कहा जाता है कि राजनीति संभावनाओं का खेल है, लेकिन परिवर्तनकामी राजनीति के लिए जो वैचारिक, सांस्कृतिक और सामाजिक जमीन तैयार की जाती है वह संभावनाओं का खेल नहीं होती बल्कि उसे एक स्पष्ट दूरगामी लक्ष्य और मजबूत रणनीति के साथ तैयार किया जाता है। इसलिए राजनीति को परस्पर विरोधाभासों को साधने की कला भी कह सकते हैं। मगर जब यह वैचारिक, सांस्कृतिक और सामाजिक जमीन कमजोर पड़ने लगती है तो उस पर खड़ी राजनीति का अस्तित्व भी खतरे में पड़ जाता है।
इस संदर्भ में उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी बसपा की मौजूदा राजनीति को देखा जा सकता है। कांसीराम के बहुजन आंदोलन ने दलित और पिछडे वर्गों यानी बहुजन समाज के लिए 1980 के दशक में बड़ी मेहनत और हिकमत से उम्मीदों की जो नई खिड़की खोली थी, वह पिछले कुछ वर्षों से बंद होती दिख रही है।
उत्तर प्रदेश विधानसभा के पिछले चुनाव में भाजपा के समक्ष परोक्ष रूप से समर्पण कर चुकीं बसपा सुप्रीमो मायावती अब उन राजनीतिक नारों और मुहावरों से पीछा छुडाते हुए दिख रही हैं, जिनके सहारे वे उत्तर भारत में दलितों और अति पिछड़े वर्गों यानी बहुजन समाज की शीर्ष नेता और देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश की चार बार मुख्यमंत्री बनीं।
यही नहीं, उन्हीं नारों के दम पर उन्होंने एक समय देश की प्रधानमंत्री बनने का सपना भी देखा था। अब वे उन नारों को लेकर सफाई दे रही हैं। वे कह रही हैं कि उनकी पार्टी ने ये नारे कभी दिए ही नहीं थे, बल्कि समाजवादी पार्टी ने बसपा को बदनाम करने के लिए इन नारों को गढ़ा था और प्रचारित किया था।
मायावती ने बीते बुधवार को तीन ट्विट किए, जिसमें नब्बे के दशक में चर्चित हुए नारों से किनारा करते हुए कहा कि ये नारे समाजवादी पार्टी ने बसपा को बदनाम करने के लिए गढ़े थे। 6 दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद 1993 में हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी और कांसीराम की बहुजन समाज पार्टी के बीच ऐतिहासिक गठबंधन हुआ था और एक नारा खूब चर्चित हुआ था, ‘मिले मुलायम-कांसीराम, हवा में उड गए जय श्रीराम’।
यह नारा खूब रंग लाया था और सपा-बसपा गठबंधन ने बहुमत हासिल कर सरकार बनाई थी। इस नारे का जिक्र करते हुए मायावती ने ट्विट किया कि वास्तव में उत्तर प्रदेश के विकास और जनहित की बजाय जातिद्वेष एवं अनर्गल मुद्दों की राजनीति करना समाजवादी पार्टी का स्वभाव रहा है।
इसके बाद अगले ट्विट में उन्होंने लिखा ‘मान्यवर कांसीराम जी ने मिशनरी भावना के तहत गठबंधन बनाया था लेकिन मुलायम सिंह यादव के गठबंधन का मुख्यमंत्री बनने के बावजूद उनकी नीयत पाक साफ न होकर बसपा को बदनाम करने व दलित उत्पीड़न जारी रखने की रही।’
उनका तीसरा ट्विट था, कि ‘इसी क्रम में अयोध्या, श्रीराम मंदिर व अपरकास्ट समाज आदि से संबंधित जिन नारों को प्रचारित किया गया था वे बसपा को बदनाम करने की सपा की शरारत और सोची समझी साजिश थी। अंत: सपा की ऐसी हरकतों से खासकर दलित, अन्य पिछड़ों और मुस्लिम समाज को सावधान रहने की सख्त जरूरत है।’
सवाल है कि मायावती अब जो कह रही हैं, अगर वह सही है तो उन्होंने या कांसीराम ने उस समय ही इन नारों का विरोध क्यों नहीं किया? उन्होंने बसपा के कार्यकर्ताओं को इस तरह के नारे लगाने से क्यों नहीं रोका? जाहिर है उस समय उनके लिए ये नारे फायदेमंद साबित हो रहे थे, इसलिए इन्हें अपनाया गया और अब जबकि मायावती को अपनी निजी मजबूरियों के चलते भाजपा के आगे समर्पण करना पड़ रहा है तो वे इन नारों से पीछा छुड़ा रही हैं।
नब्बे के दशक में बसपा की विकास यात्रा शुरू हुई थी और उस दौरान अगड़ी जातियों को लेकर उसका एक नारा चर्चित रहा था- ”तिलक, तराजू और तलवार इनको मारो जूते चार’’। इसके अलावा उसके अन्य शुरुआती नारे थे, ‘वोट हमारा, राज तुम्हारा, नहीं चलेगा, नहीं चलेगा’; ‘वोट से लेंगे पीएम/सीएम, आरक्षण से लेंगे एसपी/डीएम’; ‘ठाकुर, ब्राह्मण, बनिया छोड़, बाकी सब हैं डीएस-फोर’ आदि। इन नारों ने सदियों से दमित-शोषित बहुजनों में बसपा की राजनीति के प्रति आकर्षण पैदा किया था।
जैसे-जैसे बसपा की राजनीतिक विकास यात्रा बढ़ती गई, तो राजनीतिक समीकरणों के साथ-साथ नारे भी बदलते गए। जैसे- ‘बनिया माफ, ठाकुर हाफ, ब्राह्मण साफ’ और ‘हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा-विष्णु-महेश है’। फिर, ‘ब्राह्मण शंख बजाएगा, हाथी दिल्ली जाएगा’। ऐसे ही बदलते सामाजिक समीकरणों और नारों के साथ बसपा तेजी से अपना जनाधार बढ़ाती गई।
पहले उसने समाजवादी पार्टी के साथ उत्तर प्रदेश की सत्ता में भागीदारी की। लेकिन यह ऐतिहासिक प्रयोग ज्यादा दिन नहीं चल पाया। इसी बीच कांसीराम को गंभीर बीमारियों ने जकड़ लिया और वे स्मृतिदोष के शिकार हो गए, जिसकी वजह से बसपा के संचालन-सूत्र पूरी तरह मायावती के हाथों में आ गए।
उन्होंने 1995, 1997 और 2002 में भाजपा के समर्थन से अपनी सरकार बनाई। हालांकि तीनों बार उनकी सरकार को गिराने का काम भी भाजपा ने ही किया। इस बीच अन्य हिंदी भाषी राज्यों में भी बसपा ने आंशिक कामयाबी दर्ज की। नए सामाजिक समीकरण साधते हुए 2007 के विधानसभा चुनाव में बसपा ने पहली बार पूर्ण बहुमत हासिल कर सरकार बनाई जो पूरे पांच साल चली। उसके बाद बसपा का जनाधार लगातार सिकुड़ता गया और हालत यह हो गई कि 2022 के विधानसभा चुनाव में वह महज एक ही सीट जीत पाई।
अब न तो ब्राह्मण बसपा के लिए शंख बजा रहा है और हाथी में दिल्ली तो क्या लखनऊ जाने की ताकत भी नहीं दिख रही है। बसपा ने दलित और अति पिछड़ी जातियों का जो वोट बैंक कांग्रेस से छीना था, उसका भी बहुत बड़ा हिस्सा भाजपा ने झटक लिया है। कुछ अति पिछड़ी जातियों को समाजवादी पार्टी अपने साथ जोड़ने में कामयाब रही है। मुस्लिम समुदाय तो बसपा से बहुत पहले ही दूर हो चुका है।
अब मायावती कह रही हैं कि बसपा के नाम से अपरकास्ट विरोधी नारे भी सपा ने गढ़े थे और प्रचारित किए थे। बहरहाल, उन्होंने जिस अंदाज में एक के बाद एक तीन ट्विट करके धर्म और जाति आधारित राजनीतिक नारों से पीछा छुड़ाया है उससे लग रहा है कि वे अब पूरी तरह से भाजपा की लाइन पर राजनीति कर रही है। हालांकि यह कहना मुश्किल है कि वे इस लाइन पर राजनीति करके अपनी पार्टी के लिए सफलता की उम्मीद कर रही हैं या भाजपा के कहने पर ऐसा कर रही हैं। दोनों ही बातें भी हो सकती हैं।
भाजपा के लिए अभी जरूरी हो गया है कि वह समाजवादी पार्टी को हिंदू विरोधी साबित करे। समाजवादी पार्टी के कुछ नेता रामचरितमानस पर बेसिरपैर के बयान देकर खुद भी जाने-अनजाने भाजपा की मनोकामना पूरी करने में मदद करते दिख रहे हैं। अब मायावती ने जिस तरह भाजपा की तर्ज पर सपा को निशाना बनाया है, उससे उनकी पार्टी का बचा-खुचा मुस्लिम वोट भी उनके हाथ से निकलेगा। दलित वोट टूट ही रहा है। अगड़ी जातियों के वोट बसपा को मिले, इसकी कोई वजह दिखाई नहीं देती।
ऐसी स्थिति में जैसे-जैसे लोकसभा के चुनाव नजदीक आ रहे हैं, बसपा के नेताओं की बेचैनी बढ़ रही है। वे समझ नहीं पा रहे हैं कि उनकी पार्टी क्या करेगी और उन्हें क्या करना चाहिए। दरअसल बसपा नेताओं खास कर पार्टी के सांसदों की परेशानी विधानसभा चुनाव के समय से बढ़ी हुई है। विधानसभा चुनाव में पार्टी पूरी तरह निष्क्रिय हो गई थी, जिसका नतीजा यह रहा कि चार बार सत्ता में रही पार्टी महज एक ही सीट जीत पाई।
बसपा की स्थापना के बाद उसका यह सबसे दयनीय प्रदर्शन रहा। बसपा ने निष्क्रिय रह कर न सिर्फ विधानसभा चुनाव में भाजपा की परोक्ष मदद की बल्कि उसके बाद सूबे में लोकसभा और विधानसभा के हुए सभी उपचुनावों में भी अपनी उस भूमिका को दोहराया।
इसीलिए पार्टी के सांसदों को चिंता सता रही है कि अगर लोकसभा चुनाव भी पार्टी ने इसी तरह लड़ा और पार्टी की नेता पूरी तरह निष्क्रिय बनी रहीं तो उनका क्या होगा? उन्हें लग रहा है कि भाजपा और सपा गठबंधन के सीधे मुकाबले में विधानसभा की तरह लोकसभा चुनाव में भी बसपा साफ हो जाएगी।
इसी आशंका के चलते बसपा के सांसद नया राजनीतिक ठौर तलाशने में जुट गए हैं। समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन के चलते जीते पार्टी के सभी 10 सांसदों को अगली बार बसपा के साथ रह कर जीतना मुश्किल लग रहा है, इसलिए वे समाजवादी पार्टी या भाजपा की ओर देख रहे हैं।
कुल मिला कर सच यही है कि जिस बहुजन आंदोलन और उसकी राजनीति का सपना कांशीराम ने हकीकत में बदला था और देश के दलित और वंचित तबकों में राजनीतिक चेतना पैदा हुई थी, वह आज गहरी निराशा और बिखराव के रास्ते पर है।
(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं)