सैनिक हुक़्मरान अब भी ये समझने को तैयार नहीं कि चीनी सेनाएँ जहाँ तक और जिन चोटियों पर आकर रूकी हुई हैं, वहाँ तक आने की उसकी बाक़ायदा रणनीति और तैयारी थी। तो फिर क्या सैनिक और राजनयिक स्तर की बातचीत से विवाद को सुलझाने का कोई सुनियोजित ढोंग चल रहा है? चीनी अतिक्रमण को हटाने के लिए भारतीय रणनीतिकार पहली बार अपने सैनिकों को निहत्था रहकर शहीद बनने के लिए भेज रहे हैं। सेना, अनुशासन के बोझ तले दबकर अपने प्राणों की आहुति दे रही है, क्योंकि उसे हुक़्म ही यही मिला है!

अरे! भारत को अभी तक इतनी बात में समझ में क्यों नहीं आ रही है कि चीन इसलिए पीछे नहीं जा रहा क्योंकि वो कोई भटककर तो आगे आया नहीं कि चेताने पर लौट जाए। ज़ाहिर है कि चीन वापस जाना ही नहीं चाहता, क्योंकि वो पीछे जाने के लिए तो आगे आया नहीं था। उसने ख़ूब सोच-विचारकर मौजूदा वक़्त चुना है। उसे मालूम है कि भारत इस वक़्त कोरोना के सामने पस्त पड़ा है। हमारा स्वास्थ्य ढाँचा और हमारी अर्थव्यवस्था भी अभी इतनी चरमराई हुई है कि हमारी सरकारें सीधे तनकर खड़ी भी नहीं हो पा रहीं। युद्ध-शास्त्र कहता है कि दुश्मन पर तब हमला करो जब वो सबसे कमज़ोर या नाज़ुक दौर में हो या कमोबेश सो रहा हो। इसे ही Tactical Surprise कहते हैं। क्या चीन ने यही नहीं किया है? क्या उसने पहली बार धोखा या दग़ा किया है?

किसने कहा था दुश्मन न. 1?

सभी जानते हैं कि हमारी मौजूदा सरकार को काँग्रेसी अनुभवों से चिढ़ है। लेकिन इसे अटल बिहारी वाजपेयी और जॉर्ज फ़र्नांडीस का वो बयान भी क्यों याद नहीं रहा, जिसमें दोनों ने ही चीन को भारत का दुश्मन नम्बर-1 बताया था। राम मनोहर लोहिया और मुलायम सिंह यादव जैसे समाजवादी भी चीन को भारत का सबसे बड़ा दुश्मन बता चुके हैं। लेकिन इतिहास को नज़रअन्दाज़ करके हमारे माननीय प्रधानमंत्री जी ने छह साल के कार्यकाल में पाँच बार चीनियों से अपनी मेहमान नवाज़ी करवायी, 18 बार वैश्विक या द्विपक्षीय मंचों पर अपने ‘दग़ाबाज़ दोस्त’ से गलबहियाँ करके दिखाया जो सिर्फ़ चीन का राष्ट्रपति ही नहीं, उसका असली सेनानायक भी है, जिसकी सहमति के बग़ैर चीनी सेना में कुछ नहीं होता।

यही नहीं, एक बार तो वो इस क़दर ‘चुपके-चुपके और चोरी-चोरी’ दुश्मन नम्बर-2 के साथ बिरयानी खाने के लिए लाहौर भी पहुँच गये कि हमारी तत्कालीन विदेश मंत्री तक को हवा नहीं लगी, जबकि विदेश मंत्री के ही मातहत रहने वाले हमारे राजदूत ने सारा इन्तज़ाम सम्भाला था। ख़ैर, ये भी क्या विकट संयोग है कि भारत के शीर्ष स्तरीय बयान-वीरों की कलई खोलने का, उन्हें बेनक़ाब करने का बीड़ा भी उनके ही ‘पक्के दोस्तों’ ने उठाया। वाजपेयी जी बस लेकर लाहौर गये थे तो उन्हें रिटर्न गिफ़्ट में कारगिल मिला। कारगिल की तरह ही इस बार भी लद्दाख में दुश्मन ख़ूब सोच-विचारकर और पूरी तैयारी के साथ ही LAC पर चढ़ आया है।

अब तो बस इतना तय होना है कि ‘मोदी-02’ अपने चहेते दोस्त के साथ ‘कारगिल-02’ करेंगे या यूँ ही हाड़ कँपाने वाली सरहद पर अन्ताक्षरी का खेल चलता रहेगा? इस बीच, चीन की दग़ाबाज़ी को कोसते वक़्त आप चाहें तो आडवाणी, जोशी, यशवन्त, शौरी, शत्रुघ्न जैसों की पीठ में छुरा भोंकने वालों का स्मरण भी अवश्य करें। याद रखें कि नेता की सबसे बड़ी ख़ूबी यही होती है कि उसे दोस्त और दुश्मन की पहचान बहुत जल्दी हो जाती है। वो नेता ही क्या जिसे इंसान की पहचान न हो! साफ़ दिख रहा है कि भगवा जमात इस मोर्चे पर भी फिसड्डी रहा है।

(मुकेश कुमार सिंह स्वतंत्र पत्रकार और राजनीतिक प्रेक्षक हैं। तीन दशक लम्बे पेशेवर अनुभव के दौरान इन्होंने दिल्ली, लखनऊ, जयपुर, उदयपुर और मुम्बई स्थित न्यूज़ चैनलों और अख़बारों में काम किया। अभी दिल्ली में रहते हैं।)

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