Tuesday, April 23, 2024

क्या इस बार कर्नाटक देश को रास्ता दिखायेगा?

एक जमाने में हमारी राजनीति में बहुत लोकप्रिय जुमला बना था-‘बिहार शोज द वे!’ यानी बिहार रास्ता दिखाता है। इमरजेंसी-विरोधी जन-आंदोलन तक यह जुमला चलता रहा। क्या आज के दौर की राजनीति को कर्नाटक रास्ता दिखायेगा? क्या 13 मई के बाद इस देश में नया लोकप्रिय जुमला बनकर उभरेगा-‘कर्नाटक शोज द वे!’ सिर्फ ‘एक्जिट पोल’ के नतीजों के चलते मैं यह सवाल नहीं उठा रहा हूं। 10 मई की शाम कर्नाटक में हुए मतदान के बाद जितनी प्रमुख सर्वेक्षण-कंपनियों ने ‘एक्जिट पोल’ कराया, उनमें सत्तर फीसदी से अधिक नतीजे कांग्रेस की अगुवाई में बहुमत सरकार के गठन की भविष्यवाणी करते नजर आ रहे हैं।

अगर 13 मई को मतगणना के बाद ऐसा ही नतीजा सामने आता है तो निश्चय ही यह सिर्फ कर्नाटक के लिए नहीं, हमारी पूरी राष्ट्रीय राजनीति के लिए बहुत बड़ा घटनाक्रम होगा। सवाल किया जा सकता है कि एक राज्य के चुनावी नतीजे को लेकर मैं ऐसी बात क्यों कह रहा हूं? इसलिए कह रहा हूं कि कर्नाटक का चुनाव सिर्फ कर्नाटक तब सीमित नहीं रह गया था। यह राष्ट्रीय चुनाव बन गया था। लग रहा था मानो पार्लियामेंट के चुनाव का रिहर्सल हो रहा हो!

इस चुनाव को सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी की तरफ से वहां के मुख्यमंत्री वासवराज बोम्मई, वरिष्ठ पार्टी नेता बी एल संतोष, प्रह्लाद जोशी, येदियुरप्पा या ईश्वरप्पा नहीं, स्वयं देश के प्रधानमंत्री और भाजपा के सबसे बड़े नेता नरेंद्र दामोदरदास मोदी लड़ रहे थे। गृह मंत्री अमित शाह और दर्जन भर अन्य बड़े केंद्रीय नेता प्रधानमंत्री का साथ दे रहे थे। इस मायने में यह सचमुच एक विशिष्ट चुनाव था। पीछे के अनेक विधानसभाई चुनावों से भिन्न और विशिष्ट!

इसलिये,कर्नाटक के चुनाव का नतीजा सिर्फ कर्नाटक नहीं, पूरे देश की सियासत को प्रभावित करने जा रहा है। सबसे पहले तो राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और उसके बाद तेलंगाना जैसे राज्यों के विधानसभा चुनावों को प्रभावित करेगा। इन राज्यों में इसी वर्ष चुनाव होने हैं। फिर उसका 2024 के लोकसभा चुनावों पर भी असर होगा। यही कारण है कि कर्नाटक के चुनाव पर पूरे देश की निगाहें लगी हुई हैं।

प्रधानमंत्री मोदी देश के सबसे प्रभावशाली राजनीतिक पदाधिकारी हैं। इतना ज्यादा समय शायद ही कभी किसी अन्य प्रधानमंत्री ने किसी सूबाई चुनाव में लगाया हो। यह मोदी बनाम विपक्ष की लड़ाई बन गयी थी। अगर यह चुनाव भाजपा ने जीता तो निस्संदेह मोदी के समर्थक उन्हें बाद के हर चुनाव, खासकर 2024 के लोकसभा चुनाव में एक अपराजेय नेता के तौर पर पेश करेंगे। लेकिन भाजपा अगर कर्नाटक की लड़ाई हार गयी, जैसा ज्यादातर एक्जिट पोल बता रहे हैं तो बेंगलुरु में सिर्फ कांग्रेस की सरकार ही नहीं बनेगी, पूरे देश में कांग्रेस-नीत विपक्ष को भाजपा से लड़ने की बड़ी ताकत मिलेगी। तब कर्नाटक की जीत से राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी कांग्रेस के हौसले बुलंद दिखेंगे।

कर्नाटक ने कुछेक बार देश के आधुनिक राजनीतिक इतिहास में ऐसी भूमिका निभाई भी है। यहां एक संसदीय उपचुनाव हुआ था-चिकमगलूर का। बात नवम्बर 1978 की है। तब देश में मोरार जी देसाई की अगुवाई में जनता पार्टी की सरकार थी। इमरजेंसी के चलते पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी देश में काफी अलोकप्रिय हो चुकी थीं। लेकिन जनता पार्टी की सरकार अपेक्षा के अनुरूप अच्छा शासन नहीं दे पा रही थी।

इंदिरा गांधी सहित उनके परिवार को काफी सताया भी जा रहा था। धीरे-धीरे इंदिरा गांधी को लोगों की सहानुभूति मिलने लगी। इसी बीच लोकसभा की चिकमगलूर सीट खाली हुई। इंदिरा गांधी के सलाहकारों ने उस समय उन्हें कर्नाटक के चिकमगलूर का वह उपचुनाव लड़ने की सलाह दी। इंदिरा गांधी लड़ गईं और जीत गईं। मोरार जी देसाई की तत्कालीन सरकार के लिए यह बड़ा धक्का था। चिकमगलूर ने देसाई सरकार के समक्ष नया संकट खड़ा कर दिया। पूरे देश में कांग्रेसी उत्साह में आ गये। जनतंत्र बचाने के नाम पर सत्ता में आई मोरार जी सरकार ने कुछ ही दिनों बाद विशेषाधिकार हनन के नाम पर इंदिरा गांधी की संसद सदस्यता खत्म कर दी। ठीक वैसे ही जैसे आज राहुल गांधी की संसद सदस्यता न्यायालय के एक फैसले के बाद खत्म हो चुकी है।

गुजरात स्थित न्यायालय में भारतीय जनता पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने ही याचिका दायर की थी। चिकमगलूर के बाद तब इंदिरा गांधी सड़कों पर निकल पड़ी थीं। उसके कुछ ही महीनों बाद संसदीय चुनाव हुए तो इंदिरा गांधी की अगुवाई में कांग्रेस ने सत्ता में शानदार वापसी की। सन् 1980 में इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी इतिहास की बड़ी घटना बन गयी। कर्नाटक में आज के विधान सभा चुनाव को भी अनेक दिग्गज कांग्रेसी उसी अंदाज में देख रहे हैं। स्वयं पूर्व मुख्यमंत्री सिद्दारमैया ने 10 मई को मतदान के बाद कहा कि कर्नाटक का चुनाव पूरे देश के भविष्य़ के लिए महत्वपूर्ण चुनाव है। यह टर्निंग प्वाइंट बन सकता है।

इस चुनाव में भारतीय जनता पर्टी ने प्रधानमंत्री मोदी की अगुवाई में चुनाव जीतने के वे सारे हथकंडे और फार्मूले अपनाये, जिनके लिए मोदी मशहूर हैं। खूब बड़े-बड़े भव्य रोड-शो निकाले गये। रंग-बिरंगे फूलों से सज्जित मोदी जी की बेशकीमती गाड़ियों का काफिला कर्नाटक के शहरों-कस्बों में चलता रहा। रोड-शो में हनुमान जी की शक्ल बनाये या मुखौटा लगाये कार्यकर्ता या समर्थक घंटों पैदल चलते रहे। मोदी जी की जय-जयकार होती रही। मोदी जी बीच-बीच में कांग्रेस पर तरह-तरह के इल्जाम भी लगाते रहे।

चुनाव को अपने खास हिन्दुत्ववादी एजेंडे पर लाने के मकसद से प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा के अन्य नेताओं ने कांग्रेस पर बजरंग-बली यानी हनुमान जी को अपमानित करने का इल्जाम लगाया। उन्होंने कांग्रेस के घोषणापत्र की एक लाइन का हवाला देकर यह इल्जाम लगाया। इसमें कहा गया था कि कांग्रेस सत्ता में आई तो वह पीएफआई और बजरंग दल जैसे सांप्रदायिक उन्मादी संगठनों की गतिविधियों पर प्रतिबंध लगायेगी। मोदी और शाह की शीर्ष जोड़ी ने बजरंग दल जैसे सांप्रदायिक-उन्मादी संगठन को बजरंग बली या हनुमान जी से जोड़ने की हर संभव कोशिश की। आरएसएस के तहत काम करने वाले एक विवादास्पद संगठन को हिन्दू धार्मिक समूह में देवता की तरह पूजे जाने वाले हनुमान जी का पर्यायवाची बनाने की इस मुहिम की चुनाव आयोग में शिकायत भी की गई। पर आयोग ने इसके लिए भाजपा के नेताओं पर न किसी तरह की कार्रवाई की और न ही उन्हें उक्त मुहिम से रोका। सिर्फ आखिरी दिन हनुमान-चालीसा पढ़ने के एक आह्वान पर रोक लगी।

भाजपा के शीर्ष नेताओं ने कांग्रेस पर एक और ऐसा भयानक हमला किया, जो पूरी तरह मनगढ़ंत था, लेकिन जिसका राजनीतिक असर बहुत व्यापक हो सकता था। प्रधानमंत्री मोदी ने कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष और बुजुर्ग सोनिया गांधी पर राजनीतिक हमला करते हुए आरोप लगाया कि वह और अन्य कांग्रेसी कर्नाटक को देश से अलग करना चाहते हैं। प्रकारांतर सेदेश की एक बुजुर्ग नेता सोनिया गांधी पर यह ‘राजद्रोही’ होने के इल्जाम जैसा था। निर्वाचन आयोग खामोश रहा। यही नहीं, कई सरकारी एजेंसियां विभिन्न उम्मीदवारों के घरों-दफ्तरों पर छापे डालती रहीं। इनमें ज्यादातर विपक्षी उम्मीदवार ही होते थे। इस तरह के माहौल में कर्नाटक का चुनाव संपन्न हुआ। इसके बावजूद अगर कांग्रेस वहां जीतती है तो संकेत बड़े साफ हैं। कर्नाटक पूरे देश को रास्ता दिखा रहा है कि बेहद खर्चीले व सांप्रदायिक उन्माद भरे चुनावी माहौल और सत्ता की लगातार बढ़ती निरंकुशता के बीच लोकतंत्र की रक्षा की लड़ाई कैसे लड़ी जानी चाहिए!

अगर कांग्रेस सचमुच यह लड़ाई जीतती है तो उसके कुछ बड़े कारण और कारक हैं। पहला कारण है-सत्ता-पक्ष के तमाम विभाजनकारी नारों और अभियानों के बावजूद एंटी-इनकम्बेंसी की तीव्रता को बरकरार रखने में कांग्रेस कामयाब रही। वह शुरू से आखिर तक बोम्मई की अगुवाई वाली सरकार को इतिहास की सबसे भ्रष्ट सरकार बताती रही। लोगों की जुबान पर एक बात बरकरार रही कि यह 40 फीसदी कमीशन वाली सरकार है। मंहगाई-बेरोजगारी के आगे भाजपा का सांप्रदायिक चुनाव-अभियान बहुत कारगर नहीं हो पाया।

दूसरा बड़ा कारण रहा कि यूपी-बिहार आदि की तरह कर्नाटक में हिन्दू-मुस्लिम द्वेष जमीनी स्तर पर नहीं दिखा। सिर्फ समुद्रतटीय कर्नाटक के कुछ इलाकों में ही सांप्रदायिक विभाजन का कुछ असर दिखा। मुस्लिम आबादी राज्य के कई हिस्सों में बहुत उल्लेखनीय है पर ज्यादातर इलाकों में सद्भाव का माहौल दिखा। पिछले कुछ सालों में भाजपा और संघ-प्रेरित संगठनों की तरफ से कर्नाटक में सांप्रदायिक विभाजन के लिए अनेक मसले उठाये गये। पिछले दिनों इनमें एक बड़ा मुद्दा बनाया गया-हिजाब का। लेकिन चुनावी-परिदृश्य में कहीं भी यह मुद्दा नहीं दिखा। इसका मतलब ये रहा कि जो विभाजन पहले दिखा था, वह सिर्फ राजनीतिक-अभियानों तक सीमित था-समाज के अंदर वह नहीं प्रवेश कर पाया।

दुखद है कि यूपी-बिहार आदि में वह समाज के अंदर भी प्रवेश कर चुका है। इसलिए हिन्दी भाषी राज्यों में लोकतांत्रिक-सेक्युलर राजनीति के आग्रही दलों और लोगों के सामने आज बड़ी चुनौती है। तीसरा बड़ा कारण दिखा-संगठन की शक्ति। भाजपा के पास सत्ता की ही नहीं, धन की भी अपार शक्ति थी। कांग्रेस के पास सत्ता नहीं थी पर संगठन जरूर था। वह उसके चुनाव प्रचार-अभियान में साफ-साफ दिख रहा था। सिद्दारमैया और डी के शिवकुमार जैसे दो बेहद कर्मठ और सक्रिय नेता थे। कर्नाटक के ही धरती-पुत्र मल्लिकार्जुन खड़गे की सांगठनिक-अध्यक्षता थी। राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ने भी जमकर काम किया। गुजरात के विधानसभा चुनावों के दौरान वे दोनों चुनावी-परिदृश्य से लगभग गायब रहे। सच पूछा जाये तो कर्नाटक में कांग्रेस ने भाजपा के खिलाफ जबर्दस्त मोर्चेबंदी की। यह दलों की नहीं, समुदायों और लोगों की मोर्चेबंदी थी। देखिये, 13 मई को वास्तविक नतीजा कैसा रहता है!

(उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक हैं।)

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