Thursday, April 25, 2024

क्यों आ गए हैं महिलाओं के ‘बुरे दिन’, किसकी तरफ है सरकार?

जब से भाजपा ने सत्ता की बागडोर सम्भाली है, ऐसा लगता है महिलाओं के ‘‘अच्छे दिन’’ लद गए हैं। इस सरकार का सबसे लोकप्रिय नारा था ‘‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’’, जो आज मानो सबको मुंह चिढ़ाता हुआ देश भर में घूम रहा है।

जंतर-मंतर पर भारतीय खेल जगत की सबसे होनहार पहलवान बेटियों को जब पूरे देश ने न्याय के लिए रोते हुए देखा तो लगा कि यह नारा कितना बड़ा धोखा है। बात यहीं पर नहीं रुकी, 3 मई को जब पुलिस ने पहले पहलवानों का समर्थन कर रही डीयू की छात्राओं और देर रात को पहलवानों के साथ बदसलूकी की और उन्हें ज़ख्मी किया तो समझ में आ गया कि सरकार किसकी तरफ है।

ऐसा लगता है कि सरकार बेटियों को नहीं, बाहुबलियों और बलात्कारियों को बचाने में एड़ी-चोटी का दम लगा रही है। शायद जिन्होंने 15 अगस्त 2021 को लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री जी का भाषण सुना था उनके कानों में ये शब्द आज भी गूंजते होंगे-‘‘यह देश के लिए गर्व की बात है कि हमारी बेटियां शिक्षा, खेल, बोर्ड के परिणाम या ओलंपिक के क्षेत्र में बेहतर से बेहतर प्रदर्शन कर रही हैं। आज बेटियां अपनी जगह पाने के लिए उतावली हैं। हमें ध्यान देना होगा कि बेटियों का करियर के हर क्षेत्र में समान भागीदारी हो। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि वे सड़क से लेकर कार्यस्थल तक और सभी जगहों पर खुद को सुरक्षित महसूस करें। हमारे मन में महिलाओं के प्रति सम्मान की भावना होनी चाहिए। इसके लिए सरकार, प्रशासन, पुलिस और न्याय व्यवस्था को अपना सौ प्रतिशत देना होगा।’’

आज जब पूरा देश ओलिंपियन पहलवान बेटियों के साथ खड़ा है, प्रधानमंत्री चुप हैं। क्या हम समझें कि डब्लूएफआई अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह को उनका मौन समर्थन है? वह भी इसलिए कि राम मंदिर आंदोलन और बाबरी मस्जिद विध्वंस में उसकी अहम भूमिका रही। जिसके चलते उत्तर प्रदेश के गोण्डा सहित 5 जिलों में उसका दबदबा है और वह सत्ताधारी दल के वोटों को प्रभावित कर सकता है।

यह दीगर बात है कि उसपर करीब 40 अपराधिक मामले दर्ज हैं। वह सांसद ही नहीं, तीन बार से डब्लूएफआई का अध्यक्ष है। और तो और वह सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा प्राथमिकी दर्ज कराने के बाद भी मीडिया साक्षात्कार में धड़ल्ले से साक्षी मलिक के बारे में अनर्गल बातें कर रहा है। आप 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद के परिणाम देखें तो अपराधिक रिकार्ड वाले सांसद व विधायकों की सबसे बड़ी संख्या (83) भाजपा में पायी गई थी! जब कानून बनाने वालों का ये हाल हो तो महिलाएं और बेटियां कैसे सुरक्षित रह सकती हैं?

आज सबसे बड़ा मुद्दा है महिला सुरक्षा

इसलिए देश में आज सबसे बड़ा मुद्दा है महिलाओं और बच्चियों की सुरक्षा। नाबालिग बच्चियां भी आज सुरक्षित नहीं हैं। पर 2016 के अपने स्वतंत्रता दिवस के भाषण में हमारे प्रधानमंत्री ने क्या कहा था? उनके शब्दों को याद कीजिये-‘‘हमारी महिलाएं इतनी बड़ी संख्या में बहादुरी से आगे बढ़ रही हैं, मगर उन्हें काफी बुरी चीजों का भी सामना करना पड़ता है। कभी-कभी राक्षसी ताकतें नारी शक्ति के सामने चुनौती पेश करती हैं। रेप दर्दनाक है और हम देशवासियों को पीड़िता के दर्द को कई गुना महसूस करना चाहिए।’’

ये क्या केवल खोखली जुमलेबाज़ी है? आखिर देश में क्या हो रहा है? उदाहरण के लिए वाराणसी में, जो प्रधानमंत्री जी का अपना चुनाव क्षेत्र है, एक भोजपुरी अदाकारा आकांक्षा दुबे की हत्या किसी होटल में हो जाती है। प्रथम दृष्टया स्पष्ट है कि लड़की को मारकर लटकाया गया, रात उसके कमरे में जो लोग थे उनकी आवाज़ें वीडियो पर सुनाई दीं और उसका अपना एक वीडियो सार्वजनिक पटल पर है।

जिसमें वह कहती है कि उसे यदि कुछ होता है तो निर्देशक समर सिंह उसके लिए जिम्मेदार होगा। पर एक महीना बीत जाने के बाद भी पुलिस लगातार मामले को दबाने में लगी है। क्या वह इस बात को छिपाना चाहती है कि वीआईपी शहर वाराणसी में सरेआम अपराध हो रहे हैं और लड़कियां सुरक्षित नहीं हैं? उस वाराणसी में जो धर्म का प्राचीन केंद्र माना जाता है?

2020 (लॉकडाउन वर्ष) को छोड़ दिया जाए तो महिलाओं पर होने वाले अपराध साल-दर-साल बढ़ते ही जा रहे हैं। 2021 की बात करें तो जनवरी से दिसम्बर के बीच महिलाओं पर अपराध की रिर्पोटेड घटनाएं लगभग साढ़े चार लाख तक पहुंच गईं। यह 2016 से, यानि छः वर्षों में 26.35 प्रतिशत की वृद्धि है! और, यही नहीं, भाजपा की नई प्रयोगशाला, उत्तर प्रदेश 2021 में महिला पर अपराध के मामले में प्रथम स्थान पर आ गया।

यूपी में महिलाओं पर अपराध की 56,083 रिर्पोटेड घटनाएं थीं। जहां तक दोष साबित होने यानि कन्विक्शन रेट की बात है तो यह देश में 2021 में केवल 26.5 प्रतिशत था, यानि एक-तिहाई तक भी नहीं पहुंच पाया। ऐसा क्यों है? भारत में प्रासिक्यूशन इतना लचर है कि दोष सिद्धि बहुत मुश्किल से हो पाती है। और यह खासकार भाजपा शासित प्रदेशों में (उ.प्र., म.प्र., गुजरात, महाराष्ट्र (फड़नविस के समय का), असम) और भी अधिक देखा जा रहा है कि अपराध के आंकड़े बढ़े हैं। यहां दलितों और महिलाओं पर सबसे अधिक अत्याचार हुए।

उत्तर प्रदेश के उन्नाव में दो दर्दनाक घटनाएं हुई थीं जिन्होंने कानून व्यवस्था की धज्जियां उड़ा दी थीं। एक (2019) में भाजपा विधायक कुलदीप सिंह सेंगर लिप्त थे और पीड़िता के पिता की हिरासत में मौत हो गई थी और मौसी व चाची को कोर्ट जाते समय दुर्घटनाग्रस्त कर मौत के घाट उतार दिया गया था। देशव्यापी हाहाकार के बाद सेंगर की गिरफ्तारी हुई। दूसरी घटना में एक नाबालिग दलित बच्ची के बलात्कारियों को आसानी से जमानत मिल जाती है और वे पीड़िता का घर जला डालते हैं। इस घटना में पीड़िता का 6 माह का बच्चा और 2 माह की बहन 40 प्रतिशत जल जाते हैं।

अगर हम कुछ पीछे चले जाएं तो हमें याद आयेगा कि प्रधानमंत्री के प्रथम स्वतंत्रता दिवस सम्बोधन में उन्होंने कहा था, ‘‘जब हम रेप की घटनाओं के बारे में सुनते हैं तो हमारा सिर शर्म से झुक जाता है। हर मां-बाप अपनी बेटियों पर जितनी पाबंदियां लगाते आए हैं, उतनी बंदिशें बेटों पर थोपने का फैसला करते हैं, तो अपने बेटों से ऐसे सवाल पूछने की कोशिश कीजिए। कानून अपना काम करेगा, सख्त कार्रवाई होगी, लेकिन समाज के सदस्य के रूप में, माता-पिता के रूप में, हमारी भी कुछ जिम्मेदारियां हैं।’’ पर यहां उस पिता और मां, के साथ, जो बेटियों के लिए खड़े हुए क्या सुलूक किया गया? इसपर क्या कहेंगे ‘ज़ीरो टालरेंस’’ वाले बुलडोज़र बाबा और देश प्रधान?

सवाल यह भी उठता है कि क्या कानून अपना काम कर रहा है? कैसे करे, जब पुलिस से लेकर न्यायाधीशों पर सरकार दबाव बना रही है। हमने तो देश में यहां तक स्थिति तक देखी है कि सीजेआई रंजन गोगोई यौन उत्पीड़न के आरोप में लिप्त पाए जाने के बाद भी राज्य सभा के लिए मनोनीत होते हैं। व्यापक विरोध के बावजूद कुछ नहीं होता।

इससे भी अधिक भयावह घटना पिछले साल बिल्किस बानो के 11 बलात्कारियों व उसके परिवार के हत्यारों की रिहाई थी, जिसमे केंद्रीय गृह मंत्रालय ने सीबीआई कोर्ट के विरोध को धता बताते हुए ‘‘अच्छे व्यवहार’’ के आधार पर उन्हें समय से पूर्व छोड़ देने की मंजूरी दे दी। विश्व हिंदू परिषद कार्यालय पर उनका मिठाइयों और फूल-मालाओं के साथ स्वागत किया गया। निराश-हताश बिल्किस को सर्वोच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाना पड़ा।

दूसरी ओर, धर्म की आड़ में यौन उत्पीड़न करने वाला व हत्यारा गुरमीत राम रहीम जब 40 दिन के पेरोल पर रिहा होता है, उसका भव्य स्वागत होता है। राम रहीम को हर बार बड़ी आसानी से परोल पर रिहाई मिल जाती है जबकि आम तौर पर यह आसान नहीं होता। इतना ही नहीं, भाजपा के कई बड़े नेता उसका आर्शीवाद लेने पहुंच जाते हैं। शायद इसलिए कि उसे हिंदू वोट का एक बड़ा ठेकेदार समझा जाता है। कुल मिलाकर बलात्कारी, हत्यारे और बाहुबलियों का मनोबल बढ़ा हुआ है क्योंकि जिन्हें सत्ता की भूख है वे जाति, धर्म और अपाराध के ठेकेदारों की मदद से अपने वोट बैंक तैयार करते हैं।

महिलाओं पर महंगाई की मार भी

आज महंगाई की मार भी सबसे अधिक महिलाओं पर पड़ रही है जब गैस 1200 रुपए में मिल रहा है, सरसों तेल 200 रुपए प्रति लीटर है और अरहर दाल 150 रुपए प्रति किलो। प्रधानमंत्री उज्जवला योजना भी गरीब औरतों की आंखों में धूल झोंककर उनके वोट लेने में सफल रही। बीपीएल परिवार को (उज्जवला योजना के तहत) गैस कनेक्शन एक बार मिल गया। पर 2021 में देखा गया कि खाना पकाने के लिए इस्तेमाल किये जाने वाले एलपीजी गैस के सिलिंडरों पर कपड़े सुखाए जा रहे हैं।

कारण है कि 2021-22 में महंगाई के चलते साल में अधिकतम 4 सिलिंडर गैस भरवाए जा सके। कई परिवारों ने तो एक ही बार सिलिंडर भरवाई। नतीजा है कि औरतों को गैस चूल्हा होने के बावजूद लकड़ी और उपले जलाने पड़ रहे हैं और धुएं में भोजन पकाना पड़ रहा है। इतनी महंगाई है कि यदि कोई गृहिणी अपने बच्चों को अच्छा खिलाना-पिलाना चाहे और अच्छी शिक्षा दिलाना चाहे तो उसे अपना पेट काटना ही पड़ता है।

आधी आबादी की मुश्किलें बढ़ीं

सरकार आधी आबादी के लिए कितनी चिंतित है इस बात से पता चलता है कि महिला एवं बाल विकास विभाग का बजट पिछले वित्त वर्ष की तुलना में केवल 267 करोड़ बढ़ाया गया है, जबकि महिलाओं के पोषण, शिक्षा और रोज़गार के लिए यह बिल्कुल अपर्याप्त है। फिर, श्रम शक्ति में महिलाओं की हिस्सेदारी भी लगातार गिरती जा रही है, जिस वजह से महिलाओं का सशक्तिकरण एक मृग-मरीचिका बन गया है।

दूसरी ओर राजनीति के अपराधीकरण के चलते महिलाओं के लिए राजनीतिक स्पेस भी संकुचित होता जा रहा है। ऐसोसिएशन फॉर डेमोक्रैटिक रिफॉर्म के अनुसार कर्नाटक चुनाव में इस बार 22 प्रतिशत प्रत्याशियों के विरुद्ध अपराधिक मुकदमे हैं, जो कि पिछली बार से 7 प्रतिशत अधिक है। 42 प्रतिशत प्रत्याशी करोड़पति हैं। यह भी पिछली बार से 7 प्रतिशत अधिक है। महिला प्रत्याशियों की संख्या 1 प्रतिशत घटकर 7 प्रतिशत रह गई है।

हम जानते हैं कि जैसे-जैसे अपराध और पैसों का बोलबाला बढ़ेगा, महिलाओं के लिए राजनीति के क्षेत्र में पांव जमाना मुश्किल होता जाएगा। पर आज सत्तधारी दल और विपक्ष भी महिला आरक्षण की बात करना बंद कर चुके हैं। इस मुद्दे पर वाम दलों के महिला संगठनों ने भी चुप्पी साध ली है। कारण वे ही बेहतर जानते होंगे।

लेकिन समझ में यही नहीं आता कि देश भर की प्रगतिवादी महिलाएं और उनके संगठन भाजपा की विचारधारा पर वार न करके क्यों घटनाओं के पीछे चल रहे हैं? महिला संसद सदस्यों का जहां जंतर-मंतर पर लगातार दौरा लगना चाहिये, वे मौन हैं। यह चिंता की बात है कि देश के शीर्ष पदों पर बैठी ये महिलाएं सामने आने से कतरा रही हैं। तब क्या हम उम्मीद करें कि कुछ गिरफ्तारियां होने से, किसी मंत्री या एमएलए के इस्तीफा देने से, महिलाओं को विधान सभाओं और संसद में चंद सीटें मिलने से और कानून सख्त कर देने से देश में महिलाओं के लिए माहौल बदल जाएगा? हरगिज़ नहीं! हमें लगातार और पीछे धकेल दिया जा रहा है।

2024 के लोकसभा चुनाव से पहले एक देशव्यापी अभियान चलाना होगा जो दक्षिणपंथी, महिला-विरोधी, बलात्कारी संस्कृति का नाश कर सके।

(कुमुदिनी पति महिला अधिकार कार्यकर्ता और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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