कल संघ प्रमुख मोहन भागवत ने गांधी को लेकर न केवल बयान दिया है बल्कि उन्होंने गांधी स्मृति जाकर बापू की मूर्ति के सामने अपना मत्था भी टेका है। उसकी तस्वारें देश के सभी मीडिया प्लेटफार्मों पर नुमाया हैं। इस प्रकरण को देख और सुन कर लोगों की भौंहें चढ़नी स्वाभाविक हैं। आज तक तो कोई सरसंघचालक गांधी के सामने इस तरह से अपना सिर नहीं झुकाया। न ही उसको कभी इसकी जरूरत पड़ी। आखिर जिस संगठन पर उनकी हत्या का आरोप लग चुका हो उसके किसी प्रतिनिधि से उनका क्या लेना-देना हो सकता है। इस मामले में देश के पहले गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल की बात इतिहास में दर्ज हो चुकी है जिसे उन्होंने अपने पत्र के जरिये जाहिर किया था। उन्होंने कहा था कि संघ द्वारा देश में गांधी जी के खिलाफ बनाया गया माहौल भी उनकी हत्या के लिए जिम्मेदार है।
अनायास नहीं गांधी की हत्या के समय जब पूरा देश आंसू बहा रहा था तो संघ के दफ्तरों में मिठाइयां बंट रहीं थीं।
आज भी जब संघ के पालने में पला एक स्वयंसेवक देश की शीर्ष सत्ता पर है और पूरे देश में गांधी बनाम गोडसे हो रहा है। तथा संघ और उसके अनुषांगिक संगठन पूरी ताकत से इसको हवा देने में लगे हैं। तब भला संघ को गांधी की क्या जरूरत आन पड़ी? अनायास नहीं देश भर में जगह-जगह गांधी की मूर्तियां तोड़ी जा रही हैं और उन्हें अपमानित करने का कोई भी मौका नहीं छोड़ा जा रहा है। इस मामले में संघ से लेकर सरकार तक सभी शामिल हैं। गांधी का 150वां जयंती वर्ष चल रहा है लेकिन सरकारी आयोजनों से लेकर नामकरण तक में दीन दयाल उपाध्याय और श्यामा प्रसाद मुखर्जियों की धूम है। नाम रखने के लिए शौचालय बचे हैं वह कभी कस्तूरबा के नाम कर दिया जाता है तो कहीं गांधी के हवाले। अब इसे सम्मान कहें या अपमान किसी के लिए समझ पाना मुश्किल है।
बहरहाल अब मूल विषय पर आते हैं जो बयान के तौर पर सामने आया है। उन्होंने कहा कि गांधी भी कई बार खुद को कट्टर हिंदू कहे हैं। आखिर अपनी हिंदुत्व की राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए भागवत को उस समय गांधी की माला क्यों जपनी पड़ रही है जब उनका अभियान अपने परवान पर है। दरअसल नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ देश में आये उबाल से संघ और सरकार हतप्रभ हैं। उन्हें इस बात की कत्तई उम्मीद नहीं थी कि इसके खिलाफ इस स्तर का विरोध खड़ा हो जाएगा। जिस तरह से तमाम हमलों को अल्पसंख्यक समुदाय के लोग सिर झुका कर सहते रहे। वह तीन तलाक हो या कि बाबरी मस्जिद, धारा 370 हो या कि लिंचिंग सभी मामलों पूरा समुदाय चुप रहा।
उसने संघ-बीजेपी को नया हौसला दे दिया था। लेकिन अब जब कि समुदाय के अपने वजूद पर ही खतरा आ गया तो उन लोगों ने सपरिवार घरों से निकलने का फैसला कर लिया। और कमान महिलाओं ने संभाल ली। वैसे भी बच्चों की जिंदगी की फिक्र मांएं ज्यदा करती हैं।और संवेदनशीलता के मामले में भी वह पुरुषों से कहीं आगे खड़ी होती हैं। लिहाजा इस कानून ने सबसे ज्यादा प्रभावित उसी हिस्से को किया है। अब जबकि यह आंदोलन पूरे समाज और देश का आंदोलन बनता जा रहा है और उसमें बेरोजगारी और महंगाई के साथ-साथ जीवन के दूसरे सवाल जुड़ते जा रहे हैं और इस कड़ी में यह एक व्यापक स्वरूप ग्रहण करता जा रहा है। तब संघ के हाथ-पांव फूल गए हैं।
इस पूरे आंदोलन में अगर संविधान और उसके चलते अंबेडकर सामने आए हैं तो बापू इसका सर्वमान्य चेहरा बन गए हैं। वह आंदोलन को शांतिपूर्ण तरीके से चलाने का मामला हो या फिर जगह-जगह सत्याग्रह और अनशन का कार्यक्रम। महात्मा गांधी को ही रोजाना याद किया जा रहा है। वह गांधी जिसे लोगों ने अप्रासंगिक करार दे दिया था आज अपनी पूरी पहचान और वजूद के साथ जिंदा हो गया है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि केंद्र में मोदी सरकार के आने के साथ ही गोडसेवादियों के पौ बारह हो गए थे। जगह-जगह गांधी की तस्वीरों पर गोलियां मारी जा रही थी और गोडसे का महिमामंडन किया जा रहा था। गांधी से सनातन दुश्मनी रखने वाले इस हिस्से को लग रहा है था कि वह बहुत जल्द ही उन्हें सात कब्रों के भीतर दफ्न कर देगा और लोगों की जेहनियत से भी उनको साफ कर देगा। लेकिन हुआ उसका ठीक उल्टा।
आज गांधी घर-घर में हर शख्स द्वारा याद किए जा रहे हैं। और हालात यह हैं कि अगर गांधी बनाम गोडसे हो गया और तो उसमें संघ की 100 सालों की करी-करायी मेहनत पर पानी फिर जाएगा। क्योंकि तब एक तरफ पूरा समाज गांधी के साथ होगा और दूसरी तरफ गोडसे के साथ संघ और उसके समर्थक होंगे। इस तरह से संघ के एकबारगी खारिज होने का खतरा पैदा हो गया है। क्योंकि अभी भी देश गोडसे के साथ खड़ा होने के लिए तैयार नहीं है। लिहाजा भागवत किसी सदिच्छा से गांधी की शरण में नहीं गए हैं। यह उनके अपने वजूद पर खतरे की घंटी है जिसे वह गांधी के पर्दे की आड़ में छुपकर टालना चाह रहे हैं। क्या अजीब विडंबना है उनकी हत्या के लिए जिम्मेदार संगठन को भी अपने वजूद की रक्षा के लिए उनका ही सहारा लेना पड़ रहा है।
लेकिन इससे किसी को भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि संघ किसी भी रूप में अपने कदम पीछे खींचने जा रहा है। यह इस समय की उसकी तात्कालिक जरूरत है। वैसे भी संघ के खून भरे हाथ अहिंसा के पुजारी गांधी से दूर ही रहने चाहिए। भागवत को यह नहीं भूलना चाहिए कि अगर गांधी खुद को सनातन बोलते थे तो उसी के साथ वह ईश्वर-अल्लाह तेरो नाम का गीत भी गाते थे। पीएम मोदी झूठ के सागर हैं। उनकी यह बात कि वह सीएए के जरिये गांधी की इच्छा पूरी कर रहे हैं। अर्धसत्य है। पूरा सच यह है कि उत्पीड़ित हिंदुओं के लिए तो उन्होंने भारत का दरवाजा खोलने की बात कही ही थी मुस्लिम समुदाय के उत्पीड़ित हिस्से के लिए भी उनका यही स्टैंड था।
बताया तो यहां तक जाता है कि आजादी के बाद सांप्रदायिक माहौल के दुरुस्त होने पर वह खुद पाकिस्तान की यात्रा करने वाले थे और यहां से गए मुसलमानों को अपने साथ वापस लाने की योजना बना रहे थे। संघ को यह नहीं भूलना चाहिए कि उसके स्वयंसेवक जिन मुसलमानों का खून बहाना चाहते हैं गांधी उनकी जान बचाने के लिए अपनी कुर्बानी तक देने के लिए तैयार थे। और उन्होंने यही किया भी। गांधी कभी भी धर्म और राजनीति का घालमेल नहीं चाहते थे।
उनका साफ मानना था कि दोनों का स्थान अलग-अलग है। लिहाजा वह एक सेकुलर स्टेट के खुले समर्थक थे। और हिंदू राष्ट्र की किसी अवधारणा से उनका दूर-दूर तक कुछ लेना-देना नहीं था। मुस्लिम लीग, संघ, हिंदू महासभा और सावरकर अगर द्विराष्ट्र सिद्धांत के मूल प्रतिपादक थे तो गांधी ने अपनी लाश पर बंटवारे की बात कही थी। गांधी अगर सत्य और अहिंसा के पुजारी हैं तो संघ झूठ और हिंसा को सबसे बड़े हथियार के तौर पर देखता है। लिहाजा दोनों में कहीं दूर-दूर तक कोई तालमेल नहीं है। इस बात में कोई शक नहीं कि गांधी सच्चे मायने में हिंदू धर्म का प्रतिनिधित्व करते हैं। जबकि संघ जिस हिंदुत्व की बात करता है वह धर्म के अलावा कुछ भी हो सकता है। नहीं तो भला हिंदू धर्म के किस जमाने में पैंट-शर्ट और वह भी हाफ पैंट पहना जाता था। सिर पर पगड़ी की जगह काली वेस्टर्न टोपी लगायी जाती थी।
हालांकि दूर की ही सही भागवत की इस पहल के पीछे एक दूसरी संभावना भी देखी जा सकती है। क्या पता गांधी जी की भौतिक मौत के बाद अब उनके वैचारिक खात्मे का अभियान छेड़ने से पहले संघ प्रमुख ने यह मत्था टेका हो। ठीक उसी तर्ज पर जैसे गोडसे ने गोली मारने से पहले बापू को सिर झुका कर प्रणाम किया था। इस मामले में गांधी की समाधि राजघाट की जगह गांधी की हत्या के स्थान गांधी स्मृति पर उनका जाना भी बेहद सांकेतिक है। इसके साथ ही इसके पीछे अपने कट्टर हिंदुत्व के लिए गांधी को इस्तेमाल करने की संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता है।
(महेंद्र मिश्र जनचौक के संपादक हैं।)
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