महाराष्ट्र के वरिष्ठ नेता शरद पवार ने जब अडानी मामले की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति के गठन की विपक्ष की मांग को लेकर अपनी आपत्ति जताई तो उर्दू शायर शकील बदायूनी की मशहूर गजल ‘मेरे हम-नफस मेरे हम-नवा मुझे दोस्त बन के दगा न दे’ की पंक्तियां याद आ गईं कि ‘मेरा अज्म (इरादा) इतना बुलंद है कि पराए शोलों का डर नहीं/ मुझे खौफ आतिश-ए-गुल से है ये कहीं चमन को जला न दे’। अभी कांग्रेस के अडानी विरोधी अभियान की हालत ऐसी ही है। उसे बाहर से आ रही लपटों (पराए शोलों) से नहीं बल्कि अपने बगीचे के फूलों से निकलती आग (आतिश-ए-गुल) से ही डर है।
पवार के बयान ने साबित कर दिया कि देश की राजनीति अब कॉरपोरेट संचालित कर रहा है। यह पहले की स्थिति से अलग है जब राजनीतिज्ञ उद्योगपति का इस्तेमाल करते थे और लोग पूछते थे कि किस राजनीतिज्ञ का करीबी कौन उद्योगपति है। अब स्थिति उलट गई है। अब चर्चा होती है कौन राजनीतिज्ञ किस उद्योगपति के लिए काम कर रहा है।
शायद देश में पहली बार हुआ है कि किसी उद्योगपति को बचाने में न केवल पूरा तंत्र जुट गया बल्कि विपक्ष भी लाचार महसूस करता है क्योंकि इसमें शामिल कई पार्टियां पूरी ताकत से अडानी के विरोध में खड़े होने के लिए तैयार नहीं हैं। यही हाल पवार का है। उन्होंने साफ कर दिया है कि वह विपक्ष की मुहिम से अलग तो नहीं होंगे, लेकिन मुद्दे से सहमत नहीं हैं।
लेकिन पवार जिस तरह खुल कर अडानी के समर्थन में आए वह काबिले-गौर है। उन्होंने अडानी की हेराफेरी पर हिंडनबर्ग की रिपोर्ट को पूरी तरह खारिज कर दिया है। उनका कहना है कि सुप्रीम कोर्ट ने जो जांच समिति बनाई है उसी से अडानी की जांच हो जाएगी। सच्चाई यह है कि सुप्रीम कोर्ट की जांच सिर्फ शेयरों के दाम को बनावटी तरीके से चढ़ाने-गिराने से संबंधित है। यह कमेटी केवल यह जांच करेगी कि अडानी ने शेयरधारकों को कैसे झासा दिया और इसमें कानूनों का उल्लंघन किया। यह अडानी के कारनामों का एक मामूली हिस्सा है।
राहुल गांधी जो आरोप लगा रहे हैं वह सिर्फ शेयर बाजार के दायरे तक सीमित नहीं है। यह एक यार पूंजीपति को मदद देने का मामला भी नहीं है। इसमें सर्वोच्च पद पर बैठे व्यक्ति की ओर से देश की संपत्ति लुटाने, इसकी सुरक्षा को खतरे में डालने तथा पद की गरिमा गिराने का आरोप है। अडानी के व्यापार में लगी फर्जी कंपनियों के पैसे कहां से आए हैं और इसके जरिए देश की अर्थव्यवस्था का कितना नुकसान हुआ है, विपक्ष की मांग में यह सब शामिल है।
अडानी को हवाई अड्डे तथा बंदरगाह सौंपने में नियमों का उल्लंघन हुआ है और इसमें किन-किन लोगों ने मदद की। राहुल गांधी यह भी मांग कर रहे हैं कि उन कंपनियों को रक्षा से जुड़े काम कैसे दिए गए हैं जिनमें विदेशी और संदिग्ध पैसे लगे हैं।
इसमें शक की कोई गुंजाइश नहीं है कि पवार ने अडानी को खुला समर्थन दिया है। वैसे समय में जब मोदी सरकार को भी अडानी को खुला समर्थन देने की हिम्मत नहीं हो रही थी, तो पवार ने विपक्ष के आरोपों को खारिज करने की कोशिश की। शुरू में भाजपा ने भी कोशिश की थी कि हिंडनबर्ग की रिपोर्ट को राष्ट्र के खिलाफ साजिश बताया जाए। लेकिन जल्द ही वह समझ गई कि यह कहानी नहीं चलेगी।
कांग्रेस ने तथ्यों के आधार पर घोटाले के विभिन्न पक्षों को सामने लाना जारी रखा। पवार ने वास्तव में भाजपा की इसी कहानी को अलग तरीके से दोहराया है कि हिंडनबर्ग की रिपोर्ट देश के खिलाफ एक साजिश है। उन्होंने अडानी और अंबानी की तुलना टाटा और बिड़ला से कर दी और यह बताया कि वे देश की तरक्की में महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं। उनके इस तर्क का विश्लेषण जरूरी है क्योंकि इसमें भारतीय अर्थव्यवस्था की यात्रा का राज छिपा है। टाटा और बिड़ला का इतिहास राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ा है।
ब्रिटिश उपनिवेशवाद का यह एक अभिन्न हिस्सा था कि भारत में कल-कारखानों को नहीं लगने दिया जाए। अफ्रीका और एशिया के बाकी मुल्कों से भारत तथा चीन इस मामले में अलग थे कि जब वे आजाद थे तो दोनों मिल कर दुनिया के कुल उत्पादन का आधा हिस्सा उत्पादित करते थे। उपनिवेशवाद ने इन दो मुल्कों में उत्पादन बंद करा दिए और इन्हें पराश्रित बना दिया। उन्हें विदेशों को तैयार साामान भेजने वाले देश से बाहर से सामान मंगाने वाले देश में तब्दील कर दिया।
चीन को अफीमची बनाया और भारत को बेरोजगार तथा भुख्खड़ों का देश बना दिया। दुनिया भर को कपड़ा पहनाने वाला भारत कपड़े का आयात करने लगा। उद्योगों से बाहर हुए लोग खेतों में मजदूर बन गए और एक विशाल जनसंख्या अंग्रेजों के साए में पलने वाले जमींदारों के भयानक शोषण का शिकार हो गई।
आजादी के आंदोलन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा यह भी था कि देश में कल-कारखाने खुलें और भारत भी एक उत्पादक देश बने। यह काम इतना आसान नहीं था और इसके लिए भारतीय उद्योगपतियों को संघर्ष और समझौता दोनों करना पड़ता था। आजादी के आंदोलन के जरिए वे दबाव भी बनाते थे और अंग्रेजों के साथ वफादारी भी दिखाते थे। जब भी आजादी का आंदोलन तेज होता था तो वे अंग्रेजों से समझौते की वकालत करने लगते थे और उनके पक्ष में खड़े हो जाते थे। हालांकि जमनालाल बजाज जैसे कुछ उद्योगपति भी थे जो आजादी के आंदोलन के साथ तन-मन-धन से लगे रहे। टाटा और बिड़ला को भारत के औद्योगीकरण की कोशिशों से अलग नहीं देखा जा सकता है।
आजादी के बाद जब सरकारी तथा निजी पूंजी को साथ लेकर देश के औद्योगीकरण की नीति प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने बनाई तो जल, जंगल, जमीन तथा टेक्नोलॉजी के उपयोग की एक साफ नीति थी। सड़क, बांध, सिंचाई, बिजली और रक्षा उपकरणों का उत्पादन जैसे काम सरकारी क्षेत्रों के जिम्मे रखा गया ताकि लोगों की जरूरी सुविधाएं तथा देश की रक्षा को फायदा कमाने वालों के भरासे नहीं रखा जाए। देश में उद्योगों की तरक्की में पूंजीपतियों के योगदान को स्वीकार किया गया, लेकिन उनकी सीमा तय कर दी गई। लोगों को यह ध्यान रखना चाहिए कि टाटा, बिड़ला को उन कामों को करने की अनुमति नहीं थी जो घरेलू तथा मझौले उद्योग कर सकते थे।
टाटा-बिड़ला तथा अडानी-अंबानी में फर्क को समझना होगा कि भारत के औद्योगीकरण में पहले का ऐतिहसिक योगदान है। लोगों को यह भी समझना चाहिए कि जहां भी देशहित में इनके राष्ट्रीयकरण की जरूरत महसूस हुई इसे किया गया। बीमा निगमों, एयर इंडिया, बैंकों का राष्ट्रीयकरण इसके उदाहरण हैं। पूंजीपतियों ने इसका जमकर विरोध किया था। अडानी-अंबानी की तरक्की देश के संसाधनों की लूट और लोगों की पूंजी की लूट की कहानी कहते हैं।
प्रधानमंत्री नरसिंहा राव के नेतृत्व में प्राइवेट क्षेत्र को छूट देने के नाम पर देश की सपत्ति लूटने देने का अभियान शुरू हुआ। अंबानी के कपड़ा उद्योग ने देश में लाखों लोगों को काम देने वाले हैंडलूम और पवरलूम बंद कराए हैं। बाद के वर्षो में उन्हें तेल, गैस तथा अन्य संसाधनों की लूट का लाइसेंस मिल गया। धीरे-धीरे उन्होंने उन उद्योगों तथा कारोबार को भी अपने कब्जे में ले लिया जिससे लाखों को रोजगार मिलता था और पूंजी गांव तथा छोटे शहरों में रहती थी। सब्जी तथा घरेलू सामान बेचने के रिलायंस फ्रेश जैसे कारोबार ऐसे ही हैं।
अडानी तो अंबानी से भी आगे निकल गए। उन्होंने गांव-गांव में पेराई होने वाले तेल के उत्पादन का काम ले लिया है। सरकारी पैसे से बने हवाई अड्डे तथा बंदरगाह उसे सौंप दिए गए हैं। उसकी डूबती कंपनियों में जीवन बीमा निगम और सरकारी बैंकों ने अपार धन लगा रखा है। हिंडनबर्ग की रिपोर्ट आने के बाद भी इसे रोकने का फैसला नहीं हुआ है। इसमें पेंशन फंड का पैसा भी लगा है। सड़क, बिजली, पानी, हवाई अड्डा और बंदरगाह उसके हाथों में जा चुके हैं।
क्या पवार यह सब नहीं जानते? क्या वजह है कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी संयुक्त संसदीय समिति के खिलाफ हैं? पवार के इस तर्क में कोई दम नहीं है कि संसदीय समिति में बहुमत सत्ता पक्ष का होता है। महत्वपूर्ण यह है कि घोटाले का हर पहलू लोगों के सामने आए। यह काम सिर्फ संसदीय समिति से हो सकता है क्योंकि यह समिति किसी भी दस्तावेज को मंगा सकती है और किसी भी अधिकारी या मंत्री को पेश होने के लिए कह सकती है।
राहुल गांधी तथा कांग्रेस को इस बात की दाद देनी पड़ेगी कि अडानी के मुद्दे को कमजोर करने की पवार समेत अन्य विपक्षी नेताओं के सामने झुकने के लिए वो तैयार नहीं हुए। संभव है उनकी पार्टी के भी कुछ लोग उनका साथ छोड़ दें। अडानी को मिल रहा खुला या छिपा समर्थन यही दिखा रहा है कि देश की राजनीति किस तरह कॉरपोरेट के हाथों में जा चुकी है।
(अनिल सिन्हा वरिष्ठ पत्रकार हैं)