वे हमारी बेटियां हैं!

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समाज में विचरण करते हुए कई तरह के लोग मिलते हैं। दो-तीन दिन पहले एक सज्जन से मुलाकात हुई। बातचीत में उन्होंने दिल्ली में महिला पहलवानों के विरोध प्रदर्शन का जिक्र किया। मैंने उन्हें बताया कि हमारे अखबार ने उनके बारे में खबरें छापी हैं। उन्होंने बीच में टोका और पूछा, “क्या आप वहां गए हैं?” मैंने कहा, “नहीं, लेकिन हम पत्रकारों और एजेंसियों की खबरें छाप रहे हैं। हमने दोनों पक्षों का पक्ष लिया है।” उन्होंने पूछा, “दूसरा पक्ष कौन सा?” मैंने कहा कि एक तरफ महिला पहलवान हैं और दूसरी तरफ बृजभूषण शरण सिंह।

उस सज्जन ने कहा, “क्या कह रहे हो? वे हमारी बेटियां हैं। आप वहां क्यों नहीं गए?” मैंने उनसे पूछा कि क्या वो वहां गये थे। उन्होंने कहा कि उन्हें छुट्टी नहीं मिल रही है लेकिन छुट्टी मिलते ही वो वहां जाएंगे।बातचीत समाप्त हुई।

बातचीत तो समाप्त हो गई लेकिन मेरे कानों में यही विचार गूंज रहे हैं, “वे हमारी बेटियां हैं।” उन सज्जन की आवाज में गहरी पीड़ा और दुख था, निराशा थी। शायद अपने वहां (जंतर-मंतर) न पहुंच पाने का दर्द या फिर यह दर्द कि मानवाधिकारों के पक्ष में आवाज उठाने वाले तमाम लोग जंतर-मंतर क्यों नहीं पहुंच रहे हैं।

शायद यह वाक्य बहुत से लोगों के कानों में गूंज रहा है और लोग विरोध करने वाली महिला पहलवानों से संपर्क कर रहे हैं और उनके विरोध प्रदर्शन में शामिल हो रहे हैं। उनके साथ एकजुटता व्यक्त कर रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पदक जीत चुकीं खिलाड़ी विनेश फोगट और साक्षी मलिक उनकी अगुवा हैं। पुरुष पहलवान और अन्य खिलाड़ी भी उनका साथ दे रहे हैं।

इन पहलवानों ने जनवरी में भी धरना लगाया था। इसके बाद एक जांच समिति का गठन किया गया और उन्हें आश्वासन दिया गया कि उनके साथ न्याय किया जाएगा। उन्होंने (महिला पहलवानों ने) उस वायदे पर विश्वास किया और धरना उठा लिया लेकिन उनका कहना है कि उन्हें न्याय नहीं मिला; उन्हें धोखा दिया गया।

उन्हें फिर से धरने पर बैठना पड़ रहा है। कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ भी मामला स्वत: दर्ज नहीं हुआ। ललिता कुमारी मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने नवंबर 2013 में निर्देश दिया था कि अगर शिकायत में गंभीर अपराध के अंश शामिल हैं तो तुरंत मामला दर्ज किया जाना चाहिए; उसके लिए प्रारंभिक जांच की जरूरत नहीं है, लेकिन दिल्ली पुलिस ने मामला दर्ज नहीं किया और कहा कि वह (दिल्ली पुलिस) प्रारंभिक जांच कर कार्रवाई करेगी।

महिला पहलवानों को केस दर्ज कराने के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाना पड़ा। सुप्रीम कोर्ट के दखल के बाद मामला दर्ज होना दिखाता है कि महिला पहलवानों का मुकाबला कितनी शक्तिशाली ताकतों के साथ है। सदियों से हमारे समाज के हालात ऐसे ही रहे हैं; सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक पुरुष-नेता बेटियों के साथ अन्याय करते रहे हैं, जैसा कि 350 साल पहले वारिस शाह ने पंजाब की बेटी हीर के पक्ष में लिखा था, “शेखों की दाढ़ी, कसाइयों की छुरी / पंचायत में बैठ पंच कहलाते हैं।” जुल्मी व अत्याचारी समाज के नेता/पंच बन जाते हैं।

यह धरना इसलिए दिया जा रहा है क्योंकि पहला धरना विफल हो गया था। असफलता के बाद फिर से संघर्ष करने के लिए बहुत साहस और समर्पण की आवश्यकता होती है। वैसे भी हमारे समाज में महिलाएं अक्सर अपने अधिकारों के लिए लड़ने से परहेज़ करती हैं। एक महिला जो अपने अधिकारों के लिए लड़ने के लिए खड़ी होती है, वह शुरुआत में बहुत अकेली होती है। उसे समझाया जाता है कि अपने अधिकारों के लिए लड़ने का कोई मतलब नहीं है; ऐसा करने से उसकी बदनामी होगी; यह सामाजिक शिष्टाचार के विपरीत है; ऐसा करना अच्छी बेटियों को शोभा नहीं देता।

अच्छी बेटियों को क्या शोभा देता है? अगर हम सामाजिक समझ की आवाज सुनें तो अच्छी बेटियों को अपने खिलाफ हर ज्यादती सहन कर लेनी चाहिए; मन से उठने वाली आवाज को मन में ही दबा देना चाहिए। सामाजिक मानसिकता के चरित्र को देखें तो पता चलता है कि जो नारी अपने अधिकारों के लिए उठ खड़ी होती है उसके पास बहुत हिम्मत होती है; उसके मन में घोर अंतर्द्वन्द्व होता है कि मैं अपने साथ हुए अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाऊं या न उठाऊं; उसके मन में तरह-तरह के विचार और प्रश्न उठते हैं।

“चुपचाप सहने और ‘इज्जत’ बनाए रखने में ही भलाई है; जो होना था सो हो गया।” अधिकतर महिलाएं इस सोच को अपनाते हुए आवाज नहीं उठाती हैं। जो महिला इस सोच को खारिज कर अत्याचार और अत्याचारी के खिलाफ आवाज उठाने का फैसला करती हैं, वह बहुत बड़े खतरे को झेलती हैं।

जंतर-मंतर पर प्रदर्शन कर रही बेटियों ने बड़ा खतरा झेला है। हम देख सकते हैं कि उनसे क्या-क्या सवाल पूछे जा रहे हैं: इन महिलाओं ने तीन महीने पहले केस दर्ज क्यों नहीं करवाया? इन्होंने पहले आवाज क्यों नहीं उठाई? उनकी मांगों के पीछे राजनीतिक एजेंडा क्या है?

इन महिलाओं का राजनीतिक एजेंडा अपने शरीरों पर झेली पीड़ा का एजेंडा है। पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं को हजारों मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। हमारे समाज में बेटियों के प्रति सबसे तीखी और छिपी हुई कुप्रथाओं में से एक है उन्हें समान इंसान नहीं बनने देना; उन्हें बताना कि वे अबला हैं; उन्हें सुरक्षा की जरूरत है और पुरुष उनकी रक्षा करेंगे।

स्त्री में हीनता की भावना पैदा करना सबसे बड़ा सामाजिक और पारिवारिक अन्याय है। यह उसके अंदर आजीवन नाजुकता की भावना पैदा करता है जिससे वह अपने पैरों पर खड़े होने के लिए सहारे और मदद की तलाश करती रहती है; संघर्ष करने से घबराती/ डरती रहती है।

जंतर-मंतर पर धरने पर बैठी महिलाओं ने अपनी अबला की प्रचलित धारणा को खारिज कर दिया है; अपने अस्तित्व पर विश्वास किया है। उन्नीसवीं सदी में पंजाबी की दलित शायरा पीरो ने आह्वान दिया था, “आओ मिलो सखियो, मिल बैठ मसलित करें।” मसलित से भाव मिल बैठ विचार-गोष्ठी करने से है। ये महिलाएं एक साथ बैठकर अपने हक के लिए आवाज उठा रही हैं।

अमेरिकी कवयित्री माया एंजेलो ने कहा है, “हर बार जब एक महिला अपने अधिकारों की रक्षा के लिए खड़ी होती है, बिना जाने, बिना दावा किए वह सभी महिलाओं के अधिकारों के लिए आवाज उठा रही होती है।” जंतर-मंतर पर अपने अधिकारों के लिए आवाज उठा रही महिलाएं देश भर की महिलाओं के अधिकारों के लिए आवाज उठा रही हैं। परिचित सज्जन के शब्द मेरे कानों में गूंजते हैं, “वे हमारी बेटियां हैं।”

महिलाएं सदियों से संघर्ष कर रही हैं। सोजॉर्नर ट्रुथ (कानूनी नाम इसाबेला वॉन वैगनर), 18वीं और 19वीं शताब्दी के दौरान अमेरिका में गुलामी झेल रही लाखों अश्वेत महिलाओं में से एक, गुलामी के खिलाफ लड़ीं, खुद को मुक्त किया और अपने बेटे को एक सफेद मालिक की गुलामी से मुक्त करवाने वाली पहली महिला बनीं। 1851 में, ओहियो में एक महिला अधिकार सम्मेलन में, उन्होंने एक भाषण दिया, “क्या मैं एक महिला नहीं हूं?”

सम्मेलन में, अपनी दाहिनी भुजा दिखाते हुए, उन्होंने कहा, “मैंने हल चलाया है, फसलें लगाई हैं, और बड़े खलिहानों /दालानों की साफ-सफाई की है और कोई भी आदमी मेरा मुकाबला नहीं कर सकता। क्या मैं एक महिला नहीं हूं? मैं किसी भी आदमी की तरह काम कर सकती हूं और अगर मुझे भरपेट खाना मिल जाए तो मैं उसके (आदमी) जितना खाना खा भी सकती हूं और कोड़े भी सह सकती हूं। क्या मैं औरत नहीं हूं?”

जंतर-मंतर पर बैठी महिलाएं भी ऐसा ही सवाल पूछ रही हैं, जो मेरे परिचित सज्जन के सवाल में छिपा है, “क्या हम आपकी बेटियां नहीं हैं?” देश की सभी लोकतांत्रिक ताकतों को इन बेटियों के पक्ष में आवाज उठानी चाहिए। जैसा कि पंजाबी कवि अशक रहील कहते हैं, “चलो उन पदचिन्हों को देखें जो हमें मंजिल तक ले जाते हैं।”

इन महिलाओं के ये कदम सामाजिक समानता की ओर बढ़ते कदम हैं; ये कदम लोकतंत्र के कारवां की पहचान बनने वाले हैं। देश की लोकतांत्रिक ताकतों को इन कदमों में शामिल होना चाहिए। देश की बेटियों के अधिकारों से बड़ा संवेदनशील मुद्दा कोई नहीं हो सकता। अगर हम उसमें संवेदना महसूस नहीं करते हैं तो हम खुद को क्या मुंह दिखाएंगे?

(स्वराजबीर, पंजाबी दैनिक ‘पंजाबी ट्रिब्यून’ के संपादक हैं। उनके इस लेख का अनुवाद कृष्ण कायत ने किया है।)

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