Friday, April 19, 2024

उदारवाद के ढोंग और इस्लाम की ठेकेदारी से परे भी हैं तर्क

इमरान अहमद

पूंजीवाद की सबसे बड़ी जीत द्विपक्षीय लड़ाईयां कराना है। पूंजीवाद के गढ़ को ही देख लीजिए वहां चुनावी लड़ाई कैसी होती है, या तो आप रिपब्लिकन के साथ हैं, नहीं तो फिर डेमोक्रेक्ट्स के साथ धक्के खाइए। और फिर दोनों विश्वयुद्ध का स्मरण कर लीजिये, या तो आप एक्सिस पॉवर के साथ रहिये या फिर अलाइड फोर्सेस के संग नृत्य कीजिये। अलबत्ता एक और पथ है, मौन का पथ। पर अगर आपको भाग लेना है तो तीसरा रास्ता नहीं है।

बहरहाल; ये सब लेख का मुख्य विषय नहीं है, बल्कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में जो हालिया प्रकरण हुआ है उसको समेटना है। असल मे इस लेख मे मुस्लिम समुदाय के उत्तेजित लोगों से वार्तालाप करना है और साथ-साथ उदारवाद / मानववाद / नास्तिकता इत्यादि का ढोंग रखने वाले लोगों को तार्किक जवाब देना है।

प्रकरण कुछ यूं है, अमुवि के तीन पूर्व एवं वर्तमान छात्र-छात्राएं दिल्ली के किसी बार में जाते हैं; और वहां उनके कुछेक मित्र भी आ जाते हैं। उनमें से एक भोला इन सब का फोटो शराब के साथ फेसबुक पर अपलोड कर के इन तीनों को टैग करता है। पर बात यहीं तक नहीं रही बल्कि उस पर कैप्शन बहुत ही आहत भरा है, जिसको लिखना उचित नहीं है। और फिर ये तीनों फहद ज़ुबेरी, उमर गाजी और नशराअहमद उस पोस्ट को लाइक-लव करते हैं। पर सारे मीडिया हाउसेज खबर को अलग ही दृष्टि से दिखाते हैं, जैसे इंडियन एक्सप्रेस की हेडिंग “AMU student gets showcause notice for ‘drinking alcohol at iftaar’.” अर्थात “ इफ्तार में शराब पीने से अमुवि के छात्रा को मिला कारण बताओ नोटिस”। और वहीं अपने आप को मुस्लिम सामाज का रिफार्म करने का ढोंग करने वाले “न्यू एज इस्लाम पोर्टल” का भी वही राग है।

वहीं उदारता के ढोंग का बेहतरीन नमूना “न्यूज़ लौंड्री” नामक पोर्टल पर मिल जाएगा। जहां एक तरफ अंग्रेजी में “तुफैल अहमद” के लेख “How AMU breeds counter-modernism and religious orthodoxy” छपा है, वहीं दूसरी तरफ “रोहिण कुमार” का लच्छेदार लेख “कट्टरपंथी छात्र और छात्र नेताओं के आगे अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी ने टेके घुटने”। रोहिण कुमार पूरे लेख में मामले को अभिव्यक्ति की आजादी से जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं, और किसी न किसी तरह इस्लामोफोबिया से बचाव की कोशिश की झलक भी है।

वहीं रोहिण कुमार के लेख के अनुसार: “मंगलवार शाम जेएनयू के एक छात्र नेता जो वाम संगठन के सक्रिय सदस्य भी हैं, उनसे पूछा, “आप लोग क्यों नहीं घटना पर निंदा प्रस्ताव ला रहे हैं? संगठन का क्या स्टैंड है? आप लोगों को तो जैसे सांप ही सूंघ गया है। क्या आप लोगों को यह छोटा मामला लगता है, जिस पर प्रतिक्रिया देने की जरूरत महसूस नहीं होती?

उन्होंने कहा, “कठमुल्लों के बारे में क्या ही कहा जाए। वहां की यूनियन है ही इस तरह की। हमारा पक्ष बस इतना है कि कोई भी कुछ भी खाए-पीए, फेसबुक पर फोटो डाले, नारे लगाए यह उसकी निजी पसंद है।” उन्होंने ज्ञान दिया लेकिन सार्वजनिक विरोध या निंदा करने की बात को टाल गए। आखिर सार्वजनिक तौर पर ऐसी जड़ताओं के खिलाफ बोलने में किस बात का डर है। सवाल यह भी है क्या बहुसंख्यक उग्रता के बरक्स अल्पसंख्यक उग्रता को नजर अंदाज किया जा सकता है?” इससे  तथाकथित सेकुलरिज्म के अलंबरदार लोगों की भी पोल खुलती नज़र आ रही है।
मेरी जो उदारवादी गुट की परिभाषा है उसमें सब तथाकथित सम्मलित हैं, चाहे वाम का धड़ा हो, या प्रगति का चोला पहना हो और नास्तिकता का विचार रखे।

उस कैप्शन का कुछ अहम अंश बयान करना बहुत ज़रूरी है। जैसे कैप्शन में लिखा है “Iftari with musical stalvarts of Aligarh Muslim University. By Allah’s grace made 3 lapsed Sunni Muslims have Madira tonight.”और आखिर में लिखा है “(Uploaded by Tarek Fateh Android)”.
पर समाचारों में सिर्फ शराब-खाने पीने की आजादी की बात हो रही है। इस अंश के साथ धर्म का मजाक उड़ाने वाले शब्दों का कोई उल्लेख नही है, बल्कि सिर्फ संघ के मुस्लिम संस्थानों पर सुनियोजित हमले की मशीनरी की तरह काम कर रहे हैं।
यहां पर इटैलिक शब्दों पर गौर करने की ज़रूरत है, कैसे मुसलमान नवजवानों को उकसाने की कोशिश हुई है।

इस प्रकरण के कुछ ही लम्हे बाद सारे लिबरल फेसबुक ग्रुप में मुसलमानों को गालियां पड़ने लगीं। बाकि बहुत सारे खुलेआम इस्लाम-अमुवि को गालियां और न जाने क्या-क्या कहने लगे। पर मेरी नज़र “राजीव त्यागी” नामक व्यक्ति पर ठहर सी गई। एक तरफ तो ये शख्स तारेक फ़तेह और भोले को इस्लामोफोब वैगरह कह रहा है, और आगे कहता है कि मेरे तीनों दोस्त फहद, उमर और नशरा गलत संगत में चले गए हैं। पर दूसरी तरफ एफआईआर करने वाले को जेहादी, कुंठित और न जाने क्या-क्या कहने लगता है।

अब आती है लेख के पहले अंश के प्रासंगिकता की बारी, इस पूरे प्रकरण मे दो ध्रुव बन गए हैं। तीसरा अर्थात वास्तविकता और तर्क के लिए कोई जगह ही नहीं रही, दोनों गुट तर्क पर तो बात करते मिल जाएंगे अलबत्ता पार्शियल तर्क जो उनको कम्फर्टेबल हो।
पर वहीं विश्वविद्यालय के एक छात्र शर्जील उस्मानी लिखता है, “फ़हद और ओमर का माफ़ीनामा केवल एफ़आईआर के डर से है। वरना इनको धर्म और धार्मिक आस्था पर मज़ाक बनाने में मज़ा आता है। महीनों से ये यही सब करते आ रहे हैं। भोले की पोस्ट के अलावा भी पच्चीसियों ऐसी पोस्ट इनके वाल पर मिल जाएंगी जहां ये न सिर्फ इस्लाम, बल्कि सनातन और इसाई धर्म का भी मज़ाक बनाते रहे हैं। इनकी मासूमियत केवल एफ़आईआर के लिए है। ओमर के लिए तो भोले ही नबी हैं, यह एक जगह वह खुद लिखते हैं।
रही बात नशरा की तो उसका सिर्फ इतना ही कुसूर था कि वो फहद और ओमर की दोस्त है। धार्मिक मसले पर आज तक कम से कम मैंने तो कोई टिप्पणी नशरा की ओर से नहीं देखी। उसको पहले ही दिन अपने आप को उस पोस्ट से अलग करके, उसको रिपोर्ट करना था। लेकिन यह नहीं हुआ। नशरा का माफ़ीनामा यकीन करने लायक था। लेकिन फहद और ओमर ने अपना माफीनामा निकाल कर नशरा की माफ़ी का मज़ाक बना दिया। कैसे दोस्त हैं ये?
यह सब कहने के बाद, एक बात आप अच्छी तरह समझ लें। इस तरह यूं भद्दी गाली देने का हक़ आपको भी नहीं है। एक जगह किसी पोस्ट के कमेन्ट में नशरा को किसी ने गाली दी तो मैंने मना करने की कोशिश की। सामने से सवाल आया कि ‘क्या तुम नशरा के क्लाइंट हो’। एक बेगैरत इंसान ने जो खुद को अव्वल दर्जे का मुसलमान बताता है, लिख दिया कि ‘चार लड़के, एक लड़की – गैंगबैंग’। कोई बोलता है कि गांजा पीती है, आंख काली हो गई, कोई फटे हुए कंडोम की औलाद बोल देता है। यह सब इस्लाम के नाम पर? तौबा करो बदजुबानों।
कल इसी को रोकने के लिए पोस्ट लिखे थे, तो बैलेंसवादी और अथीस्ट घोषित हो गए। बड़े-बड़े लोगों ने कमेन्ट किया लेकिन किसी ने भी यह नहीं किया कि अपने वाल पर से उन गालियों को हटा देता।
ओमर और फहद की बात जहां तक है, ये दोनों कम से कम पिछले डेढ़ साल से ये सब लिख बोल रहे हैं। एक बात इन्हीं के समर्थक नबील फिरोज़ को लिंच करने की धमकी पब्लिक में दे रहे थे। उस पोस्ट में लिखा था ‘लिंच दिस मुल्लाह’। उस वक़्त भी ये दोनों टैग थे, इन्होंने कुछ नहीं बोला था। आज दोनों का मैसेज आया था। वीडियो भेजी थी कि अपनी वाल पर डाल दो। लेकिन उसका कोई मतलब नहीं है, ये झूठे हैं, ऐसे ही रहेंगे।
इन सब में आप एक ज़रूरी बात भूल रहे हैं। भोले विश्वकर्मा पर ध्यान केन्द्रित कीजिए। बहुत बड़ा हिन्दुत्ववादी इस्लामोफोब है। सैंकड़ों पोस्ट ऐसे लिख चुका है और अब भी मज़े ले रहा है। उस पर केस मज़बूत कीजिए।
बाकि, बैलेंसवादी कहिए या अथीस्ट, उससे कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा। वस्सलाम.”
पर इन सब में नशरा ही पिस रही है और वो उतना जिम्मेवार भी नहीं है, पर विमेंस कॉलेज के स्टूडेंट्स यूनियन एवं अन्य महिला नेत्रियों की चुप्पी एक अजीब सी वाईब छोड़ रही है।
और अंत में यही कह सकता हूं कि पूंजीवाद जीत गया है, क्योंकि आप या तो उदारवाद के ढोंगी बन जाओ या फिर इस्लाम के ठेकेदार बन जाओ तो ही बढ़िया; इसी तरह इस्लाम के ठेकेदारों ने नशरा को उदारवाद के ढोंगियों के गिरोह मे धकेला है। पर आगे क्या होगा मुझे नहीं पता पर मेरा आकलन है, अगर अमुवि का मुस्लिम समुदाय नशरा के साथ डायलाग नहीं करेगा तो: या तो नशरा भी भोला को भगवान मानेगी या फिर आत्मदाह कर सकती है। अगर उसने खुद को नुकसान पहुंचाया तो उसका कातिल खुद मुस्लिम सामाज होगा।
(इमरान अहमद ब्लॉगर एवं लघु कहानियों के लेखक हैं।)

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